शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

न्यायपालिका में उपजती विभीषणगिरी बनाम राम राज्य की तलाश

न्यायपालिका में उपजती विभीषणगिरी बनाम राम राज्य की तलाश
न्यायपालिका में भी विभीषण निकल कर आयेंगें ये सोचा नहीं था कभी। इस विभीषणगिरी में रावण की भूमिका में कौन है यह तो समझ में आता है किंतु विभीषण के द्वारा बगावती सुर किस आराध्य प्रभु राम के तले हो रहा है यह तो समझ के परे है। धरने पर लोकतंत्र के मंदिरों में, शिक्षा के मंदिरों में प्रेस कांफ्रेंस करते अपराधी और प्रतिवादियों को खूब देखा है किंतु न्याय के मंदिर के बार पंचपरमेश्वरों को प्रेस कांफ्रेंस करते पहली बार देखा है। इस प्रकार के संवाद से मेरे मन में रह रहकर कई प्रश्न उपजते रहे,सोचता हूं वो प्रश्न आप सबसे भी साझा कर ही दूं क्या सर्वोच्च न्यायाल्य के माननीय न्यायाधीशों ने अपनी समस्या को माननीय राष्ट्रपति जी से साझा की, या एटार्नी जनरल, रजिस्टार सुप्रीमकोर्ट, को बताना उचित समझा, जजों के यहां सरकार और विपक्ष के नेता किस विषय पर चर्चा करने गए, जजों ने परिस्थिति जन्य त्यागपत्र देने का रास्ता क्यों नहीं चुना, इनके द्वारा की गई प्रेस कांफ्रेंस किसकी अनुमति से हुई, इससे न्यायपालिका के प्रति जनसाधारण और नागरिकों के बीच किस तरह की वैचारिक टूटन आयेगी, क्या न्यायपालिका के विभागीय मसले अब खुले आसमां में मीडिया के द्वारा सुलझाए जाएगें, क्या न्यायाधीशों के ऊपर बैठे अधिकारी अब विश्वासयोग्य और न्याय संगत नहीं रहे, क्या वो अब विधायिका और कार्यपालिका के एजेंट बन चुके हैं,आदि बहुत से प्रश्न अपने उत्तर की तलाश करते रहे। अब सवाल यह है कि ऐसी स्थिति निर्मित हुई क्यों, इस विभीषणगिरी की रीड़ कहां से प्रारंभ होती है।
जस्टिस दीपक मिश्र पहले भी कई आदेशों को लेकर मीडिया और न्यायपालिका में लाइमलाइट में रहे जैसे निर्भया कांड के दोषियों की सजा को बरकरार रहना, चाइल्ड पोर्नोंग्राफी वेबसाइट को भारत में वैन करना, सबरी माला मंदिर में महिलाओं के लिए खोलना, सिनेमाहाल में राष्ट्रगान अनिवार्य करना, एफ आई आ की काफी को वेवसाइट में चौबीस घंटे में अपलोड़ करना, अपराधिक मानहानि की संवैधानिक मानता, मेमन की फांसी को बरकरार रखना, आरक्षण को मायावती के शासन काल में रोक लगाना, आदि इतना ही नहीं जस्टिस मार्कंडेय काटजू, टीएस ठाकुर, करन्न, प्रतिभारानी जैसे जस्टिस भी अपने कार्यकाल में विवादों में रहे। इस बार की विभीषण गिरी का प्रारंभ जज ब्रजगोपाल लोया की संदिग्ध हालत में मौत के मामले की जांच को लेकर हुआ, किंतु इसके अलावा भी कालेजियम सिस्टम में पारदर्शिता, चीफ जस्टिस और अन्य जस्टिसों के बीच विभागीय मतभेद,  मामलों को अन्य जस्टिसों के बेंच में स्थानांतरित करना, और सबसे महत्वपूर्ण बात न्यायपालिका और सरकार दोनों ही इस बात के लिए वैचारिक युद्धरत हैं कि जजों की नियुक्ति उनके पास ही रहे। सरकार, और सुप्रीमकोर्ट दोनों ही इस मामले में खुद को ड्राइविंग सीट में रखना चाहते हैं। इस विषयों में कोर्ट और संविधान दोनों की नियमावलियां चुप्पी साधे हुई हैं। ये दोनो संवैधानिक समूह अभी तक तय नहीं कर पा रहे कि आखिर कैसे लोगों को जज बनाया जाए, उनकी योग्यता और अनुभव के मापदंड क्या होगें, मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स की कमी के चलते यह मामला अदालत से खुले आसमां में आकर दिखने लगा।
वास्तविकता में देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट में ही चीफ जस्टिस के अलावा एकतिस पदों में छ पद खाली है और पांच जज इस मार्च तक सेवानिवृत हो जाएगें। जब यह हाल सुप्रीम कोर्ट का है तो अन्य राज्यों की न्यायपालिका की तो इससे ज्यादा दुर्गति है। सुप्रीम कोर्ट में आठ राज्यों के जस्टिसों का कोई प्रतिनिधित्व भी नहीं हो पाया, नियुक्ति मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स के फाइनल ना होने की वजह से नई नियुक्तियां ठंडे बस्ते में सो रही है और तीन करोड़ मामले उसके वादी प्रतिवादी न्यायपालिका के मंद्रिर में  प्रसाद पाने के लिए मुंहबाए खडे हुए हैं। चयन की बात करें तो जजों का चयन एक समान प्रक्रिया से होता है वह है वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों, हाईकोर्ट जजों और वकीलों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया जाता है। इसके लिए अखिलभारतीय वरिष्ठता, और उम्र को प्रमुख माना गया है। साथ ही साथ महिला जजों का प्रतिनिधित्व भी ध्यान में रखकर नियुक्ति की जाती है। उधर हाई कोर्ट में जजों को अपने गृह हाई कोर्ट के अलावा नियुक्ति में लाने के लिए उसी कोर्त के वरिष्ठ जजों की मंजूरी आवश्यक है यही कालेजियम सिस्टम है। केस के वितरण के लिए सुप्रीम कोर्ट की बारह बेंच में चीफ जस्टिस से पहली बेंच प्रारंभ होकर वरीयताक्रम के आधार पर बारहवीं बेंच तक केस वितरित किये जाते हैं। राज्यों और संवेदनशील मुद्दों की सुनवाई चीफ जस्टिस की बेंच को सौंपी जाती है। पिछले पांच सालों मेंअधिक्तर मामले इसी बेंच के द्वारा सुलझाए गए। अन्य बेंच तक मामले क्यों नहीं गए यह प्रश्न चिंन्ह खडा करता है।
अक्टूबर में जब दीपक मिश्रा चीफ जस्टिस की सेवा निवृति है इसके पहले इस तरह के आरोप प्रत्यारोप की सिटकिनी लगाकर मीडिया में कूदने वाले विभीषणगीर जस्टिसेस ने उनकी छवि को दागदार बता दिया है। इसके अलावा जस्टिस दीपक मिश्र के द्वारा लिया गया केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर्स के भ्रष्ट्राचार के मामले को सुलझाने के लिए पहले जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित की बेंच से अपने बेंच में ले जाया गया और निर्णय सुनाने की बजाय जस्टिस अरुण मिश्र को यह केस ट्रांसफर कर दिया और वहां से इन भ्रष्टाचार आरोपी वाइस चांसलरों के खिलाफ केस खारिच कर दिया गया। इस तरह की अंदरूरी खींचातानी,शिक्षा के मंदिरों के पीछे चल रहे दोगलेपन को छिपाने की कोशिश, जस्टिसों का भी पक्ष और विपक्ष राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा के समर्थन से यह स्तिथि पैदा हुई है। जस्टिसेस का विचारधारा के प्रति झुकाव, विचारधारात्मक पार्टियों से संबंधित केसेस के प्रति छद्म पारदर्शिता का दिखावा, और फिर मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स को लागू करने में सहयोग करने की बजाय , अपने सुप्रीम न्याय, कार्य और विधायिका के केद्र व्यक्ति की जानकारी के बिना इस तरह मीडिया से सीधे रूबरू होना मुझे तो असंवैधानिक और अप्रत्याशित लगा। न्यायपालिका की नियुक्तियों के लिए न्यायपालिका को पूरे डेकोरम सहित बातचीत करके मामले के परिणामों को सबसे सामने रखने की उम्मीद हम सबको है। यह भी सच है गाहे बगाहे विधायिका का अप्रत्याशित दखल न्यायपालिका में देखा जाता रहाहै किंतु संवैधानिक परिवर्तनों के माध्यम से ऐसे कानून बनाना होगा जिससे तीनों पालिकाओं के बीच में समान्जस्य भी बना रहे और एक दूसरे के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा भी हो।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

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