मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

होरी रे! अब ना पधारो म्हारे देश। अनिल अयान

होरी  रे! अब ना पधारो म्हारे देश। अनिल अयान
बरस-बरस पर आती होली,रंगों का त्यौहार अनूठा,चुनरी इधर, उधर पिचकारी,गाल-भाल पर कुमकुम फूटा,लाल-लाल बन जाते काले,गोरी सूरत पीली-नीली,मेरा देश बड़ा गर्वीला,रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली,नीले नभ पर बादल काले,हरियाली में सरसों पीली !-गोपाल सिंह नेपाली। गोपाल सिंह नेपाली ने कभी भी ना सोचा होगा कि होली के रंग इस तरह से रंगहीन हो जाएगें। होली की फुहार के रंग सूख जाएगें और धूल की तरह उडे़गें। एक दशक पूर्व तक होली के पूर्व होलिका स्थापित कर ईष्र्या, क्रोध व कुपृव्रत्तियों को जलरने की परंपरा में व्यापक सामाजिक सहभागिता सुनिश्रि्वत की जाती थी। इसी के तहत होलिका में कुछ न कुछ हर घर से डालने की परंपरा थी। बदलते परिवेश में यह भी समाप्ति की तरफ है। होली के पखवारे भर पूर्व से गाये जाने वाले रस भरे लोक गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया है। पहले होली में गाये जाने वाले गीतों में सामाजिक उत्कर्ष की भावना निहित होती थी जबकि उसमें आंतरिक आद्रता की झलक मिलती थी। परंपराओं के प्रति अ ब लोगों में वह छोह नही रह गया है जबकि पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ ने भी हमारी परंपराओं को पीछे धकेला है।पहले के समय में गाँव व शहर सब होली की महक में भिनसारे से रात के तीसरे पहर तक गुलाबी होते थे। पहले पलाश और टेशू के रंग तो खुद बता देते थे कि उठो फागुन आ गया है। रंग बरसते थे बरसात की तरह, बनारस का पान खाकर होरियारे जब अपनी टोलियों के साथ गली पगड़डियों में निकलते थे तो बूढो को जवानी का अहसास हो जाता है। वो गोकुल बरसाने की होली की याद देश भर में हर कोने कोतरे में दिखाई पड़ते थे। अब तो सबके चेहरों के रंग उडे हुए हैं। अब तो गरीबी में प्रह्लाद जीने को मोहताज हो गया है। अब तो विकास का होलिका दहन करने के लिए प्रशासन खुद लगा हुआ है। कर्ज की फागुनी हवाएँ आम जन को दोबारा ठंड़क का एहसास कर करा रहा है।
गाँवों में रंग तो फसलों के मुरझाए चेहरों के साथ फीके पड़े हुए हैं। हालाँकि सरकार इन फसलों पर अपने सरीखा रंग पोतने में व्यस्त हैं परन्तु मुआवजे के रंग के चढ़ने की संभावन अभी तो फिलहाल कम ही नजर आ रही है। गुलाल का हाल यह है कि यह गुस्से से लाल हो चुका है। अबीर फिलहार देश के उन चेहरों की शान बन रहा है जो देश का माल पैक करवाकर विदेश यात्राओं के मजे ले रहे हैं। फिल हाल हमारा मीडिया भी श्री देवी के स्वर्गगमन का शोक मनाने में व्यस्त नजर आ रहा है। और तो और विकास की रफ्तार वर्तमान के होरियारों की टोलियों की गति के अनुसार अवरोध महसूस कर रहा है। संत्रियों की स्थिति फिलहार मंत्रियों की स्थिति से गैर गुजरी हो रही है। चुनावी रंग रोगन करने के चक्कर में मंत्रियों की टॊली फगुआ की बोली में मृंदग बजाते नजर आ रहीं हैं। वोटों की ईष्र्या, कर्जनुमा होलिका का क्रोध, वास्तविक जीवन शैली में पाश्चात शैली का रासायनिक रंग रोगन सामाजिक मौलिकता के प्रहलाद का दहन कर रहा है। अब ना आम की बौर इस फागुन का स्वागत करती है। ना नीम की निबोरी रंगीन मिजाज दिखाती है। अब तो हर जगह दो पंथ आपस में ऐसे महा संग्राम करते हैं जैसे देवदानव युद्ध की रिहर्सल कर रहे हों। अब इन पंथों के बारे में क्या कहूं इनका भी होली मनाने का अलग अलग रंग हैं एक पंथ होली को भोजपुरी अंदाज में बोल्ड़ मानता है। चूनर ना होते हुए भी चूनर को मन में "माना कि" की तरह मानकर गोरियों को रंगने की फिराक में होता है। और दूसरा पंथ होली को अवधी के अंदाज में कृष्ण राधा की तरह बरसाने की होली की तरह चंदन रोली रंग गुलाल को भारतीय अंदाज से मनाने के लिए संस्कारिक तौर पर सर्वमान्य है।
देश में बदलाव के रंग ने रंग बदलने के लिए सबको विवष कर दिया। जो रंग नहीं बदल रहा है उसे बदलाव के रंग ने आगे से गीला और पीछे से पीला कर दिया है। चेहरे को लाल कर दिया। अब शोख होठ और गुलाबी नहीं होते हैं। चेहरों के साथ प्यास से होठ सूख रहे हैं। और गुलाबी गाल  कुछ समय के लिए कंगाल हो गए हैं। चेहरे की सुर्खियाँ भी मिलावटी बर्फियों की तरह हो गई हैं। जिसकों कोई पूँछने वाला नहीं है चेहरों में चेहरे इस तरह लगे हुए हैं कि मुखौटों को पहचान पाना कठिन हो गया है। यही मुखौटे तो चेहरे के साथ साथ समाचारों की स्रुर्खियाँ बन कर टीआरपी की बढोत्तरी कर रहे हैं। आम जन के जीवन में कुछ गिने चुने रंग बचे हुए हैं, सात रंग के इंद्रधनुषीय सपने बाजारवाद के चाइनीज रंगों की तरह बिना गारंटी वाले हो चुके हैं। सात रंग के सपने बुनना आजकर तो रईसों के खातों की जागीर हो चुकी है। मध्यमवर्ग तो अमीरी और गरीबी के बीच झूलता झूलता मुस्कुराता हुआ जीवन काट लेता है। अब तो गुझियाँ की मिठास भी खोवे की तरह हाइब्रिड हो चुकी है। शक्कर की मिठास इतनी ज्यादा हो गई कि रिश्तों में डाइबिटीज होने का खतरा बढ़ रहा है और खटास की खटाई से दांत खट्टॆ हो रहे हैं, दातों तले अंगुली दबाने के लिए हम सब विवश भी है ताकि हमारे पशीने की नमकीन शायद इस खटास को दूर कर सके। सब बदल रहा है, रंग बदल रहा है, ढ़ंग बदल रहा है,  अंग बदल रहा है, और क्यों न बदले हम जो गिरगिट के अग्रवंशी हो गए हैं। गिरगिट हमारा पूर्वज है तो हम अग्रज उससे चार कदम और आगे हैं रंग ढ़ंग बदलने में। अब देखिए ना लाल रंग खून का दिखाया जा रहा है, केसरिया रंग हिंदुत्व का दिखाया जा रहा है हरा रंग मुस्लिमों का दिखाया जा रहा है, सफेद रंग कफन का दिखाया जा रहा है, एकता,शांति,वीरता,और हरीतिमा के रंग तो होलिका दहन के साथ ही भस्मीभूत हो गए। देखिए कहीं आपके मोबाइल में भी आयातित होली का संदेश न बज रहा हो। मोबाइल की हथकडी ने हमारे पैरों को बेडियों से भी जकड़ दिया है। दिमाग को कोमा भेज दिया है। प्रचलित होली की आवृत्ति नहीं हो रही, सिनेमा भी इन त्योंहारों को हम सबसे दूर कर दिया है। सास बहू के धारावाहिकों ने रिश्तों में जहर के रंग को  होली के एपीसोड में प्रवाहित करने में तुले हुए हैं। बस होली मनाने का अंदाज अपना है। जिस तरह समाज के आचार विचार बदल कर प्रचार प्रसार के वशीभूत हो गए है, जिस तरह फूहड़ता का रंग होली के रंग को भंग करने में उतारू है, जिस तरह अश्लीलता का रंग नख सिख वर्णन की सीमा रेखा को पार करके अंतरंग की नुमाइश कर रहा है तब मन में हूक सी उठती है इसमें सुनाई पड़ता है होरी रे अब न पधारो म्हारे देश।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

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