मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

होरी रे! अब ना पधारो म्हारे देश। अनिल अयान

होरी  रे! अब ना पधारो म्हारे देश। अनिल अयान
बरस-बरस पर आती होली,रंगों का त्यौहार अनूठा,चुनरी इधर, उधर पिचकारी,गाल-भाल पर कुमकुम फूटा,लाल-लाल बन जाते काले,गोरी सूरत पीली-नीली,मेरा देश बड़ा गर्वीला,रीति-रसम-ऋतु रंग-रगीली,नीले नभ पर बादल काले,हरियाली में सरसों पीली !-गोपाल सिंह नेपाली। गोपाल सिंह नेपाली ने कभी भी ना सोचा होगा कि होली के रंग इस तरह से रंगहीन हो जाएगें। होली की फुहार के रंग सूख जाएगें और धूल की तरह उडे़गें। एक दशक पूर्व तक होली के पूर्व होलिका स्थापित कर ईष्र्या, क्रोध व कुपृव्रत्तियों को जलरने की परंपरा में व्यापक सामाजिक सहभागिता सुनिश्रि्वत की जाती थी। इसी के तहत होलिका में कुछ न कुछ हर घर से डालने की परंपरा थी। बदलते परिवेश में यह भी समाप्ति की तरफ है। होली के पखवारे भर पूर्व से गाये जाने वाले रस भरे लोक गीतों का स्थान फूहड़ गीतों ने ले लिया है। पहले होली में गाये जाने वाले गीतों में सामाजिक उत्कर्ष की भावना निहित होती थी जबकि उसमें आंतरिक आद्रता की झलक मिलती थी। परंपराओं के प्रति अ ब लोगों में वह छोह नही रह गया है जबकि पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने की होड़ ने भी हमारी परंपराओं को पीछे धकेला है।पहले के समय में गाँव व शहर सब होली की महक में भिनसारे से रात के तीसरे पहर तक गुलाबी होते थे। पहले पलाश और टेशू के रंग तो खुद बता देते थे कि उठो फागुन आ गया है। रंग बरसते थे बरसात की तरह, बनारस का पान खाकर होरियारे जब अपनी टोलियों के साथ गली पगड़डियों में निकलते थे तो बूढो को जवानी का अहसास हो जाता है। वो गोकुल बरसाने की होली की याद देश भर में हर कोने कोतरे में दिखाई पड़ते थे। अब तो सबके चेहरों के रंग उडे हुए हैं। अब तो गरीबी में प्रह्लाद जीने को मोहताज हो गया है। अब तो विकास का होलिका दहन करने के लिए प्रशासन खुद लगा हुआ है। कर्ज की फागुनी हवाएँ आम जन को दोबारा ठंड़क का एहसास कर करा रहा है।
गाँवों में रंग तो फसलों के मुरझाए चेहरों के साथ फीके पड़े हुए हैं। हालाँकि सरकार इन फसलों पर अपने सरीखा रंग पोतने में व्यस्त हैं परन्तु मुआवजे के रंग के चढ़ने की संभावन अभी तो फिलहाल कम ही नजर आ रही है। गुलाल का हाल यह है कि यह गुस्से से लाल हो चुका है। अबीर फिलहार देश के उन चेहरों की शान बन रहा है जो देश का माल पैक करवाकर विदेश यात्राओं के मजे ले रहे हैं। फिल हाल हमारा मीडिया भी श्री देवी के स्वर्गगमन का शोक मनाने में व्यस्त नजर आ रहा है। और तो और विकास की रफ्तार वर्तमान के होरियारों की टोलियों की गति के अनुसार अवरोध महसूस कर रहा है। संत्रियों की स्थिति फिलहार मंत्रियों की स्थिति से गैर गुजरी हो रही है। चुनावी रंग रोगन करने के चक्कर में मंत्रियों की टॊली फगुआ की बोली में मृंदग बजाते नजर आ रहीं हैं। वोटों की ईष्र्या, कर्जनुमा होलिका का क्रोध, वास्तविक जीवन शैली में पाश्चात शैली का रासायनिक रंग रोगन सामाजिक मौलिकता के प्रहलाद का दहन कर रहा है। अब ना आम की बौर इस फागुन का स्वागत करती है। ना नीम की निबोरी रंगीन मिजाज दिखाती है। अब तो हर जगह दो पंथ आपस में ऐसे महा संग्राम करते हैं जैसे देवदानव युद्ध की रिहर्सल कर रहे हों। अब इन पंथों के बारे में क्या कहूं इनका भी होली मनाने का अलग अलग रंग हैं एक पंथ होली को भोजपुरी अंदाज में बोल्ड़ मानता है। चूनर ना होते हुए भी चूनर को मन में "माना कि" की तरह मानकर गोरियों को रंगने की फिराक में होता है। और दूसरा पंथ होली को अवधी के अंदाज में कृष्ण राधा की तरह बरसाने की होली की तरह चंदन रोली रंग गुलाल को भारतीय अंदाज से मनाने के लिए संस्कारिक तौर पर सर्वमान्य है।
देश में बदलाव के रंग ने रंग बदलने के लिए सबको विवष कर दिया। जो रंग नहीं बदल रहा है उसे बदलाव के रंग ने आगे से गीला और पीछे से पीला कर दिया है। चेहरे को लाल कर दिया। अब शोख होठ और गुलाबी नहीं होते हैं। चेहरों के साथ प्यास से होठ सूख रहे हैं। और गुलाबी गाल  कुछ समय के लिए कंगाल हो गए हैं। चेहरे की सुर्खियाँ भी मिलावटी बर्फियों की तरह हो गई हैं। जिसकों कोई पूँछने वाला नहीं है चेहरों में चेहरे इस तरह लगे हुए हैं कि मुखौटों को पहचान पाना कठिन हो गया है। यही मुखौटे तो चेहरे के साथ साथ समाचारों की स्रुर्खियाँ बन कर टीआरपी की बढोत्तरी कर रहे हैं। आम जन के जीवन में कुछ गिने चुने रंग बचे हुए हैं, सात रंग के इंद्रधनुषीय सपने बाजारवाद के चाइनीज रंगों की तरह बिना गारंटी वाले हो चुके हैं। सात रंग के सपने बुनना आजकर तो रईसों के खातों की जागीर हो चुकी है। मध्यमवर्ग तो अमीरी और गरीबी के बीच झूलता झूलता मुस्कुराता हुआ जीवन काट लेता है। अब तो गुझियाँ की मिठास भी खोवे की तरह हाइब्रिड हो चुकी है। शक्कर की मिठास इतनी ज्यादा हो गई कि रिश्तों में डाइबिटीज होने का खतरा बढ़ रहा है और खटास की खटाई से दांत खट्टॆ हो रहे हैं, दातों तले अंगुली दबाने के लिए हम सब विवश भी है ताकि हमारे पशीने की नमकीन शायद इस खटास को दूर कर सके। सब बदल रहा है, रंग बदल रहा है, ढ़ंग बदल रहा है,  अंग बदल रहा है, और क्यों न बदले हम जो गिरगिट के अग्रवंशी हो गए हैं। गिरगिट हमारा पूर्वज है तो हम अग्रज उससे चार कदम और आगे हैं रंग ढ़ंग बदलने में। अब देखिए ना लाल रंग खून का दिखाया जा रहा है, केसरिया रंग हिंदुत्व का दिखाया जा रहा है हरा रंग मुस्लिमों का दिखाया जा रहा है, सफेद रंग कफन का दिखाया जा रहा है, एकता,शांति,वीरता,और हरीतिमा के रंग तो होलिका दहन के साथ ही भस्मीभूत हो गए। देखिए कहीं आपके मोबाइल में भी आयातित होली का संदेश न बज रहा हो। मोबाइल की हथकडी ने हमारे पैरों को बेडियों से भी जकड़ दिया है। दिमाग को कोमा भेज दिया है। प्रचलित होली की आवृत्ति नहीं हो रही, सिनेमा भी इन त्योंहारों को हम सबसे दूर कर दिया है। सास बहू के धारावाहिकों ने रिश्तों में जहर के रंग को  होली के एपीसोड में प्रवाहित करने में तुले हुए हैं। बस होली मनाने का अंदाज अपना है। जिस तरह समाज के आचार विचार बदल कर प्रचार प्रसार के वशीभूत हो गए है, जिस तरह फूहड़ता का रंग होली के रंग को भंग करने में उतारू है, जिस तरह अश्लीलता का रंग नख सिख वर्णन की सीमा रेखा को पार करके अंतरंग की नुमाइश कर रहा है तब मन में हूक सी उठती है इसमें सुनाई पड़ता है होरी रे अब न पधारो म्हारे देश।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

ये अदद मोहब्बत है, सलीके से बेचिए इसको

ये अदद मोहब्बत है, सलीके से बेचिए इसको
जिंदगी का फलसफा भी कहां से शुरू होकर कहाँ खत्म हो जाए कोई नहीं जानता। हर कवि ने अपने अपने अनुसार इस प्रेम रूप रस की व्याख्या की है। बाजार ने अपने अनुसार इसे देखा है। खरीददार और बेंचने वालों ने इसकी बोलियां भी लगाई है। कभी कबीर ने लिखा पोथी पढ पढ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढे तो पंडित होय तब से लेकर अब तक प्रेम,प्यार, मोहब्बत,इश्क और, आशिकी पर हर रचनाकार ने कुछ ना कुछ लिखा ही है। इस पर न जाने कितने लतीफे बनाए गए। वैदिक काल से कृषण-राधा से शुरू होकर कॄष्ण मीरा तक की परंपरा आज हीर रांझा, सोनी महिवाल, लैला मजनूं जैसे प्रेम कथाओं में भी समाप्त नहीं हुई। अमृता प्रीतम से लेकर पंकज सुबीर, और लघु प्रेम कथाओं पर तो न जाने कितनी कलम चलीं। पता है कभी कभी लगता है कि हमने अपने अरमानों के भी मजहब बना लिए हैं। सलीके और तरीके व्यावसायिक हो गए हैं।
हम हाईटेक हो गए हैं। अभिव्यक्ति भी हाईटेक और आभाशी हो गई हैं। हमने पश्चिम से आयात करके सभ्यता के प्रतिमान खुद गढ़ लिया है। प्रणय दिवस को लेकर इतना हो हल्ला होता है कि लगता है जैसे भारत वर्ष में इस सदी का कोई महोत्सव मनाने की तैयारी की जा रही है। यह सब बाजार के हथियार है दोस्तों। जिस प्रेम को छिपाया जाता है, जिस प्रेम को खतों, के माध्यम से अभिव्यक किया जाता था। आज हम उसी प्रेम की मार्क्रेटिंग कर रहे हैं। इस प्रेम के सेल्स मैन तैयार है बाजार में। प्रेम प्रारंभ तो होता है आकर्षण की जुबां लेकर और बाजार में जाकर उपहारों में लुट जाता है। आज का मुद्दा प्रेम कम और इस प्रणय दिवस में मिलने वाले उपहारों की कीमत ज्यादा है। उपहारों ने तो जाने अनजाने जीवन में छद्म प्रेम और छद्म प्रेमी का प्रवेश करा दिया है। बाजार हम सबके प्रेम की ब्रांडिंग और एडवर्टाइजमेंट कर रहा है। प्रेम की परिणित रोमांस भी होगी यह दिवास्वप्न ही था हम सबके लिए। पर धन्य है बाजार और प्रेम के सेल्स मैन जिन्होने पश्चिम से प्रेम की कई कई कोटियां निर्धारित कर दी हैं। हर श्रेणी में बाजार लग जाता है। हर श्रेणी के दिन निर्धारित कर दिए जाते हैं। हर श्रेणी के व्यवसाय में सरकार लाभ कमा रही है। सरकार को कर से उप कर तक मिल रहा है। और सरकार के नुमांइंदे इस प्रेम के मार्केटिंग का दिखावटी विरोध दर्ज कर रहे हैं। इसी बहाने समाज में विचलन पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रेम तो मां के बेटे के संबंध में भी है, पिता का अपनी संतति से, भाई का बहन से है, पर आजकल  बाजार उस प्रेम को प्रदर्शित कर रहा है जो लिविंग रिलेशन में हैं, जो ब्वायफ्रेंड और गर्लफ्रेंड के बीच है, जो विवाहोत्तर स्त्री का पुरुष के बीच जीवन साथी के परे हैं, जो सोशल साइट से उपजता है और कोर्ट कचेहरी या आत्महत्या पर जाकर खत्म हो रहा है। बाजार के ये सब गुर है साहब, जो अनायास ही नए रूप परिवर्तित हो गए। हमने अपने आस पास दैहिक प्यास को प्रेम के रूप में परिभाषित कर दिया। बाजार ने उसे हमी को बेंचने के लिए एक मार्केट खड़ा कर दिया। पश्चिम ने विश्व स्तर पर भारत को लाने के लिए इन्हीं भावों का बाजारीकरण कर दिया। अब तो सब संकरित हो चुका है। इजहार और इकरार भी आयातित हो चुके हैं। उपहार भी आयातित हो चुके हैं। विचार और आचार भी आयातित हो चुके हैं। इस प्रेम के लिए मदर्स डे, फादर्स डे, सिस्टर्स डे, वाइफडे,हसबैंड डे, और वेलेनटाइन डे बना दिए गए। चलो अच्छा ही है अब आज के इस भागमभाग के युग में किसी केपास किसी के लिए कुछ पल भी खर्च करने के लिए नहीं हैं। हम अकेलेपन के साथ जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। हमारा विश्वास वास्तविक रिश्तों के प्रति कम और आभासी रिश्तों में ज्यादा बढ रहा है। तो कम से कम वैधानिक अवैधानिक रिश्तों के लिए इन दिनों के चलते कुछ जेब तो खर्च करते है। हां इस संदर्भ में एक बात तो है यहां पर हम ही बाजार है, हम ही दुकानदार है, हम ही सेल्स मैन हैं, हम  ही इसके दलाल हैं, हम ही खरीददार भी हैं। जब सब कुछ हम ही हैं तो तीसरा भी कोई अप्रत्यक्ष रूप से इस फायदे में शामिल हैं और वह है समाजिक ढांचा और हमारा वैचारिक चिंतन।
प्रशासन से लेकर समाज तक इस इस बाजार वाद में रम गया है। सबके अपने अपने स्वार्थ है। सबके अपने अपने तवे हैं जहां इसकी रोटियां परोसी जा रही हैं। और तो और रखवाले भी इस मृत्युभोज के अदद स्वाद का आनंद अंगुलियां चाट चाट कर ले रहे हैं। इस बाजार में इस मार्केटिंग के पुल बांधें जा रहे हैं। किसी को आर्थिक फायदा है। किसी को मानसिक फायदा है। किसी को जेहनी फायदा है। बस फायदे का ही कायदा है। तो हम क्यों कायदों की सीमाएं बनाएं। क्यों हम विरोध का जरिया बने। क्योंकि विरोध करने वाले जितने ठेकेदार हैं उन्हीं के घर से इसकी जडे प्रारंभ होती हैं। जिनकें यहां साल भर रोमांस चलता है वो विशेष दिनों में विरोध दलों के पेशेवर सदस्य बन जाते हैं। इस लिए जिसे जिसे प्रेम की मार्केटिंग करानी हो वो बाजार में कूद जाए। बाजार खत्म होने तक शामिल रहे और फिर बाद में सोचे कि वो फायदे में रहा कि नुकसान में रहा। अगर आप बाजार में बाजारू नहीं होंगें तो बाजार आपको कूडेदान का सामान मानकर कूडे के भाव में बेंच देगा साहब। आप वो बिका सामान बन जाएगें जिसकी वापसी की गारंटी कोई दुकान वाला नहीं लेता।  
बहरहारइस तरह के दिन पारंपरिक पर्वों की रौनक के परे भी हमारे आसपास गर्माहट बनाए रखते हैं। हम सक्रिय बने रहते हैं, हम इस सक्रियता के चलते भले ही अपना आपा खो दें परन्तु यह तो तय है कि हमारी खुद की स्वीकारोक्ति है कि इस तरह के बाजारवादी आयोजन में आपा खो दें भी तो कोई फिक्र नहीं है। हम खुद हर प्रकार परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो चुके हैं। क्योंकि हम मार्केट में है साहब,इस मार्केट में जब हमारा शरीर,आत्मा, आस्था, विश्वास,और रिश्ते तक बिक जाते हैं, तो प्रेम किस खेत की मूली है, यहां पर हम चिताओं के जलने के बाद बची हुई लूक तक बेंच लेते हैं। यहां पर अंतरंगता भी करोडों में बिक जाती है। प्रेम तो फिल हाल बहुत सालीन है। अनमोल प्रेम को भी हम मोल लगाकर बेंच लेते हैं। विज्ञापन बनकर प्रदर्शित हो जाता है हमारा प्रेम, एक लंबे समय के तक चिंतन करने के बाद समझ में आता है कि सर्फ एक्सेल का विज्ञापन तो हम सबने देखा है कुछ अच्छा हो तो दाग अच्छे हैं। एकाकीपन को दूर करने के लिए अगर बेदाग से दागदार हो जाओ तो क्या बुरा है साहब। किसी अपने की खुशी के लिए ये मार्केटिंग भी ठीक है। बस शर्त यह है कि सलीका से काम होना चाहिए।
यह प्रेम खड़ा अब हाट में सबकी मागें खैर।
तू बेचें मुझे हाट में पर ना तुझसे कोई बैर।
खरीद बेंच धर्म है सब कुछ यहां बिक जाए।
नहीं सोच अब तू खड़ा क्या खोय क्या पाय।
अनिल अयान।

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

"अभिव्यक्ति के वैचारिक खतरे"

"अभिव्यक्ति के वैचारिक खतरे"
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/उठाने ही होंगे/तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब/पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार/तब कहीं देखने मिलेंगी हमको/नीली झील की लहरीली थाहें/जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता/अरुण कमल एक। (मुक्तिबोध) यह कविता तो हम सबने सुनी ही होगी। मुक्तिबोध जैसा रचनाकार बहुत साल पहले यह रचकर चला गया कि मुक्ति का बोध कैसे प्राप्त होगा हर इंशान को। संघर्ष के समय हमें किस विषय पर किस तरह के विचार व्यक्त करने होगें। हर व्यक्ति के अंदर समाज स्थित होता है। समाज में हर व्यक्ति खुद समाज की एक इकाई होता है।हर व्यक्ति समाज में रहता है। समाज की अभिव्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति बनाने की चेष्टा करता है। या फिर समाज में अपनी अभिव्यक्ति को समाज की अभिव्यक्ति बनाने के लिए प्रयास करता है। वैचारिक अभिव्यक्ति से लेकर, सांस्कृतिक सामाजिक, और शैक्षिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के नाम अभिव्यक्ति का महिमामंडन कुछ ऐसे बिंदु हैं जिस पर स्वस्थ बातचीत की आवश्यकता है।
समाज सापेक्ष हमारी अभिव्यक्ति क्या है यह भी हमें समझने की आवश्यकता है। वर्तमान समय में हमने अभिव्यक्ति को अपना अधिकार तो माना है किंतु अभिव्यक्ति को अपने कर्तव्य के रूप में नहीं देखते हैं।भारतीय संविधान के निर्माण के दौरान संविधान सभा में हुई बहसों में ‘विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक स्वतंत्रताओं की आधार रेखा' कहा गया है. संविधान की धारा 19(1) जिन छह मौलिक अधिकारों का प्रावधान करती है उनमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पहला स्थान है. अन्य मौलिक अधिकारों की ही तरह विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आत्यांतिक और अनियंत्रित नहीं है. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त सीमाएं इन बातों के आधार पर लगायी जा सकती हैं- 1)मानहानि, 2)न्यायालय की अवमानना, 3)शिष्टाचार या सदाचार, 4)राज्य की सुरक्षा, 5)दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, 6)अपराध के लिये उकसावा, 7)सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और 8) भारत की संप्रभुता और अखंडता.  आदि कुछ ऐसे बिंदु हैं जो यह स्पष्त करते हैं कि हमारी अभिव्यक्ति की नाक कितनी बड़ी होनी चाहिए और नाक की लंबाई को कितना बढाना चाहिए कि वो कटने से बची रहे।
कभी कभी हमारी स्वतंत्रता हमारे लिखे और बोले गए विचारों को वाद विशेष से जोडने का माध्यम बन जाता है। अगर हम स्वतंत्र अभिव्यक्ति करते हैं तो हमारे ऊपर कोई वाद पंथ या कोई समुदाय हावी नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा है तो हम कहीं ना कहीं पर वैचारिक गुलाम हो चुके हैं। इसके लिए आवश्यक है कि दोनो दिशाओं से मंडराते खतरे अपना सिर उठा रहे हैं उनके बीच समभाव से काम करते हुए एक दूसरे के विचारों का सम्मान दिया जाना चाहिए।हमारी स्वतंत्रता अगर सवाल करने की स्वतंत्रता देती है तो सवालों को सही तर्क और तथ्य के अधारा पर जवाब देने की सहन शक्ति भी प्रदान करती है। जो हमारा कर्तव्य भी है।सवाल करने की ताकत से लोकतंत्र मजबूत बनता है। अपने से भिन्न विचारधारा रखने वाले लोगों की विचारधारा का सम्मान और विचारधाराओं से परे व्यक्ति का महत्व भी लोकतंत्र के लिए जरूरी है। विकसित राष्ट्र के लिए भविष्योन्मुखी दृष्टि का होना जरूरी है। और जरूरी हो जाता है साहसपूर्ण स्वर का सम्मान करना जो  एक  साहस पूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता का दूसरा पहलू है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी एक दो पहलू वाल सिक्का है जिसके एक पहलू को तो हम बखूबी याद रखते हैं किंतु दूसरे पहलू को हम बहुत जल्दी भूल जाते हैं। यह भूल जाते हैं कि हमारी स्वतंत्रता से किसी की स्वतंत्रता बाधित ना हो। हमारे विचार अगर आयातित हैं तो हम बहुत जल्दी उग्र हो जाएगें क्योंकि हमारे पास वैचारिक रटन्त विद्या का उथला बोझ है। हमारे पास विषय वस्तु पर ज्ञान का सागर ना होकर मात्र बरसाती नाले का मौसमी बहाव है। इस बहाव में हमारे साथ हमारी शांति बहजाती है और कट्टरता उफान पर आजाती है। आज जरूरी है कि अभिव्यक्ति की स्वंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ढकोसले को भिन्नता करने की। अगर हम इस भिन्नता को समझ लेते हैं तो शायद हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को  सही मायने में उपयोग कर पाएगें। अन्यथा इस स्वतंत्रता को किसी की वैचारिक परतंत्रता के लिए बलिदान करते रहेंगें।
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७

हिंदी है हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा।

हिंदी है हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा।
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हिंदी हैं हम वतन हैं हिंदोस्तां हमारा। यह गीत हमारी भाषाई पहचान को वैश्विक स्तर पर रखने का काम करता है। विगत सप्ताह दो प्रमुख भाषाई और दर्शनशास्त्रीय पर्व मनाए गए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी दिवस और युवा दिवस। इसके साथ ही कई संस्थानों में युवाओं के साथ हिंदी के तालमेल को बिठाने की जग्दोजहद प्रारंभ कर दिया गया। आज हम कुछ तथ्यों पर विचार करेंगें जो यह बताएगें कि कैसे युवा वर्ग हिंदी को वैश्विक स्तर तक पहुंचाने के लिए प्रयास रत हैं। वास्तविकता यह है कि हम हिंदी को याद करने के लिए राजभाषा पखवाडे तक सीमित रखने के प्रयास में खुद को भावनाशून्य बना लेते हैं। किंतु विश्व हिंदी दिवस का प्रारंभ और इसके प्रचार प्रसार में युवा वर्ग का एक महत्वपूर्ण योगदान है। साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर हिंदी की पहचान मजबूत करने के लिए युवाओं का योगदान दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। वैसे तो अधिक्तर युवा अपने महाविद्यालयीन काल से ही अंग्रेजियत और प्रौद्योगिकी की ओर रुख कर देता है। किंतु उसके अंतस में हिंदी का कीड़ा कुलबुलाता रहता है। हिंदी उसकी जुबान से अलग नहीं होती। हिंदी उसकी सांसों में गतिमान बनी रहती है। मेरे पहचान के अधिक्तर इंजीनियर्स, डाक्टर, टीचर्स,और अन्य व्यवसायी मित्र हिंदी के प्रति शुभ संकेत देते हैं। वो हिंदी को बोलना सुनना और संवाद करना पसंद करते हैं। हिंदी राजभाषा के रूप में स्थापित हो या ना हो किंतु समाज में हिंदी का अपना प्रजातंत्र हैं।
जब हिंदी के वैश्विक परिदृश्य की बात करें तो हमें हिंदी के प्रचार प्रसार के विभिन्न कारकों को नहीं भूलना नहीं चाहिए। हिंदी को बोलने के साथ साथ हिंदी को वैश्विक भाषा साहित्य में स्थापित करने का काम भी युवा कर रहे हैं। वर्तमान में भारत के बाहर भी हिंदी के युवा लेखकों की पुस्तकों को ७० प्रतिशत तक इंटरनेशनल प्रकाशक प्रकाशित करने के लिए स्वागत करते हैं। विश्व पुस्तक मेले में युवा लेखकों की पुस्तकों का प्रतिशत साठ से अधिक ही रहा। अधिक्तर बिक्री वाली पुस्तकों में भी युवा लेखकों की पुस्तको को पढ़ने और खरीदने का श्रेय युवकों और युवतियों और महिला ग्रहणियों को जाता है। यह मामला तो प्रगति मैदान का है। भारत में जितनी भी नेटवर्किंग साइटस हैं उसके भारतीय खाताधारकों की ८० प्रतिशत संख्या हिंदी को हिंदी में लिखने में खुश होते हैं। उनका रोमन हिंदी में लिखना और अंग्रेजी के प्रति रवैये की उदासीनता की वजह से इस परिणाम तक हम पहुंच चुके हैं। वर्तमान में युवाओं के प्रेरणा श्रोत ऐतिहासिक और समाजिक पात्रों के साथ साथ आस पास के सफल युवा होते हैं। वर्तमान युवा नौकरी की बजाय उद्यमी बनना ज्यादा पसंद करते हैं और सर्विस सेक्टर में अपनी पहचान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करते हैं। विश्व स्तर पर जितने भी हिंदी भाषा अप्रवासी युवा वर्ग हैं वो सब अपने आप को हिंदी के परिवेश में ढालने की चेष्टा करते हैं। औसतन युवा लेखक, संपादक और युवा उद्यमी भारत में अपनी पहचान को आगे बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वो विदेश में हिंदी की पहचान को दिन दो गुना रात चौगुना वृद्धि करने में अपने स्तर पर प्रयास करते रहते हैं।
अगर हम हिंदी से संबंधित इंटरनेट में ई मैग्जीन्स और हिंदी के पोर्टल्स की बात करें,  या हिंदी में ब््लॉग्स की बात करें तो युवा वर्ग हिंदी के क्षेत्र को यहां पर भी विस्तार दे रहें हैं। फेसबुक, ब्लाग, ट्वीटर, स्टॊरीमिरर, प्रतिलिप, वेबदुनिया हिंदी आदि नाना प्रकार की हिंदी वेबसाइट हैं जो हिंदी को वैश्विक स्तर पर ले जाने के लिए मददगार हैं। पिछले सप्ताह से अगर हम विश्व हिंदी दिवस, विश्व पुस्तक मेले, विश्व अप्रवासी दिवस, और स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन को मना रहे हैं तो हमें युवाओं की भाषा: हिंदी के लिए, युवाओं के हिंदोस्तां में रहने की वजह से : हिंदी नागरिक होने के लिए, इटरनेट के माध्यम से युवाओं के हिंदी प्रयासों के लिए युवाशक्ति युगे युगे को स्वीकार करना होगा। युवा शक्ति से राजनीति में वोटनीति है। योजना नीति है। और संवैधानिक नीति है। संसद से लेकर पगडंडी तक, कारखानों से लेकर खेतों तक युवा मौजूद हैं और मानवसेवा के मिशन लगे हुए हैं। संघर्ष,समर्पण,और सफलता अलग अलग स्तर पर युवा शक्ति विकास को पागल होने से रोक रही है। कुछ समूहों के बरगलाए युवाओं को अगर सही दिशा दी जाए तो वो भी हिंदोस्तां के सर को गौरव से ऊंचा करेंगें।
हम बार बार कहते हैं कि युवा वर्ग अपने उद्देश्यों से भटक रहे हैं। वो अलगाव, भ्रष्ट राजनीति, और आतंकवाद के पैतरे बन रहें हैं, वो समाज में वैमनस्यता फैलाने के लिए एक औजार के रूप में गुटों के द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे हैं आदि आदि बहुत सी बाते बुजुर्गों के द्वारा सुनते हैं किंतु कभी युवाओं को अपने पास बिठाकर उनके साथ बुजुर्गों को जवान होते या जवान महसूस करते या उनके साथ युवा हृदय होते बहुत कम बुजुर्गों को देखा होगा। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि पीढी के वैचारिक अंतर को संवाद ही दूर करता है और वर्तमान में युवावर्ग इस अंतर को दूर करने के लिए स्वमेव प्रयासरत होगा है। उस समय पर भी वो हिंदी का ही सहारा लेता है। विदेश में जाकर शिक्षा लेने वाले युवाओं में अधिक्तर युवा वर्ग वैश्विक परिदृश्य में हिंदी को फैलोशिप स्कालर्स के रूप में अनुवादक, अध्ययन और अध्यापन को चयन किये और सफलतापूर्व देश के साथ साथ विदेशों में हिंदी को प्रचारित प्रसारित कर रहे हैं। इसी की तरह विदेशों से भी बहुत से युवा अन्य देशों से हिंदी को पढ़ने सीखने बोलने और हिंदी के क्षेत्र में कार्य करने के लिए भारत आते हैं। इस बार के युवाओं की योग्यता, उनकी काबिलियत, काबिलियत का भाषाई संवर्धन में योगदान, और योगदान से वैश्विक स्तर पर हिंदी की स्थिति को जानना तो हम सबका अधिकार है। इसी बहाने अगर और युवा इस कर्मक्षेत्र में आगे आकर झंडावरदारी करते हैं तो सही अर्थों में  युवाओं का दिवस हर दिवस होगा और हम हर दिवस हिंदी दिवस के रूप में मनाएगें।
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

न्यायपालिका में उपजती विभीषणगिरी बनाम राम राज्य की तलाश

न्यायपालिका में उपजती विभीषणगिरी बनाम राम राज्य की तलाश
न्यायपालिका में भी विभीषण निकल कर आयेंगें ये सोचा नहीं था कभी। इस विभीषणगिरी में रावण की भूमिका में कौन है यह तो समझ में आता है किंतु विभीषण के द्वारा बगावती सुर किस आराध्य प्रभु राम के तले हो रहा है यह तो समझ के परे है। धरने पर लोकतंत्र के मंदिरों में, शिक्षा के मंदिरों में प्रेस कांफ्रेंस करते अपराधी और प्रतिवादियों को खूब देखा है किंतु न्याय के मंदिर के बार पंचपरमेश्वरों को प्रेस कांफ्रेंस करते पहली बार देखा है। इस प्रकार के संवाद से मेरे मन में रह रहकर कई प्रश्न उपजते रहे,सोचता हूं वो प्रश्न आप सबसे भी साझा कर ही दूं क्या सर्वोच्च न्यायाल्य के माननीय न्यायाधीशों ने अपनी समस्या को माननीय राष्ट्रपति जी से साझा की, या एटार्नी जनरल, रजिस्टार सुप्रीमकोर्ट, को बताना उचित समझा, जजों के यहां सरकार और विपक्ष के नेता किस विषय पर चर्चा करने गए, जजों ने परिस्थिति जन्य त्यागपत्र देने का रास्ता क्यों नहीं चुना, इनके द्वारा की गई प्रेस कांफ्रेंस किसकी अनुमति से हुई, इससे न्यायपालिका के प्रति जनसाधारण और नागरिकों के बीच किस तरह की वैचारिक टूटन आयेगी, क्या न्यायपालिका के विभागीय मसले अब खुले आसमां में मीडिया के द्वारा सुलझाए जाएगें, क्या न्यायाधीशों के ऊपर बैठे अधिकारी अब विश्वासयोग्य और न्याय संगत नहीं रहे, क्या वो अब विधायिका और कार्यपालिका के एजेंट बन चुके हैं,आदि बहुत से प्रश्न अपने उत्तर की तलाश करते रहे। अब सवाल यह है कि ऐसी स्थिति निर्मित हुई क्यों, इस विभीषणगिरी की रीड़ कहां से प्रारंभ होती है।
जस्टिस दीपक मिश्र पहले भी कई आदेशों को लेकर मीडिया और न्यायपालिका में लाइमलाइट में रहे जैसे निर्भया कांड के दोषियों की सजा को बरकरार रहना, चाइल्ड पोर्नोंग्राफी वेबसाइट को भारत में वैन करना, सबरी माला मंदिर में महिलाओं के लिए खोलना, सिनेमाहाल में राष्ट्रगान अनिवार्य करना, एफ आई आ की काफी को वेवसाइट में चौबीस घंटे में अपलोड़ करना, अपराधिक मानहानि की संवैधानिक मानता, मेमन की फांसी को बरकरार रखना, आरक्षण को मायावती के शासन काल में रोक लगाना, आदि इतना ही नहीं जस्टिस मार्कंडेय काटजू, टीएस ठाकुर, करन्न, प्रतिभारानी जैसे जस्टिस भी अपने कार्यकाल में विवादों में रहे। इस बार की विभीषण गिरी का प्रारंभ जज ब्रजगोपाल लोया की संदिग्ध हालत में मौत के मामले की जांच को लेकर हुआ, किंतु इसके अलावा भी कालेजियम सिस्टम में पारदर्शिता, चीफ जस्टिस और अन्य जस्टिसों के बीच विभागीय मतभेद,  मामलों को अन्य जस्टिसों के बेंच में स्थानांतरित करना, और सबसे महत्वपूर्ण बात न्यायपालिका और सरकार दोनों ही इस बात के लिए वैचारिक युद्धरत हैं कि जजों की नियुक्ति उनके पास ही रहे। सरकार, और सुप्रीमकोर्ट दोनों ही इस मामले में खुद को ड्राइविंग सीट में रखना चाहते हैं। इस विषयों में कोर्ट और संविधान दोनों की नियमावलियां चुप्पी साधे हुई हैं। ये दोनो संवैधानिक समूह अभी तक तय नहीं कर पा रहे कि आखिर कैसे लोगों को जज बनाया जाए, उनकी योग्यता और अनुभव के मापदंड क्या होगें, मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स की कमी के चलते यह मामला अदालत से खुले आसमां में आकर दिखने लगा।
वास्तविकता में देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट में ही चीफ जस्टिस के अलावा एकतिस पदों में छ पद खाली है और पांच जज इस मार्च तक सेवानिवृत हो जाएगें। जब यह हाल सुप्रीम कोर्ट का है तो अन्य राज्यों की न्यायपालिका की तो इससे ज्यादा दुर्गति है। सुप्रीम कोर्ट में आठ राज्यों के जस्टिसों का कोई प्रतिनिधित्व भी नहीं हो पाया, नियुक्ति मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स के फाइनल ना होने की वजह से नई नियुक्तियां ठंडे बस्ते में सो रही है और तीन करोड़ मामले उसके वादी प्रतिवादी न्यायपालिका के मंद्रिर में  प्रसाद पाने के लिए मुंहबाए खडे हुए हैं। चयन की बात करें तो जजों का चयन एक समान प्रक्रिया से होता है वह है वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों, हाईकोर्ट जजों और वकीलों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया जाता है। इसके लिए अखिलभारतीय वरिष्ठता, और उम्र को प्रमुख माना गया है। साथ ही साथ महिला जजों का प्रतिनिधित्व भी ध्यान में रखकर नियुक्ति की जाती है। उधर हाई कोर्ट में जजों को अपने गृह हाई कोर्ट के अलावा नियुक्ति में लाने के लिए उसी कोर्त के वरिष्ठ जजों की मंजूरी आवश्यक है यही कालेजियम सिस्टम है। केस के वितरण के लिए सुप्रीम कोर्ट की बारह बेंच में चीफ जस्टिस से पहली बेंच प्रारंभ होकर वरीयताक्रम के आधार पर बारहवीं बेंच तक केस वितरित किये जाते हैं। राज्यों और संवेदनशील मुद्दों की सुनवाई चीफ जस्टिस की बेंच को सौंपी जाती है। पिछले पांच सालों मेंअधिक्तर मामले इसी बेंच के द्वारा सुलझाए गए। अन्य बेंच तक मामले क्यों नहीं गए यह प्रश्न चिंन्ह खडा करता है।
अक्टूबर में जब दीपक मिश्रा चीफ जस्टिस की सेवा निवृति है इसके पहले इस तरह के आरोप प्रत्यारोप की सिटकिनी लगाकर मीडिया में कूदने वाले विभीषणगीर जस्टिसेस ने उनकी छवि को दागदार बता दिया है। इसके अलावा जस्टिस दीपक मिश्र के द्वारा लिया गया केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर्स के भ्रष्ट्राचार के मामले को सुलझाने के लिए पहले जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित की बेंच से अपने बेंच में ले जाया गया और निर्णय सुनाने की बजाय जस्टिस अरुण मिश्र को यह केस ट्रांसफर कर दिया और वहां से इन भ्रष्टाचार आरोपी वाइस चांसलरों के खिलाफ केस खारिच कर दिया गया। इस तरह की अंदरूरी खींचातानी,शिक्षा के मंदिरों के पीछे चल रहे दोगलेपन को छिपाने की कोशिश, जस्टिसों का भी पक्ष और विपक्ष राजनैतिक पार्टियों की विचारधारा के समर्थन से यह स्तिथि पैदा हुई है। जस्टिसेस का विचारधारा के प्रति झुकाव, विचारधारात्मक पार्टियों से संबंधित केसेस के प्रति छद्म पारदर्शिता का दिखावा, और फिर मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर्स को लागू करने में सहयोग करने की बजाय , अपने सुप्रीम न्याय, कार्य और विधायिका के केद्र व्यक्ति की जानकारी के बिना इस तरह मीडिया से सीधे रूबरू होना मुझे तो असंवैधानिक और अप्रत्याशित लगा। न्यायपालिका की नियुक्तियों के लिए न्यायपालिका को पूरे डेकोरम सहित बातचीत करके मामले के परिणामों को सबसे सामने रखने की उम्मीद हम सबको है। यह भी सच है गाहे बगाहे विधायिका का अप्रत्याशित दखल न्यायपालिका में देखा जाता रहाहै किंतु संवैधानिक परिवर्तनों के माध्यम से ऐसे कानून बनाना होगा जिससे तीनों पालिकाओं के बीच में समान्जस्य भी बना रहे और एक दूसरे के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा भी हो।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

बसंत के बहाने निराला की याद

बसंत के बहाने निराला की याद
जब फूलों  पर बहार आजाये, गेहूं की  बालियां नृत्य कर्ने लगे, आमों के पेडों में बौर करलव करने लगे, तितलियां फूलों पर मोहित होले लगे तब मानिये कि बसंत आ गया है। माघ का महीना आये और पंचमी के दिन उसका अर्ध्य पूर्ण हो तो मानिये बसंत है। ऋषियों की पंचमी का उद्धरण बसंत में ही उल्लेख होता है। सूर्य से लेकर धरा तक, मनुष्य से लेकर पशु पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। मां सरस्वती का जन्मदिवस के रूप में भी यह दिवस मुख्य रूप से मनाया जाता है। हर कला का साधक इस दिन को अपने आराध्य का दिन मानता है। इसी दिन पृथ्वीराज चौहान की आंखें मोहम्मद गौरी ने फोड़ा था।यह घटना ग्यारह सौ बानवे ईश्वी ही है। और इसी दिन ही अमर विभूति सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म दिन भी आता है। इस दिन जहां एक ओर मदनोत्सव  मनाया जाता है भगवान श्री कृष्ण और काम देव की पूजा होती है। कामशास्त्र में सुवसंतक नाम के उत्सव की चर्चा इसी समय के लिये किया है। अर्थात इसी दिन बसंत पृथ्वी पर अवतरित हुआ था। सरस्वतीकंठाभरण में यह लिखा है कि यह बसंतवार का दिन है। इसी दिन काम देव के पंचशर -शब्द, स्पर्श,रूप, रस, और गंध को आमंत्रित किया जाता है। चैंत्र कॄष्ण पंचमी को बसंतोस्तव का अंतिम दिन रंग पंचमी के रूप में मनाया जाता है।
मां सरस्वती सृजन की अधिष्ठात्री देवी है। पुराणों में लिखा है कि बसंत को ऋतु राज कहा गया। देवो के अलावा साहित्य महामानव,छंदशास्त्री, महाप्राण कवि निराला के जनमदिन को हम सब बसंत पंचमी के दिन ही तो मनाते हैं।डा रामविलास शर्मा ने लिखा कि जब निराला को पता चला दुरालेलाल भार्गव बसंत पंचमी को अपना जन्मदिन मनाते हैं तो उन्होने निश्चय किया कि वो भी अपनी आराध्या के उत्सव के दिन अपना जन्म दिवस मनायेगें। बसंत उनके गीतों छंदों में झूमता है। अवतरित होकर बसंत अपना वरद हस्त उनकी रचनाओं में रखने में सफल होता है। वो लिखते हैं कि - फूटे रंग बासंती गुलाबी/ लाल पलास, लिए सुख,स्वाबी/  नील स्वेतशतदल. सर के जल/ चमके है केशर पंचानन में।" रक्त संचार में भी बसंत का आवेश समाजाता है। कबीर हो नानक हों सूर हो मीरा हो किसी ना किसी रूप में बसंत का वर्णन अपने शब्दों में करके मां सरस्वती का आराधन किया है। वो बसंत ही था जब निराला की कविता तुलसी दासमें रत्नावली को शारदा सरस्वती के रूप में पल्लवित किया। निराला की मां वाणी वंदना में देवी सरस्वती से भारत की स्वतंत्रता को साकार और संस्कार युक्त बनाने का वर मांगते हैं। वो मुक्ति की इच्छा के साथ प्रार्थना कुछ ऐसे करते हैं- नव गति, नव लय, ताल, छंद नव,/ नवल कंठ, न्व जलद मंद्र रव/ नव नभ के नव विहग वॄंद को। नव पर नव स्वर दे।" "भारति, जय,विजय करे,कनक शस्य कमल धरे"।
बसंत ने जो अमर संगीत प्रकृति के माध्यम से दिया है। वो कला और सौंदर्य को और पुष्पित किया है। निराला बसंत दूत के रूप में दैदीप्तमान रहे।निराला ने जीवन भर आभाव रस पिया किंतु भाव उनके अभावों के बीच पोषित होता रहा। रविवार को जन्म होने के साथ उनका नाम सूर्यकांत रखा गया था। उनके अंदर प्रकाश पुंज, उष्मा,और तेज विद्यमान था। उनकी जीवन शैली हमेशा अभिषापों को झेलने वाली ही रही। वो अक्खड, स्वाभिमानी, परदुख कातर बन कर जीवन भर रहे। निराला एक शैली, एक छंद, एक काव्य का नाम बन गया। निराला ने जीवन को सशक्त त्रिभुज के रूप में जिया। निराला ने राम के असहाय और शक्ति के आराधन के छण को पकड़ा और राम की शक्तिपूजा की रचना की।छायावाद के के चारो स्तंभों में निराला ने ही कविता के सबसे ज्यादा और स्तरीय पाठक पैदा किये। वो भक्ति से शक्ति की बात करते हैं। वो धर्म से आध्यात्म और आध्यात्म से एकात्म की बात करतेहैं। निराला के विवाद और विवाद के बीच से निकलते निराला अपने आप को सूर्य की भांति कांतिमय बनाये रखने में सफल रहे।

अनिल अयान,सतना

उनके लिए रिबेट, हमारे लिए डिबेट

उनके लिए रिबेट, हमारे लिए डिबेट
बजट आया, किसी ने विकास कहा, किसी ने आश कहा, किसी ने विनाश कहा, किसी ने पकोड़ा कहा, किसी ने रोड़ा कहा, किसी ने कहा गरीबों के लिए सब्सिडी है, किसी ने कहा अमीरो के लिए टैक्स में रिबेट है, किसी ने कहा पेट्रोल मोदी की उम्र से आडवानी की  उम्र तक पहुंच गया, किसी ने कहा कि सेस की ऐश हो गई, किसी ने कहा, यह उद्योगपतियों का बजट रहा, किसी ने कहा कि टैक्स के ऊपर टैक्स लगाने की परंपरा की शुरुआत हो गई। मध्यम वर्ग के लिए क्या आया सिर्फ डिबेट, नौकरी पेशे वालों के हाथों में क्या आया, चातक के लिए स्वाति की बूंदे, सरकार के लिए तो जनता अब प्रयोग की सामग्री बन गई है। टीवी चैनलों में मध्यम वर्ग को बजट ने क्या दिया यह चर्चा का विषय बना कर बहसें जारी रखी गई। बहसों से परिणाम उसी तरह निकला जैसे योजनाओं का परिणाम निकलता है।
योजनाएं सुनने में कितनी अच्छी लगती हैं, परन्तु जमीनी स्तर पर काम करने के लिए कर्मचारियों के छक्के छूट जाते हैं। पिछले दो सालों में प्रधान मंत्री जी की दो योजनाएं सभी लोगों के लिए जारी की गई। सभी के खातों से इसका प्रीमियम अप्रैल के महीने में काट लिया गया। अब इस बार आ गया अभ्युदय योजना, और मोदी केयर योजना का प्रचार प्रसार करना, बजट कुछ खास ना हो तो उसके ऊपर योजनाओं की नक्कासी कर दी जाती है। घोषणाएं तो ऐसे की जाती है जैसे साल भर में देश की अर्थव्यवस्था लाइन में आजाएगी। मध्य प्रदेश में तो सेस की मार उत्पादों की नाक में नकेल डाल दी है। आयुष्मान के नाम पर गरीबों के भले करने की बात कहा तक अपनी हकीकत की जमीन पर उतर सकती है यह देखना और भोगना है। यह जुमला सन चौदह के चुनावी घोषणा पत्र में था और चार साल लग गए। ओबामाकेयर की नकल मार कर मोदी जी ने इस ब्रांड को मार्केट में उतार दिया। जनता से प्रीमियम लेकर इंस्योरेंश सेक्टर में लगा दिया जाएगा। ढाई करोड़ लोगों के स्वास्थय की चिंता अब सरकार करेगी।
ओबामा ने स्वास्थ्य के साथ खाने और नाश्ते तक की स्कीम को इस केयर में जोड़ाथा, उसके लिए विभिन्न योजनाएं बनाई गई थी। परन्तु मोदी केयर में ऐसा कुछ भी नहीं बताया गया। सरकारी अस्पतालों की स्थिति और डाक्टर्स की स्थिति यह है कि हर डाक्टर्स का खुद का मल्टी स्पेशियलिटी हास्पीटल, और नर्सिंग होम्स हैं। वो हमारी केयर करेंगें कि  हमारे प्रीमियम से खुद के परिवार का वेल्फेयर करेंगेम। ओबामा केयर के तहत इंश्योरेंश कंपनियां व्यक्ति की बीमारी के लिए मुआवजा के लिए मना नहीं कर सकती थी। मोदी केयर में तो निजी अस्पताल, और इंश्योरेंश कंपनियों की चांदी है। डेढ लाख केंद्रों को खोलने का लक्ष्य है। पर लक्ष्य को पाने के लिए रास्ता और फंड कहां से जुगाड़ा जाएगा वह निश्चित नहीं है। इस योजना में बीमा कंपनियों की वल्ले बल्ले है। डाक्टर, हास्पीटल, और बीमा कंपनियों से जुडे हर व्यक्ति के जेब गरम रहेगी। इसको गर्म करने के लिए मध्यम वर्ग की जेब को लूटा जाएगा। गरीब को लाइफ इंश्योरेंश में कोई रुचि नहीं होती। अमीरों का काला धन इन योजनाओं की शान होती है। और बचा मध्यम वर्ग जो अपनी मौत और अस्वस्थ होने के डर और परिवार के भविष्य की चिंता के चलते इन मामलों मेंभी हाथ पैर मारेगा। बजट के प्रकोप को कम करने के लिए यह योजना मलहम का काम करेगी। दूर से देखने में तो यह योजना गरीबों को पांच लाख रुपये का इलाज।  अन्य वर्गों को आठ से दस लाख तक का इलाज मुफ्त में कराएगा। परन्तु पिछली हकीकत तो भयावह लगती है।
प्रायोगिक रूप से देखें तो समझ में आएगा कि छ सात महीने इसको लागू करने में लगेगा, फिर  कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने में लगेगा,  उसके बाद,  परिवारों को जोड़ना, उनका डाटा और रिकार्ड को मेंटेन करना, फिर उसके बाद हास्पीटल्स को इंश्योरेंश कंपनियों को जोडना एक लंबे अवधि का काम है। स्वास्थ्य मंत्री जी का यह कहना कि लोग हेल्थ इंश्योरेंस की बातों को जानते हैं हमारे पास इससे  भी बेहतर हेल्थ माडल्स मौजूद है। जिसमें वेलनेस सेंटर खोल कर इन योजनाओं को घर घर तक पहुंचाने की योजना है। इस प्रकार की लोकलुभावनी योजना का कुछ फायदा वाकयै जनता को होना है या इस प्रकार की योजना सरकार अपने चुनावी फायदे, फंड और अपने कामों की नाकामियों को छुपाने के लिए जारी की है यह तो आने वाला वक्त बताएगा। इस योजना की तरह, पहले भी खाद सुरक्षा गारंटी योजना, मनरेगा, अटल पेंशन योजना, और भी अन्य ढेरों योजनाएं सरकार के द्वारा लागू की गई परन्तु गारंटी केयर की कम और वेल्फेयर की ज्यादा समझ में आई। इन योजनाओं में तो प्रीमियम बैंक सेक्टर तुरंत काट लेते हैं फंड कम होने पर भी माइनस बैलेंश दिखाकर काट लिया जाता है। और जब रिफंड का नंबर आता है तो कागजात की इतनी मांग की जाती है कि प्रीमियम देने वाला मध्यम वर्गीय मुखिया माथा पकड़ कर घुटने टेक लेता है। वित्त मंत्री जी जितनी मासूमियत से कैमरे के सामने घोषणा करते हैं और जनता के फायदे का वचन देते हैं। भुगतान के समय पर इन योजनाओं की नियम व शर्तें अपना रूप और रंग दोनों बदल लेते हैं। प्रारंभ में कुछ और भुगतान के समय पर कुछ और नजर आते हैं।
इस योजना में भी दस से पंद्रह हजार करोड़ खर्च करने का अनुमान सरकार ने बताया,  दो हजार उन्नीस में लोक सभा चुनाव है, स्वास्थ्य इफ्रास्ट्रक्चर उतना सुदृण नहीं है, सरकारी अस्पताल की तुलना प्राइवेट संस्थानों से की नहीं जा सकती, डाक्टर्स काम के प्रेशर की वजह से आत्महत्याएं कर रहे हैं। कुल मिलाकर सरकार अपने दिन अच्छे करने के चक्कर में आने वाले चुनावों का वोट बैंक तैयार कर रही है। और इस तैयारी का खर्च जनता से प्रीमियम जनता की बचत और सैलेरी खातों, सेस जैसे उपकरों के उठा रही है, आखिरकार कब तक सरकारी योजनाओं की नाव में बैठकर सरकार जनता से प्रीमियम, टैक्स, टैक्स पर भी उपकर, लेकर नौकरी पेशे वाले नागरिकों को लूटती रहेगी। हम सब यह जानते हैं कि उन लाभान्वित होने वाले पचार करोड नागरिकों में बेचारे मध्यम वर्ग के लोग नहीं आएगें, उनमें जुगाडू, पहुंच वाले, पहचान वाले, बीमा कंपनियों के कर्मचारियों के रिश्तेदार, डाक्टरों और हास्पीटल में काम करने वाले लोग और उनके रिश्तेदार , और तो और सरकारी अमलों के आस पास के महानुभाव ही लाभान्वित होंगे। मध्यम वर्ग के पास मात्र दिन भर की नौकरी, महीने की दस तारीख को तनख्वाह, डर की वजह से पालिशियों की प्रीमियम, और रात में सोने से पहले  टीवी चैनलों में चल रहे राजनैतिक ड्रामे और नौटंकी की बहस ही आएगा। बल्ले बल्ले तो उन लोगों की हैं जिन्हें कभी रिबेट दिया जाता है, जिनके बैंक लोन मेंछूट दी जाती है, जिनके पास अकूट धन और सत्ता का सुख है।
अनिल अयान
९४७९४११४०७