सोमवार, 19 नवंबर 2018

जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ - अनिल अयान

जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ - अनिल अयान

कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ।
इस दोहे में कबीर ने उस समाज को अपने साथ चलने के लिए लुकाठी उठाई जो समाज हिंदुत्व और मुस्लिम संप्रदाय के झगड़े में लिप्त था। कबीर के समय समाज की जो दशा थी वह दशा वर्तमान समाज की होती जा रही है। समाजिक विद्वेष चिंता का कारन बना हुआ है। जिस समय कबीर कबीराना अंदाज को काशी की माटी महसूस कर रहा था उसी समय पूरा देश मुस्लिम आक्रमण का शिकार था। कबीर इतने चालाक रहे कि वो कोई भी बात दूसरे से शुरु नहीं की। खुद को केंद्र में रखकर समाज को आइना दिखा दिया। कबीर अगर समाज की पीड़ा को सहन नहीं कर सका तो उसने अपनी जुबान को तलवार से ज्यादा धारदार बना ली। बेशर्म समाज के ठेकेदारों को उसी तलवार की नोंक के दम पर लोहा मनवा लिया, एक यायावर, एक अख्खड़, संत जिसे लोग संत नहीं मानते थे एक रचनाकार के रूप लिये कबीर ने कब समाज को सुधार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे दिया यह वो खुद भी समझ नहीं पाया। कबीर के लेखन का अपना एक रस था वह था निंदा रस, इस रस में वह जब डूब कर लिखता था तो उसे इस बात का कोई भय नहीं होता था कि समाज उसके बारे में क्या सोचेगा और क्या प्रतिक्रिया देगा।
कबीर का अरबी अर्थ महान है और वह महान काम कर गया। कबीर के लेखन में जहां धार्मिक पाखंड का सीधा पोस्टमार्टम किया गया। वही दूसरी ओर उसके लेखन में हिंसा जाति पांति का खुलकर विरोध किया गया। उन्होने इतना ही नहीं सदाचार और  सत्य और अहंकार के त्याग, परोपकार और निर्गुण ब्रह्म को आराध्य मानने को प्रोत्साहन भी दिया। उसकी कबीराना लेखनी और उनका जुलाहेपन ने पाठक को घुटने के बल झुकने के लिए विवष कर दिया।कबीर ने स्वयं को जुलाहे के रुप में प्रस्तुत किया है कबीर ने लिख दिया कि उसके जुलाहे में कौन कौन से दृष्टिकोण समाहित हैं। कबीर की वाणी में वो सूत्र समाया है जिसका उपयोग करके देश का धार्मिक विद्वेष खत्म हो सकता है। कबीर की साखियों में अदैत ईश्वरवाद का वह सार है जिसकी परिभाषाएं अपरिभाषित है। यह तो सच है कि देश के लम्बरदारों ने देश को धर्म के नाम पर, वोट के नाम पर, जाति के नाम पर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की रोटियों को पकाने के लिए बांट दिया है। यह बंटवारा कबीर के समय पर भी था और जब पूरे जीवन भर कबीर ने काशी का पानी पिया और मरने के लिए उसे उसे मगहर जाना पड़ा। कबीर की कबीराई को उनकी साखियों ने अमर कर दिया। कबीर की आत्मा को उनकी पंक्तियों ने शातिं प्रदान करती रही। कबीर का कर्म उसके धर्म से बड़ा हो गया।  कबीर कबीर अपनी संधा-भाषा की उलटबाँसियों और समाज सुधार के दोहों के लिए प्रसिद्ध रहे।
कबीर ने आत्म-परिचय की शैली में जो कुछ कहा है, उसकी एक झलक-भर वहाँ देना सुसंगत होगा।
कबीर—‘‘मैंने अपनी जाति और कुल दोनों को बिसार दिया है एवं उलट दिया है। अर्थात् शूद्रता छूट गई, मैं वरेण्य-ब्राह्मण की कोटि में आ गया,
मैं धरती पर जीनेवाला जुलाहा नहीं हूँ, मैं सुन्न महल में सहज-समाधि की स्थिति में परमात्म-तत्त्व को बुनता हूँ।मैंने पंडित और मुल्ला दोनों को छोड़ दिया है। किसी भी मज़हब या संप्रदाय के बंधन से मुक्त हूँ। इसलिए कोई सैद्धान्तिक द्वन्द्व मेरे मार्ग में नहीं है।‘‘मैं तत्त्व के ताने-बाने से अपने लिए दिव्य परिधान तौयार कर उसे धारण करता हूँ।आगे चल कर मैं वहाँ पहुँचा, जहाँ मेरा ‘मैं’ भी न रहा।" इन बातों को सुनने के बाद यह कहा जा सकता है कि सनातन मूल्यों के पहरेदार थे कबीर दास, इस धरती को छोड़ के एक क्षण के लिए भी कहीं जाना पसन्द नहीं करते, सेवा ही उनका जीवन होता है। कबीर का मनुष्य पाखंड से दूर है, कबीर का प्राणी अपने कर्म से पहचाना जाता है, कबीर का साहित्य जनजागरण के लिए था। कबीर मौखिक व्यंग्य कार थे। कबीर हिंदी साहित्य के सुकरात के रूप में साखियों की अमृत वर्षा पाठकों में करते रहे।
कबीर के नाम पर आज कबीर पंथियों ने अपना एक गुट बना लिया। कबीर को अपने घर की जागीर बनाकर उसके नाम को उपयोग करने वाले क्या ये समाज के ठेकेदार कबीर के आचरण को अपना पाएगें। कदापि नहीं शायद, क्योंकि आज भी पोंगापंथी की बीमारी को पोषित करने वाले लोग कबीर महोत्सव के नाम पर उनके नाम के कसीदे पढ़े जाने का रिवाज है। कबीर के नाम पर शहरों की इमारतों को पहचान, चौक चौराहों की पहचान, विद्यालयों और महाविद्यालयों के नाम पर हमारे नेता मौन हैं। कबीर की कही हुई बातें समाज को गालियों की तरह महसूस होती हैं। कबीर की वाणी को गुनने की बजाय हम अपना अपना साधने में लिप्त हैं। एक बात और जो कबीर के बारे में करना जरूरी है वो है कि समाज में दलित साहित्य के रचने वाले कबीर को अपना पुरोधा मानते हैं किंतु कबीर ने यह सिद्ध कर दिया कि दलित व्यक्ति की पीड़ा को दलित के साथ साथ कोई भी भला मानुष गा सकता है। जो लोग कबीर की जाति खोज कर उन्हें दलित सिद्ध करने का असफल प्रयास करते रहे अंततः वो हार मान लिए। साहित्यकारो ने कबीर की जाति खोजने की कोशिश की। हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा धर्मवीर भारती, पुरुषोत्तर अग्रवाल,आदि आदि वो साहित्यकार थे जो कबीर के लेखन के साथ साथ उसके परिवार जाति धर्म और हिंदू मुसल्मान, दलित और गैर दलित की परिभाषाओं में बांधने के लिए ग्रंथों की रचनाएं कर डाली, राजकमल प्रकाशन ने इस लेखन को जमकर कैश किया। कबीर की लुकाठी के साथ चलने की आवश्यकता हमारे देशवासियों को है। कबीर के अनुसार हमें अपने घर के अंदर के उस कालिख को खत्म करने के लिए और दाह करने के लिए तैयार रहना होगा जो पाखंड की कालिमा फैलाता है। कबीर के दोहे ,साखियों को गुनगुनाना ही उनकी उपस्थिति की साक्षी है। वार रे जुलाहे तुमने तो अपनी उदासी की चादर बुनकर समाज की उदासी को दूर करने के लिए अमरत्व प्राप्त कर लिया अंत में उन्हीं की ये पंक्तियां आपके सामने है जो बताते हैं कि कबीर भौतिक रूप से कैसे थे।
"जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।'

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

"पालकी लिए हुए कहार देखते रहे"

"पालकी लिए हुए कहार देखते रहे"
समय की धरातल में अपनी पदचाप छोड़ने वाले गीतकवि नीरज अंततः चिरयात्रा के पथिक बनकर वहाँ चले गये जहाँ से सिर्फ यादें लौटकर आती हैं। गीत परंपरा के मूर्धन्य गीतकारों में सोम ठाकुर, गोपाल दास सक्सेना नीरज, मुकुट बिहारी सरोज, चंद्रसेन विराट की पंक्ति रिक्त हो गई। गीतों के स्वर्ण युग की दस्तक जैसे अचानक विलुप्त सी हो गई।दिनकर के द्वारा साहित्य की बाँसुरी की उपाधि से नीरज विभूषित ही सिर्फ नहीं थे बल्कि उनके गीतों की तानें बाँसुरी के समान सुमधुर और सुवासित मार्ग का विचरण करते हुए हम सबके मन में आहिस्ता आहिस्ता घर करती जाती थी। समाज के द्वारा मिली गरीबी ने उनहें टॊड़ने की नाकाम कोशिश की, वो गरीबी के लबादे को ओढ़कर और अमीर होते चले गये। उनकी कलम साहित्य रस को उड़ेलने के लिए अभिमुख होती चली गयी। नीरज के ९ दशक से ज्यादा अवसर मात्र और मात्र काव्य यात्रा में गतिशील रहे। उन्होने बताया की व्यक्ति शराब के नशे में भी गीतों को साध सकता है। शब्द ब्रह्म है और ब्रह्म की उपासना करना भी तपस्या है। इस तपस्या में जो सफल हो गया वो इस गीत गंगा में भिगो कर अमर हो जायेगा। यह सच है कि जिंदगी मौत से पराजित हो गयी किंतु नीरज की काव्य पंक्तियाँ बार बार अपनी प्रतिध्वनि कानों तक पहुँचा रही हैं।
एक शिक्षक के रूप में वो जितना धैर्यवान थे वैसे ही वो कवि के रूप में भी धैर्यवान रहे। व्यावसायिकता ने उन्हें जब मुम्बई की दहलीज तक ले गई तो उन्होने गीतों की भाषा और अदब को बनाए रखने की कोशिश की। इस अदब में जब वो खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे तो बालीवुड़ की दुनिया को अलविदा कहकर हमेशा के लिए काव्य मंचों की खातिर खुद को समर्पित कर दिया। उन्होने लगभग बीस कृतियों की रचना की तो इस तरह की हर कृति में अलग अलग रचनाएँ रही। लिखना उनके लिए जीवन जीने के लिए सांस लेने की तरह था। शराब की लत की बावजूद उन्होने अपने लेखन में गंभीरता और कल्पनाशीलता की मोहिनी सूरत बनाने में जीवन खपा दिया। सतना की धरती ने नीरज को अपना स्नेह दिया, साहित्य मर्मज्ञों ने नीरज जी को रात्रि से लेकर सुबह तक कई बार सुना, एक रचना को कई कई बार तक श्रोताओं की पंक्ति में बैठे साहित्यकारों की फरमाईस में उन्होने सुनाया। आज वह सब याद आ रहे हैं, यूसीएक का कवि सम्मेलन हो, या टाउन हाल के साहित्य समारोह सभी में नीरज की आवाज दीवारो के पोर पोर में घर कर गई। व्यावसायिकता के दौर में भी कवि सम्मेलनों की मर्यादायें कभी अमर्यादित होने का दुश्साहस नहीं कर सकी। वर्तमान कविसम्मेलनों की तुलना में उस समय के कवि सम्मेलन समाजिक और सुरुचिपूर्ण होते थे जो विरासत थे।उनका सतना आना और सतना के लिए अपने व्यवसायिक और व्यावहारिक जीवन के बीच समान्जस्य बनाना खुद में निपुणता ही है।
उनकी रचनाओं में गीतिका, गजलों,गीतों और दोहों ने भावों का इंद्रधनुष श्रोताओं के सामने खड़ा किया। उनकी कविताओं की हर पंक्ति में अजेय कवि जिंदा रहा। उनके गीतों के हर बंध में मनोबल को सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाने की बात की गई। सपनों के बिखरने के बाद भी नए सपने की तलाश में जाने वाले पथिक के रूप में उन्होने पाठकों और श्रोताओं को हमेशा ही ललचाया है। अश्लीलता को शब्दों की चार दीवारी से कोशों दूर फेंकने वाले नीरज ने आम जन की व्यथा कथा को जीवंत कर दिया। समाज की विशंगतियों पर उन्होने अपने दोहों के माध्यम से और संकेतात्कम रूप से वो सब लिखा जिसे आम मंचीय कवि सुनाने और पढ़ने से परहेज करते हैं। उन्होने अपने दोहों में मानव जीवन का दर्शन, व्यक्तित्व का दर्शन, मानव व्यवहार, और उस आत्क दर्शन की बात की जिसे पढ़ने के बाद अपनाने की चेष्टा हर कोई करता है। तालियों की लालसा के परे उनका काव्य पाठ श्रोताओं की कुछ पंक्तियों तक अनवरत चलता रहा। फिल्मों में उन्होने चुनिंदा गीत लिखे लेकिन जितने भी लिखे वो सदाबहार गीतों की श्रेणी में आज भी मौजूद हैं। गीतों में हर रस को उन्होने स्थान दिया। करुणा से लेकर श्रंगार, आवेश से लेकर कैब्रे, स्लो मोशन से लेकर तन बदन में आग लगा देने वाले गीत भी उनके खाते में आज भी ब्याज कमा रहे हैं।
आज नीरज चले गये। कहार पालकी लिए खडे उनके निकलने का इंतजार करते हुए  किंतु वो तो अपनी चिर यात्रा में तैयार होकर निकल गये। सब कारवां देखते रह गये। कहारों के हाथों में सिर्फ रह गया तो वह था गुबार। गीतों का एक स्वर्ण युग समाप्त हो गया। गीतकारों की वो उतर प्रदेशी नवाबी ठाठ समाप्त हो गई। वो बंडी और लुंगी लगाये मुस्कुराता हुआ कभी ना बूढा होने वाला हमेशा जवान रहने वाले गीतों की वो विरासत हम सबको सौंप करके चला गया जो अतुलनीय धरोहर है। समय ने साहित्य और फिल्म जगत दोनों को एक साथ चकमा देकर एक कोहिनूर छीन कर ले गया। अब शायद उस तरह के कवि सम्मेलन भी न मिले उनके पद धूलि में चलने वाले डा विष्णु सक्सेना की काव्य पंक्तियाँ कहीं न कहीं उनकी धरोहर को ढोती रहेगी। हम नीरज को याद रखेंगें यह वायदे से ज्यादा साहित्य में लिखे जा रहे गीतों की माँग है। जब भी हमें सदाबहार स्वर्णयुगीन गीतों को सुनना होगा। हम सोम ठाकुर से होते हुए नीरज और चंद्रसेन विराट तक आ ही पहुँचेगें। समय की जाजम में सबके अपने सलीब हैं उसके जिस सलीब को हमने अपनाया और मनोयोग से सुना था वो है नीरज जी। वैसे तो साहित्य की उर्वरा धरा युगों में गीतकारों को पैदा करती रहेगी किंतु नीरज का जाना शायद वाचिक परंपरा में गीतों की खान और गीतों की जुबान का मौन हो जाना है।
अनिल अयान,सतना

९४७९४११४०७

ना दैन्यं ना पलायनम का संदेश देते कविवर "अटल" बिहारी

ना दैन्यं ना पलायनम का संदेश देते कविवर "अटल" बिहारी

आग्नेय परीक्षा की इस घडी में / आइये अर्जुन की तरह उद्घोष करें/ ना दैन्यं ना पलायनम
आग्नेय परीक्षा की इस घडी में/ आइये अर्जुन की तरह उद्घोष करें/ ना दैन्यं ना पलायनम- अटल बिहारी बाजपेयी
ना दीन बनूँगा और ना ही पलायन करूँगा,अंत तक लडता रहूँगा.एक सफल जीवन जीने का यही संदेश है,
विगत दिनों नागपुर की यात्रा के दौरान पता चला कि अटल बिहारी बाजपेयी नहीं रहे। मन में एक विचार कौंधता रहा कि अगर मृत्यु जीवन का अटल सत्य है। अटल भी भारत के लिए अटल सत्य रहे। जब अपने पुराने समय में लौटता हूँ तो मै उस समय पाँचवीं मे पढ़ रहा था जब अटल जी तेरह दिन के लिए प्रधानमंत्री बने थे। फिर तेरह महीने के लिए प्रधानमंत्री और फिर हम सब जानते हैं। कालेज के समय में जब मैने एनसीसी लिया तो उस समय पर हमने समूह गान गया उसके बोल थे- कदम मिलाकर चलना होगा। बाधाएं आती है आएं। छाए काल की घोर घटाएँ। कदम मिलाकर चलना होगा। अटल जी के व्यक्तित्व की व्याख्या करती ये पंक्तियाँ उनके राष्ट्रधर्म का प्रतीक रहीं। उसके बाद जब पाठक मंच से मै जुड़ा तो उनकी एक पुस्तक आई ना दैन्यं ना पलायनम। इस पुस्तक में उनकी बहुत सी कविताएं साक्षात्कार और उनका कविधर्म की व्याख्या थी। अटल जी का अटल भारत और और अटल राष्ट्रप्रेम उन्हें अपने कर्मपथ पर अटल बना दिया। वो जब तक रहे अटल रहे। उस पुस्तक में जो मैने उनके बारे में जाना उनके बारे में इंटरनेट के खोज से वो कहीं ज्यादा था। उन्होने स्वाधीनता विनोवा भावे,कवियों राष्ट्रभाषा आदि पर बहुत सी कुंडलियाँ लिखी है. चिंतन के स्वर में अंतर्मन की वेदना, सत्यनिष्ठा ,स्वराज, की कवितायें चतुष्पदी और कुंडलियों में बंधी हुई है. आपातकाल के स्वर में आपातकाल के भयावह दॄश्यों को पँक्तियों की भाव भंगिमाओं में संजोया गया है. जिसमें अनुशासन पर्व ,अंधेरा कब जायेगा, भूल भारी की भाई, मीसामंत्र महान. विविध स्वर में समाजिक विसंगतियों, पर्वों,पर्यावरण, वृद्धों तथा अन्य विषयों पर कवि ने कलम चलायी है.राष्ट्र स्वतंत्रता संग्राम में योगदान और १९३९ सन से कविता के प्रति झुकाव को भी पाठकों के सामने लाया है. अटल जी ने संपादक के रूप में राष्ट्र धर्म,पांचजन्य,दैनिक स्वदेश, चेतना, वीर अर्जुन, आदि पत्रों को सम्हाला है, मृत्यु या हत्या, अमरबलिदान , कैदी कविराय की कुंडलियाँ, अमर राग है, मेरी इक्यावन कवितायें, राजनीति की रपटीली राहें, सेक्युलरवाद, शक्ति से क्रांति,न दैन्यं न पलायनम, नई चुनौतियाँ नया अवसर है।
अटल जी को साहित्य विरासत के रूप में श्याम लाल वाजपेयी वटेश्वर पिता जी और अवधेश वाजपेयी बडे भाई से मिला था. प्रसाद,निराला,नवीन, दिनकर,माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों, जैनेंद्र, अज्ञेय,वॄंदावन लाल वर्मा, तसलीमा नसरीन, जैसे लेखकों भरत,जगन्नाथ मिलिंद रामकुमार वर्मा जैसे नाटककारों के मुरीद है. समाजिक समरसता के लिये उनकी विचारधारा उच्चकोटि की है. उनकी एक कविता युगबोध में भी राष्ट्र कवि, निराला, दिनकर के, क्रमशः साकेत ,राम की शक्ति पूजा, और उर्वशी को विशिष्ट प्रकार से उद्धत किया। एक कवि होने के नाते मुझे लगता है कि अटल जी की कवितायें एक व्याकरणिक छंद बद्धता के मर्म को स्पष्ट करती है. परन्तु आज के समय पर प्रताडित आम जन सर्वहारा वर्ग, शोषित लोगों की पीडा का बखान करने में प्रतिनिधित्व करती नजर आती है. अटल जी भी उमर भर चिंतन की अल्प अवधि की समस्या से घिरे रहे। अटल जी जीवन कवित्व और राजनीतिज्ञ के रूप में हम सबके सामने रहा। संपादक के रूप में उनके संपादन से जितनी भी पत्रिकाएँ निकली वह हमारे पत्रकारिता के इतिहास में अमर हो गईं। उनकी कविताएँ अनुशासन पर्व की मुनादी बन गई।
अटल जी का राजनीति में प्रवेश तब हुआ जब स्व. जयप्रकाश नारायण ने जन संघ का सोपान प्रारंभ किया। अटल बिहारी का प्रारंभिक समाजवादी जीवन उस समय घुटने टेक लिया जब उन पर संघ के प्रचारक और पूर्णकालिक स्वयंसेवक होने का राष्ट्रप्रेम अपने अभीष्ट रूप में था। सत्ता के मोह को त्याग कर चरित्र के लिए सत्ता को किनारे कर देने वाले अटल जी ने विपक्षी और विरोधी के महीन अंतर को समझा भी जाना भी और माना भी। उन्होने कांग्रेस के स्व. राजीव गांधी के उस सहयोग को कभी नहीं भूला जिसमें राजीव जी ने अपने प्रधानमंत्री काल में अटल जी के किडनी के इलाज के लिए पुरजोर सहयोग किया था। अटल जी कवि होने के साथ साथ प्रखर राजनीतिज्ञ, विदेश मंत्री के रूप में मोरार जी देसाई के पंचवर्षीय योजना में अपना स्तंभ गाड़ने वाले विशेष जन प्रतिनिधि रहे। उदीयमान भाजपा को वर्तमान भाजपा के रूप में लाने के लिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है। अटल जी की विदेशी नीति के कुछ उदाहरण तो मैने अपनी आंखों से देखे। जिसमें पोखरण में परमाणु परीक्षण, संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी भाषा का प्रयोग करके इतिहास कायम करना, विदेशों में भी वही बंगाली अंदाज से धोती कुर्ता और कोटी का पहनना, पाकिस्तान के साथ बस यात्रा और फिर कारगिल युद्ध में विदेशी सहयोग को नकारते हुए अपने विरोधी पाकिस्तान से खुद ही निपटने के लिए तैयार होना विशेष उदाहरण है। काश्मीर की माँग में अटल का पाकिस्तान माँगना भी इतिहास में दर्ज रहा। सन एकसठ में पाकिस्तान के अस्तित्व को खत्म करने की बात, सन तिरसठ में चीन से कब्जे की जमीन को वापिस भारत में मिलाने की बात, सन उनसठ में तिब्बत पर सरकार की साफगोई भी उनकी विदेशी निपुणता का प्रतीक रहा।
अटल जी का राजनीति में पूर्वाग्रह भी काफी कारगर सिद्ध हुए। इसका एक उदाहरण तत्कालीन मंत्री यशवंत सिन्हा और जशवंत सिंह के मंत्रालयों में फेर बदल का अनुमान तेरह महीने के बाद वाली सरकार में देखने को मिला। बिल क्लिंटन की भारत यात्रा और आगरा भारत पाक मैत्री सम्मेलन, बाघा बार्डर के बहाने एक दिन के लिए लाहौर तक चले जाना, फिर भारत नई दिल्ली से इस्लामाबाद तक बस सुविधा कुछ पडो़सी मुल्कों के साथ मैत्री संबंधों में प्रगाढ़ता को हम सबके सामने रखते हैं। हालाँकि उसके बाद कारगिल युद्ध की विभीशिका से भी अटल जी का राजनैतिक सोच ने ही सेना की मदद की किंतु यह तय था कि अटल जी यदि राजनीति में न होते हो कवि जरूर होते। इस बात से भी कोई गुरेज नहीं है कि भाजपा ने अटल आडवानी और जोशी की तिकडी को यूपीए की सरकार के बाद भाजपा से नेपथ्य में खड़ा कर दिया। कोई पूँछताँछ नहीं ली गई और अटल जी का अंतिम जीवन काल एकाकी और एकांतवास की तरह गुजरा।अटल के सिद्धांतों वाली राजनीति अब इस देश में देखने को न मिली और ना मिलेगी।कविवर अग्रज अटल जी का साथ छूट गया भौतिक रूप से साहित्याकाश से। इमरजेंसी की उनकी कविताएं मर्म तक को झगझोर देती हैं। राजनीति ने उनकी लेखनी को अल्प विराम दिया। भाजपा चाहती तो अटल जी के अवदान को स्वर्णाक्षर से इतिहास मे दर्ज करने मे योगदान उनके जीते जी कर सकती थी।पर अब बहुत देर हो गई है अनुमानतः। अटल जी का तन मन और जीवन वचन सब कवितामय रहा। बहुत कुछ कहना चाहता हूं पर अभी अटल जी के अटल लेखन को उनकी इस और मेरी पसंदीदा कविता मे एक कविता रखकर एक रचनाकार अपने अग्रज रचनाकार को याद रखने के लिए कृतसंकल्पित है। अटल जी की एक कविता जो शुरू से मन को छूती रही वो थी- यक्ष प्रश्न।।
जो कल थे,/वे आज नहीं हैं।/जो आज हैं,वे कल नहीं होंगे।/होने, न होने का क्रम,/इसी तरह चलता रहेगा,/हम हैं, हम रहेंगे,/यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।/सत्य क्या है?/होना या न होना?/या दोनों ही सत्य हैं?/जो है, उसका होना सत्य है,/जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।/मुझे लगता है कि/होना-न-होना एक ही सत्य के/दो आयाम हैं,/शेष सब समझ का फेर, /बुद्धि के व्यायाम हैं।/किन्तु न होने के बाद क्या होता है,/यह प्रश्न अनुत्तरित है।/प्रत्येक नया नचिकेता,/इस प्रश्न की खोज में लगा है।/सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।/शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।/यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें/तो इसमें बुराई क्या है?/हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,/धर्म की अनुभूति,/विज्ञान का अनुसंधान,/एक दिन, अवश्य ही/रुद्ध द्वार खोलेगा।/प्रश्न पूछने के बजाय/यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।- अटल बिहारी वाजपेयी। इसी के साथ एक अग्रज कवि को एक अनुज कवि की शब्दपूरित श्र्द्धांजलि

अनिल अयान

९४७९४११४०७

शिक्षक दिवस मे शिक्षक की उपादेयता

शिक्षक दिवस मे शिक्षक की उपादेयता

समम के साथ शिक्षा का रूप, स्वरूप, प्रारूप बदला है। स्वाभाविक तौर पर जब शिक्षा का रूप बदला तो शिक्षक का रूप भी बदला है। डा राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाने के पीछे शिक्षको के जिस उत्थान, उन्नयन और उपमान की कल्पना की गई थी उसके रूप को बदलाव की हवा लग चुकी है। अब तो गुरूता लिए हुए गुरूओं और वर्तमान शिक्षकों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो गया है। पहले की शिक्षा मे शिक्षक केंद्र मे था तो उसका सम्मान था।वह विषय के अतिरिक्त छात्र के जीवन में उपस्थित होकर जीवन मूल्यों का अध्यापन करता था। बच्चे कक्षाओं के बाद भी गुरुओं को याद करते थे।

आज के समय मे करके सीखने और बालकेंद्रित शिक्षा का जमाना है। बच्चा केंद्र की धुरी मे है। तीन भुजा मे शिक्षक शिक्षा और स्कूल है। डा राधाकृषणन ने जिस समाजोपयोगी संस्थिन के रूप मे स्कूल को अपने सिद्धांतों मे स्थापित किया था वह तो पूरी तरह से शिक्षा उद्योगों मे बदल चुके हैं। जहां शिक्षक सेल्समैन, मार्केटिंग का कामगार और कारीगर के रूप मे है। बच्चा एक उत्पाद, पालिसी या बांड है। शिक्षकों को अधिक नंबर लाने वाले प्रोडक्ट के निर्माणकर्ता के रूप मे प्रशिक्षित किया जाता है। थोक का थोक इन प्रशिक्षणशालाओं मे गैर गुजरे युवाओं को बाई चांस मे मिले इस अवसर को पैसे और सोहरत मे बदलना सिखाया जाता है। बाई च्वाइस आजकल कम ही शिक्षक मिलते है। आज तो शिक्षक जैसे लोग पांच सौ से कम वेतन मे भी काम करने के लिए तैयार हैं। यह भी शिक्षा जगत का दुर्भाग्य भी है। सारे अनर्गल काम करने के लिए शासन को शिक्षक ही खाली मिलता है।

 कभी कभी मन मे सवाल उठता है कि शिक्षक दिवस किन शिक्षकों के उत्थान के लिए है।स्कूल के शिक्षक, ट्यूशन के शिक्षक, कोचिंग के शिक्षक, सरकारी शिक्षक, या प्राइवेट सककूल के शिक्षक, मेहनती लगनशील और पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा के शिक्षक या फिर  अच्छी पहचान और पहुंच रखने वाले बच्चों को अधिक नंबद दिलाने का लालच देने वाले व्यवसायी शिक्षक, और सोंचे तो एक दिन के लिए स्कूल मे जाकर शिक्षकों मे अपना रूतबा दिखाने वाले सरकारी अधिकारी रूपी शिक्षक के लिए। 

आज के समय पर शिक्षक निहत्था है। उसकी स्थिति कुछ इस तरह है - पीछे बंधे हैं हाथ और शर्त है सफर किससे कहूं कि पांव के कांटे निकाल दो।।। शिक्षक पाठ्यक्रम के बाहर नहीं जा सकता, शिक्षक बच्चे को डांट नहीं सकता अनुशासन तो बहुत दूर की बात है, शिक्षक बच्चे को कक्षा मे खड़ा नहीं कर सकता, प्राचार्य की अवहेलना नहीं कर सकता, नवोन्वेषी रास्ता अपना नहीं सकता, विषय पर अपना अनुभव नहीं बता सकता, अपने मापदंडों के अनुरुप मूल्यांकन नहीं कर सकता,  वह तो एक खांचे मे सेट किया हुआ मानव रोबोट सा बन कर रह गया है। तब भी यह मूर्ख समाज उसे भविष्य का निर्माता कहता है। वह धरासायी हो चुके पाठ्यक्रम को बैलगाडी मे जुते हीए बैल की तरह ढो रहा है साहब। बडे अधिकारियो और शासन के ब्यूरोक्रेट्सस तय कर रहे हैं साहब कि शिक्षक क्या कब कैसे पढाएगा। और तो और इस व्यवसाय मे शिक्षक हमेशा थैंकलेस रहा है भले ही वह कितना गहरा थिंक टैंक रहा हो।

डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाना हम सबके लिए गर्व की बात है। किंतु अब वर्तमान परिस्थितियों मे शिक्षक के हाल को देखते हुए लगता है कि कहां शिक्षक और कहां राधाकृष्णन जी। दोनो एक दूसरे के पसंघे हो गये है। राधाकृष्णन के सिद्धांतों के अनुरूप विश्व भी एक विद्यालय है।शिक्षक को पाठ्यक्रम के अतिरिक्त बच्चे को आत्मनिर्भर बनाने की कला सिखाना चाहिए। परन्तु पढे लिखे गुलाम की तरह शिक्षक जीवन यापन कर रहा है और बाजार मे अपने को स्थिर बनाए रखने मे जग्दोजहद कर रहा है उस बीच वो सम्मानित कब होता है। सितंबरी शिक्षक सम्मान का बाकी अपमान का शिक्षक बना रहता है। फिर किस बात का शिक्षक दिवस। विद्यालयों मे शिक्षक एक कर्मचारी ही है हुजूर।वह सबकी सुनता है सबकी सुनकर हां मे हां मिलाने की कोशिश करता है। क्योंकि वो जानता है कि अगर कुछ भी इधर उधर हुआ तो विद्यालय प्रबंधन कारण बताव नोटिस देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा देगा।

वर्तमान और भविष्य मे शिक्षक एक टूल बनकर यह जाएगा। वो औजार जिसका कोई पूरक नही बना शिक्षा जगत में। बाकी राष्ट्रनिर्माण, भविष्य उत्थान करने वाला पुरोधा जैसी उपाधियां सिर्फ अतीत के पन्नों मे लिखी सूक्तियां बनकर रह गया है। शिक्षक का वेतन सेवा शुल्क अन्यकामगार से बहुत कम है।उसके लिए मथोचित सुविधाएं नहीं है। सरकार शिक्षकों को श्रमिक तो मानती है किंतु श्रमिक के रूप मे सुविधाएं देने के लिए हाथ खडा कर लेती है। यह दोगला चरित्र ही शिक्षकों के समाजिक और राष्ट्रीय सम्मान के  पतन का कारण है। जब तक यह सौतेला रवैया , संविदा और ठेकेदारी का रवैया, श्रय साध्य मानकर भी स्वीकार न करने का रवैया, शिक्षक को एक बुद्धिजीवी गुलाम मानने का रवैया, नहीं बदला जाएगा । जब तक शिक्षक को सामाजिक सुदृढता, आर्थिक आत्मनिर्भरता , मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा तो चाहे जितने शिक्षक दिवस के पर्वों मे शिक्षके के जीते जागते पुतले बिठा लिए जाए वो सिर्फ कठपुतली के नाच की तरह मनोरंजन का साधन ही बने रहेंगें।

अनिल अयान


9579411407

नेपथ्य में बिलखती हिंदी

नेपथ्य में बिलखती हिंदी
एक सितम्बर से १४ सितम्बर तक की गतिविधियाँ हिंदी के लिये समर्पित रहती हैं. राजकाज की भाषा के विकास और उत्थान के कसीदे सीमा से परे हो कर पढे गये.हिंदी के सेवक हिंदी की सेवा करते दिखे.अन्य लहजे में कहें तो गाहे बगाहे हिंदी से अपनी सेवा करवाने वाले इस पखवाडे में हीं सिर्फ हिंदी की दिखावटी सेवा कर मेवा पाने का प्रयास हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी करके कल ही फुरसत हुये.यदि हम परिणाम की बात करेंगें तो यह भी बेमानी होगा.राजभाषा के पखवाडे में जितने लोग और विद्वान दिखने वाले लोग माइक के सामने हिंदी को ऊपर उठाने की बात करते है वो ही सही मायनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाये जाने के पैरोकार है.  क्योंकी यदि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो गई तो उनकी अच्छी खासी आमदनी वाली दुकान में ताला लगा समझिये. कहने को आज के समय में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु कई संस्थायें है जिनको शासन और सरकार ने हिंदी के विकास के लिये बहुत सी जिम्मेवारी सौपी है. परन्तु यहाँ भी रेवडियाँ ही बाँटी जा रही है. अपने अपने दफ्तरों में बैठ कर इनके अधिकारी सरकारी दामाद बने बैठे है अधिक्तर योजनायें और खर्च करने के लिये सरकार के द्वारा दिये जाने वाला फंड लैप्स हो जाता है और गाहे बगाहे सितम्बर माह मे हिंदी के कसीदे पढने के लिये समाज और देश भर में निकलते है.
संविधान सभा में जब हिंदी की स्थिति को लेकर जब दो दिवसीय चर्चा का आयोजन १२ सितम्बर १९४९ से १४ सितम्बर १९४९ तक हुआ तब भी तत्कालिक राष्ट्रपति स्व. डा राजेन्द्र प्रसाद, ने अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन दिया. प्रधान मंत्री स्व.जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी की पैरवी ज्यादा की थी. तब से लेकर आज तक भाषा संबंधी अनुच्छेदों राजभाषा अनुच्छेद ३ ग और १४ क में तीन सौ से अधिक बार संशोधन किया गया जो आज के समय में भाग १७ के रूप में संविधान में उपस्थित है. संवैधानिक स्थिति के अनुसार तब से आज तक भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेजी सह भाषा है. तब से लेकर आज तक संविधान सभा की अनुशंसा में इस १४ दिन राजभाषा पखवाडे के रूप में मनाये जाने लगे.उस वक्त डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देवनागरी लिपि को भारत की राष्ट्रीय लिपि बनाने की भी अनुशंसा की थी परन्तु उस बात को आज भी दबा कर खत्म कर दिया गया.
एक वह दिन था और एक आज का दिन, राज भाषा पखवाडा का चलन जगत में चलने लगा .हर छोटी बडी संस्था राजभाषा के प्रचार प्रसार के साथ राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिये हर वर्ष एक नाटक का मंचन करते है. परन्तु परिणाम सिफर होता है.प्रायोगिक रूप से देखे कि हिंदी हमारी रोजमर्रा की भाषा रही है. परन्तु आज के समय में भागदौड और बाजारवाद के अवसरो के दरमियान यह भी हिंदी और इंगलिश का मिश्रित रूप हो गई है.जिसे आज के समय हिंगलिश के रूप में जाना जाने लगा है.जो आज भी चलन में है.विशुद्ध हिंदी या यह कहें की तत्सम और तद्भव शब्दों से बनी हिंदी से कार्य और ज्यादा दुरूह् हो रहे है. अधिक्तर हिंदी माध्यम विद्यालय अंग्रेजी माध्यम मे बदल गये है. यहाँ तक आगामी पीढी को अंग्रेज बनाने की कवायद हम नर्शरी से शुरू कर देते है. आज के समय में अंग्रेजी ना बाँच पाने और बोल पाने वाला व्यक्ति अनपढ और गंवार समझा जाने लगा है.
सिविल सर्विसेस परीक्षा का बखेडा अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है. ऐसी स्थित में राष्ट्र भाषा तक पहुँचने की कवायद बेमानी सी नजर आती है. आज के समय में अधिक्तर राजकीय काम अंग्रेजी से होता है. ऐसा लगता है कि हिंदी पहले कभी भाषा की माकान मालिक थी आज तो वह अंग्रेजी के फ्लैट में किराये से रहने को मजबूर हो चुकी है. हम जिस बहुभाषावाद के सिकंजे में फंसते जा रहे हैं उससे यही परिणाम निकलेगा कि मूल हिंदी के शब्द बिलखते नजर आयेगें और अन्य भाषाओं जैसे फारसी, उर्दू ,अरबी, के मिश्रण से हिंदी अपने में ही गुम हो जायेगी। आज के परिवेष में भले ही हम  इस बात के लिये दंभ भरते हों कि हिंदी सिर्फ भाषा नहीं वरन बाजारवाद का पर्याय बन चुकी है तो उन्हे मै इस बात से अवगत कराना चाहता हूँ कि हिंदी आज के समय में अपनी राजभाषा की अस्मिता बचाने में असफल हैं। आज के समय में अधिक्तर राजकाज हिंदी की बजाय हिंदी और अंग्रेजी में हो रहा है। राजस्व और न्यायालय की भाषा आम जन से कोसों दूर नजर आती है। और उच्च शिक्षा,बाजार,तकनीकि तक में हिंदी और अंग्रेजी का मिश्रण हिंगलिश पर्याप्त सुख भोग रही है।
  क्या इसी तरह से हिंदी का विकास होगा. आज जरूरत है कि यह प्रयास हो कि इस तरह की संस्थाओ के अस्तित्व को समाप्त कर संयुक्त आयोग गठित करने की. जमीनी स्तर पर प्रयास किया जाये. जागरुकता अभियान चलाये जाये. शिक्षा विभाग उच्च शिक्षा विभाग का सहयोग बच्चों और युवाओं में हिंदी के प्रति रूझान बढाने में मदद करे. अन्य राज्यों में भी हिंदी भाषियों को स्थान और सम्मान मिलने के साथ साथ रोजगार मिले. वरना हिंदी का अस्तित्व खतरे में आन पडा है कुछ राज्यों को छोड कर हिंदी के बोलने वाले वख्ता कम होते जा रहे है. अन्य भाषी राज्य हिंदी को अपने राज्य के लिये कलंक समझते है. हमें अपने मन के भ्रम को टॊड कर वास्तविकता की जमीन मे कदम बढाना होगा और हिंदी को पहले धरातल मे घर घर की बोली बनानी होगी.
हिंदी को यदि वास्तविक स्थान दिलाना है तो सिंहासन में बैठ हिंदी की तंदूर में अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेकना बंद करना होगा। सर्वप्रथम हिंदी को भारत में सम्मानजनक स्थान और राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिये राजनैतिक और संवैधानिक पहल करनी होगी। इस हेतु अन्य राज्यों का भी समर्थन जरूरी होगा।। जब हिंदी को अन्य भाषी राज्यों में भी उतना ही स्नेह मिलेगा जितना कि गिनती के हिंदी भाषी राज्यों में मिल रहा है तभी कुछ बेहतर हो सकता है। अन्यताः यह पखवाडा पितृ पक्ष के पंद्रह दिनों की तरह हर वर्ष मनाया जाता रहेगा और संबंधित संस्थान, विभाग, विश्वविद्यालय और हिंदी के चाटुकार सेवक लाभान्वित होते रहेंगें। अंग्रेजी हिंदी का अपहरण कर अपना लबादा उसे पहनाती रहेगी और हम बाजार में खडे होकर अपनी सहूलियत के लिये हिंगलिश को ससम्मान से अपनाते रहेंगें।हिंदी का बिलखना कब विलाप और उसके अंतिम सांसों की डोर बन जायेगा हम पहचान नहीं पायेंगें।
हम सबके अंदर हिंदी रक्त में प्रवाहित हो रही है और यही प्रवाह हमें हिंदी के रक्षक के रूप में स्थापित करने की उर्जा देता है। यह बात अलग है कि व्यवसायिकता के युग में हिंदी को लेकर सत्ता पक्ष और उनके नुमाइंदे इतने सक्रिय और योजनायुक्त नहीं नजर आते जितना कि हिंदी के प्रति आस्था रखने वाले पाठक श्रोता और परिवारजन, हिंदी की कथा तो अनंत है हिंदी को दिगंत तक पहुँचाने के लिए हम दृढ़संकल्पित हैं, यह कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि हमारे आसपास कितने लोग साथ देने के लिए आगे आते हैं भाषा के लिए यदि हमारे इरादे में घोल मोल नहीं है तो फिर दस कदम साथ चलने वाले चंद्र सेवी तो मिल ही जाते हैं। हिंदी के लिए हिंदी का पाठक वर्ग ही उसका पालनहार हो सकता है। नकारात्मकता की उर्जा के साथ हमें नयी सुबह का इंतजार हृदय की भाषा के लिए करना चाहिए।राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अन्य भाषा भाषी राज्यों को अपने पक्ष में करना होगा. अभी फिल हाल यह प्रयास होना चाहिये कि हर दिवस हिंदी दिवस हो. हमें हिंदी को जनसुलभ,सर्वसुलभ,और अपनी आगामी पीढ़ी को हिंदी और इसकी बोलियों के बारे में कम से कम साक्षर करने की कोशिश होनी चाहिए। अपने घर में अजनबी की तरह हिंदी न हो इस चिंता को चिंतन में परिवर्तित करना होगा।

अनिल अयान,सतना
संपर्कः९४७९४११४०७

बहुत जल्दी चल दिये सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट

बहुत जल्दी चल दिये सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट
ॠषि सुतीष्ण की धरती में वैसे तो मवाली से ले कर बवाली तक पैदा हुए। अमीर से गरीब तक ने पैदा होकर इस धरती का मान बढ़ाया है। पर इतने सालों के इतिहास में इस धरती ने यदि कुछ खास किस्म का इंशान पैदा किया है तो वो है डा हरीश निगम, हम सबके लिए यह अनजाना नाम हो सकता है। किंतु साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छॊड़ने वाले हरीश निगम नाम के व्यक्ति का व्यक्तित्व अव्यक्त सा रहा । सतना के लोगों ने मात्र उन्हें स्वशासी महाविद्यालय के प्राध्यापक के रूप में जाना, समाज शास्त्र के नाम पर उनके वख्तव्य दैनिक समाचार पत्र में छपे भी और पढ़े भी गए। वो सामाजिक मुद्दे चाहे दहेज हो, बलात्कार हो, समाजिक और आर्थिक विस्थापन हो, समाज और राजनीति हो, या फिर समाज और अर्थ व्यवस्था हो। वो हर फन मौला इंशान थे। सन दो हजार तीन में जब मै कालेज की पढ़ाई में गया तो शांत चित, सालीन, और स्कूटी से जीवन भर कालेज जाने वाले डा हरीश निगम सर ना नुकुर, विवादों से दूर, गोपनीय विभाग की वो बंद बिल्डिंग में ड्यूटी करते हुए मिले। शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी वजह से परेशान हुआ हो। बाद में पता चला कि ये वही हरीश निगम हैं जो लगातार अखबारों में नवगीत के कालम लिखते हैं। ये वही हरीश निगम हैं जिनके बाल गीत बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
जी हां मै उसी हरीश निगम की बात कर रहा हूँ जिसे शायद देश का कोई अखबार नहीं होगा जिसने ना प्रकाशित किया हो। पुरानी पत्र पत्रिकाओं में कादंबनी से  लेकर नवनीत, वीणा से लेकर इंद्र प्रस्थ भारती ने बाल रचनाओं के लिए डा हरीश निगम को साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दिया।उनकी कहानियों पर टेलीफिल्मों का निर्माण हुआ और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में भी उनकी रचनाएँ शामिल की गई हैं। बाल भारती, चंपक, पराग, नंदन, बालहंस, लोटपोट, सुमन सौरभ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, रविवार, आजकल, नवनीत, नया ज्ञानोदय, मधुमती, सरिता, मुक्ता, मनोरमा, मेरी सहेली, गृहशोभा, आउटलुक, सीनियर इंडिया, आज, अमर उजाला, संडेमेल, स्वतंत्र भारत, लोकमत, ट्रिब्यून, नई दुनिया, नवभारत, दैनिक जागरण, शिखर वार्ता जैसी पत्रिकाओं व पत्रों में उनकी कहानियाँ, नवगीत, गजलें, कविताएँ, बालगीत, बालकथाएँ आदि प्रकाशित हैं। देश के किसी भी विचार धारा के अखबार रहे हों उन्हें बाल साहित्यकार के रूप में जाना समझा पढ़ा और गुना भी, देश में सतना की धरती ही नहीं बल्कि विंध्य में एक मात्र बालसाहित्यकार पैदा हुआ और वो था डा हरीश निगम। बच्चों के बचपन की धुन को वो बडप्पन के साथ सुने भी गुने और शब्दों के माध्यम से बुने भी। उन्होने समय की धरातल में बचपन की बानगी को बालगीतों और बाल कविताओं में पिरोया। उनकी बाल गीत और बाल कविताए फिलहाल चार राज्यों के प्राथमिक पाठ्यक्रम में शामिल किए गये।सुंदर-सुंदर सरस बिंबमयी शब्दावली पाठक को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।उनका एक कहानी-संग्रह 'हरापन नहीं लौटेगा' भी प्रकाशित है। एक बालगीत-संग्रह 'टिंकू बंदर' तथा एक बालकथा 'मिक्कू जी की लंबी दुम' प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त अनेक सहयोगी संकलनों यथा– नवगीत अर्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीत और गीत, बीसवीं शताब्दी, गज़लपुर, चुने हुए बालगीत में उनके नवगीत एवं उनकी गजलें और बाल कविताएँ संग्रहीत हैं। एक बानगी- भइया बस्ते जी/
थोड़ा अपना वजन घटाओ/भइया बस्ते जी/हम बच्चों का साथ निभाओ/भइया बस्ते जी।/गुब्बारे से फूल रहे तुम/भरी हाथी से,/कुछ ही दिन में नहीं लगोगे/मेरे साथी से।/फिर क्यों ऐसा रोग लगाओ/भइया बस्ते जी।/कमर हमारी टूट रही है/कांधे दुखते हैं,/तुमको लेकर चलते हैं कम/ज्यादा रूकते हैं।/कुछ तो हम पर दया दिखाओ/भइया बस्ते जी।
उनकी यह बस उपलब्धि नहीं थी गीतों को श्रंगार की मार्मिक धरती से पुरुस्थापित करने और नवगीतों में विंधय का नाम अखिल भारतीय स्तर पर लेजाने का काम अनूप अशेष के बाद हरीश निगम का ही था। अखबारों में नवगीत को रचनाओं के रूप में प्रकाशित करने के लिए नितांत आवश्यकता को भी उन्होने समझा और माना। नवगीतों में उन्होने जगबीती को उकेर दिया। मर्म को टटोलने वाले ये गीत गीतों के अगर बीस नहीं थे तो उसके उन्नीस भी नहीं थे। गीतों में गाँव से लेकर जिंदगी , समाज से लेकर गाँव तक की बात की। फसलों से लेकर त्योहारों तक की बाद अपने ही अंदाज से हरीश निगम ने किया। 'होंठ नीले धूप में' एवं 'अक्षर भर छाँव' उनके प्रसिद्ध नवगीत संग्रह हैं। उनके नवगीतों में कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है, इसीलिए उन्हें सुकुमार नवगीतों का सम्राट कहा जाता है। एक नवगीत की बानगी देखिए- सुख अंजुरि-भर/दुख नदी-भर/जी रहे/दिन-रात सीकर!/ढही भीती/उड़ी छानी/मेह सूखे/आँख पानी/फड़फड़ाते /मोर-तीतर!/हैं हवा के होंठ दरक/फटे रिश्ते/गाँव-घर के/एक मरुथल/उगा भीतर!/आक हो-/आए करौंदे/आस के/टूटे घरौंदे/घेरकर/बैठे शनीचर!
वादों और विचारधाराओं से परहेज करने वाले हरीश निगम सतना की साहित्यिक पोंगापंथी से दूर होकर वीरानी में लेखन करते रहे। कई पाठकों को उनका घर द्वार तक नहीं पता था। माँ शारदा की धरती में आशीष लेकर वो चाहते तो विज्ञान का शिक्षण भी कर सकते थे किंतु समाजशासत्र को चुनकर उन्होने समाज की परिपाटी में नवाचार करने की ठानी। कवि मन ने उन्हें कलम उठाकर चलने के लिए मजबूर कर दिया। आज पूरा देश हरीश निगम के जाने को साहित्य में नवगीत और बाल साहित्य का कभी ना खत्म होने वाला रिक्त स्थान बना रहा है। विंध्य क्षेत्र भी इस साहित्य युग के पुरोधा को याद करके गमगीन होता। कई अखबारों के नवगीत के कालम भी रिक्त हो जाएगें। हाँ यह तय है कि उनकी जगह कोई और प्रकाशित होगा किंतु हर रचनाकार का स्वर्ण युग होता है। हरीश निगम अपने शिखर में पहुँच कर संध्या होने से पहले ही भौतिक रूप से अस्त हो गए। उनकी रचनाएँ अब उनकी याद के रूप में हम सबकी सहोदर होगीं वो कभी अस्त नहीं होगीं। वो इस सहोदर को याद करवाती रहेगीं।।मुझे कालेज से साहित्य के इस क्षेत्र में पहुँचाने का श्रेय डा हरीश निगम और डा लाल मणि तिवारी ही थे। उन्होने ही तत्कालिक पाठक मंच संयोजक संतोष खरे का पता और गोष्ठियों की जानकारी दी। हमारी शब्द शिल्पी को एक अभिभावक के रूप में उन्होने स्नेह दिया। कल का शनीचर उनको लील गया अपने काल के गर्भ में। साहित्य की इस आकस्मिक घटना के बाद बस इतना ही कहना शेष है कि बहुत जल्दी चल दिये आप, सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट "हरीश सर"।

अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

अपमान का घूंँट

लघुकथा
अपमान का घूंँट
रामपाल जी बहुत ही सीनियर शिक्षक और बहुत अच्छे संचालक भी हैं। सभी उनका सम्मान करते हैं। आज स्वामी विवेकानंद जयंती स्कूल मे मनाई जा रही थी परंतु साजिशन उनको संचालन न देकर किसी अवस्थी जी को संचालन दिया गया।। कार्यक्रम की सारी तैयारी पूरी हुई सांसाद और समाज सेवी राय साहब मुख्य अतिथि के रूप मे  मंच तक आ गये। अध्यक्ष जी का इंतजार होने लगा । ऐन मौके पर पता चला कि अध्यक्षता करने वाले ज्वाइंट डायरेक्टर आज नहीं आ पाएगें। फौरन स्थानीय जाने माने शिक्षाविद को अध्यक्षता सौंपी गई। राय साहब बोले "क्या देरी है भाई।। कार्यक्रम शुरू करवाएँ।" इतने मे संचालन करने वाले अवस्थी जी नदारत हो गये। रामपाल जी ने अवस्थी जी से चर्चा किये तो पता चला कि स्कूल के पूर्वछात्र और वर्तमान मे जाने माने गुंडे ने यह कहा है कि अगर इसको अध्यक्षता सौंपी तो सबकी खैर नहीं। कार्यक्रम की ईंट से ईंट बजा दूंँगा।
तिवारी जी बोले- प्रिंसिपल सर ,अब किसे आप बनाएगें अध्यक्ष? कोई विकल्प नहीं है। अवस्थी जी ! क्यों स्कूल की बदनामी करवा रहें हैं जाइये संचालन करिए।
प्रिंसिपल ने भी अवस्थी जी को यही बात बोला
अवस्थी की की डर के मारे सिट्टी पिट्टी गुम थी।
आखिरकार रामपाल जी ने संचालन का रिस्क लिया। कार्यक्रम सम्मान पूर्वक समाप्त हुआ। विघ्नसंतोषी गुंडा रामपाल जी को देख कर उल्टे पैर लौट गया।
  रामपाल जी बाहर की गोमती मे चाय का अंतिम घूंट खत्म करने ही वाले थे। वो गुंडा फटफटिया अचानक रोकते हुए बोला-
"गुरू जी को प्रणाम करता हूँ।आपके बहुत अहसान है मुझ पर। आप मुझको घर से सोटा मारते हुए लाते थे। पढाया लिखाया मुझे ,मै ही काबिल नहीं बन पाया, पर ये बताइये कि आपने मेरी धमकी के बाद भी संचालन क्यों किया? आपको मेरी गुंडई का भय नहीं है क्या?
आप बहुत तीस मार खाँ बने हुए थे। "
रामपाल जी का हाथ पकड़ते हुए अपने सिर पर उसने रखा और कहा "आप थे तो कुछ नहीं बोला, कोई और होता तो बजा कर रख देता। आशीर्वाद बनाए रखिएगा इस अभागे पर।"रामपाल जी अपलक उसके संवादों को सुनते रहे। चरण छूकर वो तूफान की तरह उनका सम्मान छीनते हुए  फटफटिया से रफूचक्कर हो गया।।।
अनिल अयान।।।

बहुत जल्दी चल दिये सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट

बहुत जल्दी चल दिये सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट
ॠषि सुतीष्ण की धरती में वैसे तो मवाली से ले कर बवाली तक पैदा हुए। अमीर से गरीब तक ने पैदा होकर इस धरती का मान बढ़ाया है। पर इतने सालों के इतिहास में इस धरती ने यदि कुछ खास किस्म का इंशान पैदा किया है तो वो है डा हरीश निगम, हम सबके लिए यह अनजाना नाम हो सकता है। किंतु साहित्य जगत में अपनी अमिट छाप छॊड़ने वाले हरीश निगम नाम के व्यक्ति का व्यक्तित्व अव्यक्त सा रहा । सतना के लोगों ने मात्र उन्हें स्वशासी महाविद्यालय के प्राध्यापक के रूप में जाना, समाज शास्त्र के नाम पर उनके वख्तव्य दैनिक समाचार पत्र में छपे भी और पढ़े भी गए। वो सामाजिक मुद्दे चाहे दहेज हो, बलात्कार हो, समाजिक और आर्थिक विस्थापन हो, समाज और राजनीति हो, या फिर समाज और अर्थ व्यवस्था हो। वो हर फन मौला इंशान थे। सन दो हजार तीन में जब मै कालेज की पढ़ाई में गया तो शांत चित, सालीन, और स्कूटी से जीवन भर कालेज जाने वाले डा हरीश निगम सर ना नुकुर, विवादों से दूर, गोपनीय विभाग की वो बंद बिल्डिंग में ड्यूटी करते हुए मिले। शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी वजह से परेशान हुआ हो। बाद में पता चला कि ये वही हरीश निगम हैं जो लगातार अखबारों में नवगीत के कालम लिखते हैं। ये वही हरीश निगम हैं जिनके बाल गीत बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।
जी हां मै उसी हरीश निगम की बात कर रहा हूँ जिसे शायद देश का कोई अखबार नहीं होगा जिसने ना प्रकाशित किया हो। पुरानी पत्र पत्रिकाओं में कादंबनी से  लेकर नवनीत, वीणा से लेकर इंद्र प्रस्थ भारती ने बाल रचनाओं के लिए डा हरीश निगम को साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान दिया।उनकी कहानियों पर टेलीफिल्मों का निर्माण हुआ और राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में भी उनकी रचनाएँ शामिल की गई हैं। बाल भारती, चंपक, पराग, नंदन, बालहंस, लोटपोट, सुमन सौरभ, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादंबिनी, रविवार, आजकल, नवनीत, नया ज्ञानोदय, मधुमती, सरिता, मुक्ता, मनोरमा, मेरी सहेली, गृहशोभा, आउटलुक, सीनियर इंडिया, आज, अमर उजाला, संडेमेल, स्वतंत्र भारत, लोकमत, ट्रिब्यून, नई दुनिया, नवभारत, दैनिक जागरण, शिखर वार्ता जैसी पत्रिकाओं व पत्रों में उनकी कहानियाँ, नवगीत, गजलें, कविताएँ, बालगीत, बालकथाएँ आदि प्रकाशित हैं। देश के किसी भी विचार धारा के अखबार रहे हों उन्हें बाल साहित्यकार के रूप में जाना समझा पढ़ा और गुना भी, देश में सतना की धरती ही नहीं बल्कि विंध्य में एक मात्र बालसाहित्यकार पैदा हुआ और वो था डा हरीश निगम। बच्चों के बचपन की धुन को वो बडप्पन के साथ सुने भी गुने और शब्दों के माध्यम से बुने भी। उन्होने समय की धरातल में बचपन की बानगी को बालगीतों और बाल कविताओं में पिरोया। उनकी बाल गीत और बाल कविताए फिलहाल चार राज्यों के प्राथमिक पाठ्यक्रम में शामिल किए गये।सुंदर-सुंदर सरस बिंबमयी शब्दावली पाठक को बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है।उनका एक कहानी-संग्रह 'हरापन नहीं लौटेगा' भी प्रकाशित है। एक बालगीत-संग्रह 'टिंकू बंदर' तथा एक बालकथा 'मिक्कू जी की लंबी दुम' प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त अनेक सहयोगी संकलनों यथा– नवगीत अर्धशती, यात्रा में साथ-साथ, गीत और गीत, बीसवीं शताब्दी, गज़लपुर, चुने हुए बालगीत में उनके नवगीत एवं उनकी गजलें और बाल कविताएँ संग्रहीत हैं। एक बानगी- भइया बस्ते जी/
थोड़ा अपना वजन घटाओ/भइया बस्ते जी/हम बच्चों का साथ निभाओ/भइया बस्ते जी।/गुब्बारे से फूल रहे तुम/भरी हाथी से,/कुछ ही दिन में नहीं लगोगे/मेरे साथी से।/फिर क्यों ऐसा रोग लगाओ/भइया बस्ते जी।/कमर हमारी टूट रही है/कांधे दुखते हैं,/तुमको लेकर चलते हैं कम/ज्यादा रूकते हैं।/कुछ तो हम पर दया दिखाओ/भइया बस्ते जी।
उनकी यह बस उपलब्धि नहीं थी गीतों को श्रंगार की मार्मिक धरती से पुरुस्थापित करने और नवगीतों में विंधय का नाम अखिल भारतीय स्तर पर लेजाने का काम अनूप अशेष के बाद हरीश निगम का ही था। अखबारों में नवगीत को रचनाओं के रूप में प्रकाशित करने के लिए नितांत आवश्यकता को भी उन्होने समझा और माना। नवगीतों में उन्होने जगबीती को उकेर दिया। मर्म को टटोलने वाले ये गीत गीतों के अगर बीस नहीं थे तो उसके उन्नीस भी नहीं थे। गीतों में गाँव से लेकर जिंदगी , समाज से लेकर गाँव तक की बात की। फसलों से लेकर त्योहारों तक की बाद अपने ही अंदाज से हरीश निगम ने किया। 'होंठ नीले धूप में' एवं 'अक्षर भर छाँव' उनके प्रसिद्ध नवगीत संग्रह हैं। उनके नवगीतों में कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है, इसीलिए उन्हें सुकुमार नवगीतों का सम्राट कहा जाता है। एक नवगीत की बानगी देखिए- सुख अंजुरि-भर/दुख नदी-भर/जी रहे/दिन-रात सीकर!/ढही भीती/उड़ी छानी/मेह सूखे/आँख पानी/फड़फड़ाते /मोर-तीतर!/हैं हवा के होंठ दरक/फटे रिश्ते/गाँव-घर के/एक मरुथल/उगा भीतर!/आक हो-/आए करौंदे/आस के/टूटे घरौंदे/घेरकर/बैठे शनीचर!
वादों और विचारधाराओं से परहेज करने वाले हरीश निगम सतना की साहित्यिक पोंगापंथी से दूर होकर वीरानी में लेखन करते रहे। कई पाठकों को उनका घर द्वार तक नहीं पता था। माँ शारदा की धरती में आशीष लेकर वो चाहते तो विज्ञान का शिक्षण भी कर सकते थे किंतु समाजशासत्र को चुनकर उन्होने समाज की परिपाटी में नवाचार करने की ठानी। कवि मन ने उन्हें कलम उठाकर चलने के लिए मजबूर कर दिया। आज पूरा देश हरीश निगम के जाने को साहित्य में नवगीत और बाल साहित्य का कभी ना खत्म होने वाला रिक्त स्थान बना रहा है। विंध्य क्षेत्र भी इस साहित्य युग के पुरोधा को याद करके गमगीन होता। कई अखबारों के नवगीत के कालम भी रिक्त हो जाएगें। हाँ यह तय है कि उनकी जगह कोई और प्रकाशित होगा किंतु हर रचनाकार का स्वर्ण युग होता है। हरीश निगम अपने शिखर में पहुँच कर संध्या होने से पहले ही भौतिक रूप से अस्त हो गए। उनकी रचनाएँ अब उनकी याद के रूप में हम सबकी सहोदर होगीं वो कभी अस्त नहीं होगीं। वो इस सहोदर को याद करवाती रहेगीं।।मुझे कालेज से साहित्य के इस क्षेत्र में पहुँचाने का श्रेय डा हरीश निगम और डा लाल मणि तिवारी ही थे। उन्होने ही तत्कालिक पाठक मंच संयोजक संतोष खरे का पता और गोष्ठियों की जानकारी दी। हमारी शब्द शिल्पी को एक अभिभावक के रूप में उन्होने स्नेह दिया। कल का शनीचर उनको लील गया अपने काल के गर्भ में। साहित्य की इस आकस्मिक घटना के बाद बस इतना ही कहना शेष है कि बहुत जल्दी चल दिये आप, सुकुमार बाल और नवगीतों के सम्राट "हरीश सर"।


अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

मंगलवार, 4 सितंबर 2018

शिक्षक दिवस मे शिक्षक की उपादेयता


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समम के साथ शिक्षा का रूप, स्वरूप, प्रारूप बदला है। स्वाभाविक तौर पर जब शिक्षा का रूप बदला तो शिक्षक का रूप भी बदला है। डा राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाने के पीछे शिक्षको के जिस उत्थान, उन्नयन और उपमान की कल्पना की गई थी उसके रूप को बदलाव की हवा लग चुकी है। अब तो गुरूता लिए हुए गुरूओं और वर्तमान शिक्षकों के बीच जमीन आसमान का अंतर हो गया है। पहले की शिक्षा मे शिक्षक केंद्र मे था तो उसका सम्मान था।वह विषय के अतिरिक्त छात्र के जीवन में उपस्थित होकर जीवन मूल्यों का अध्यापन करता था। बच्चे कक्षाओं के बाद भी गुरुओं को याद करते थे।

आज के समय मे करके सीखने और बालकेंद्रित शिक्षा का जमाना है। बच्चा केंद्र की धुरी मे है। तीन भुजा मे शिक्षक शिक्षा और स्कूल है। डा राधाकृषणन ने जिस समाजोपयोगी संस्थिन के रूप मे स्कूल को अपने सिद्धांतों मे स्थापित किया था वह तो पूरी तरह से शिक्षा उद्योगों मे बदल चुके हैं। जहां शिक्षक सेल्समैन, मार्केटिंग का कामगार और कारीगर के रूप मे है। बच्चा एक उत्पाद, पालिसी या बांड है। शिक्षकों को अधिक नंबर लाने वाले प्रोडक्ट के निर्माणकर्ता के रूप मे प्रशिक्षित किया जाता है। थोक का थोक इन प्रशिक्षणशालाओं मे गैर गुजरे युवाओं को बाई चांस मे मिले इस अवसर को पैसे और सोहरत मे बदलना सिखाया जाता है। बाई च्वाइस आजकल कम ही शिक्षक मिलते है। आज तो शिक्षक जैसे लोग पांच सौ से कम वेतन मे भी काम करने के लिए तैयार हैं। यह भी शिक्षा जगत का दुर्भाग्य भी है। सारे अनर्गल काम करने के लिए शासन को शिक्षक ही खाली मिलता है।

 कभी कभी मन मे सवाल उठता है कि शिक्षक दिवस किन शिक्षकों के उत्थान के लिए है।स्कूल के शिक्षक, ट्यूशन के शिक्षक, कोचिंग के शिक्षक, सरकारी शिक्षक, या प्राइवेट सककूल के शिक्षक, मेहनती लगनशील और पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा के शिक्षक या फिर  अच्छी पहचान और पहुंच रखने वाले बच्चों को अधिक नंबद दिलाने का लालच देने वाले व्यवसायी शिक्षक, और सोंचे तो एक दिन के लिए स्कूल मे जाकर शिक्षकों मे अपना रूतबा दिखाने वाले सरकारी अधिकारी रूपी शिक्षक के लिए। 

आज के समय पर शिक्षक निहत्था है। उसकी स्थिति कुछ इस तरह है - पीछे बंधे हैं हाथ और शर्त है सफर किससे कहूं कि पांव के कांटे निकाल दो।।। शिक्षक पाठ्यक्रम के बाहर नहीं जा सकता, शिक्षक बच्चे को डांट नहीं सकता अनुशासन तो बहुत दूर की बात है, शिक्षक बच्चे को कक्षा मे खड़ा नहीं कर सकता, प्राचार्य की अवहेलना नहीं कर सकता, नवोन्वेषी रास्ता अपना नहीं सकता, विषय पर अपना अनुभव नहीं बता सकता, अपने मापदंडों के अनुरुप मूल्यांकन नहीं कर सकता,  वह तो एक खांचे मे सेट किया हुआ मानव रोबोट सा बन कर रह गया है। तब भी यह मूर्ख समाज उसे भविष्य का निर्माता कहता है। वह धरासायी हो चुके पाठ्यक्रम को बैलगाडी मे जुते हीए बैल की तरह ढो रहा है साहब। बडे अधिकारियो और शासन के ब्यूरोक्रेट्सस तय कर रहे हैं साहब कि शिक्षक क्या कब कैसे पढाएगा। और तो और इस व्यवसाय मे शिक्षक हमेशा थैंकलेस रहा है भले ही वह कितना गहरा थिंक टैंक रहा हो।

डा सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को मनाना हम सबके लिए गर्व की बात है। किंतु अब वर्तमान परिस्थितियों मे शिक्षक के हाल को देखते हुए लगता है कि कहां शिक्षक और कहां राधाकृष्णन जी। दोनो एक दूसरे के पसंघे हो गये है। राधाकृष्णन के सिद्धांतों के अनुरूप विश्व भी एक विद्यालय है।शिक्षक को पाठ्यक्रम के अतिरिक्त बच्चे को आत्मनिर्भर बनाने की कला सिखाना चाहिए। परन्तु पढे लिखे गुलाम की तरह शिक्षक जीवन यापन कर रहा है और बाजार मे अपने को स्थिर बनाए रखने मे जग्दोजहद कर रहा है उस बीच वो सम्मानित कब होता है। सितंबरी शिक्षक सम्मान का बाकी अपमान का शिक्षक बना रहता है। फिर किस बात का शिक्षक दिवस। विद्यालयों मे शिक्षक एक कर्मचारी ही है हुजूर।वह सबकी सुनता है सबकी सुनकर हां मे हां मिलाने की कोशिश करता है। क्योंकि वो जानता है कि अगर कुछ भी इधर उधर हुआ तो विद्यालय प्रबंधन कारण बताव नोटिस देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा देगा।

वर्तमान और भविष्य मे शिक्षक एक टूल बनकर यह जाएगा। वो औजार जिसका कोई पूरक नही बना शिक्षा जगत में। बाकी राष्ट्रनिर्माण, भविष्य उत्थान करने वाला पुरोधा जैसी उपाधियां सिर्फ अतीत के पन्नों मे लिखी सूक्तियां बनकर रह गया है। शिक्षक का वेतन सेवा शुल्क अन्यकामगार से बहुत कम है।उसके लिए मथोचित सुविधाएं नहीं है। सरकार शिक्षकों को श्रमिक तो मानती है किंतु श्रमिक के रूप मे सुविधाएं देने के लिए हाथ खडा कर लेती है। यह दोगला चरित्र ही शिक्षकों के समाजिक और राष्ट्रीय सम्मान के  पतन का कारण है। जब तक यह सौतेला रवैया , संविदा और ठेकेदारी का रवैया, श्रय साध्य मानकर भी स्वीकार न करने का रवैया, शिक्षक को एक बुद्धिजीवी गुलाम मानने का रवैया, नहीं बदला जाएगा । जब तक शिक्षक को सामाजिक सुदृढता, आर्थिक आत्मनिर्भरता , मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा तो चाहे जितने शिक्षक दिवस के पर्वों मे शिक्षके के जीते जागते पुतले बिठा लिए जाए वो सिर्फ कठपुतली के नाच की तरह मनोरंजन का साधन ही बने रहेंगें।

अनिल अयान
9579411407

शनिवार, 19 मई 2018

सत्ता का सौंदर्यीकरण

सत्ता का सौंदर्यीकरण

वैसे तो हम सबने हर जगह के सौंदर्यीकरण देखें ही हैं। जब भी यह पुण्य कार्य किया जाता है तब वास्तविक रूप से सामाजिक धतकरम सभी को मुंह बनाए चिढ़ाता है। सड़कों से लेकर गली कूचों का, नगर से लेकर महानगर का, उद्यानों से लेकर शासकीय इमारतों का आदि आदि जितने भी ऐसे पुण्यकार्य हुए उसमें कल्पनाशीलता की इतनी अति हो गई कि वास्तविकता भी चुल्लू भर पानी में डूब मरी। इस बार तो अच्छे दिन की लालसा लिए कुछ जुमले या यह कहूं कि मिसरे नाक कान  को चुभने लगे क्योंकि उसमें आत्म सम्मान की कम अभिमान के लोभान की महक आ रही थी। वो यह था कि एक सत्तारूढ़ अमुक पार्टी के बैनर में यह सुनने में मिला कि आप वोट गिनें हम तो राज्य गिनते हैं। अमुक पार्टी की यह सत्ता के सौंदर्यीकरण की प्रस्तावना के रूप में मतदाताओं के सामने आया। बार बार अमुक तमुक पार्टी के अध्यक्ष को कुछ नाम को बार बार कहने की अपील की जैसे कच्चा पापड़ पक्का पापड़ कहने की आदत हम छोड़ चुके थे। यह सत्ता है यह सब जानती है किंतु मौन भाषा किसी के समझ में कहां आती है। जानने भर से क्या होता है, यहां पर जिंदा मौन लोगों को मृत ही कहा जाता है।
भाषाई संतुलन तो उम्मीदवारों के संतुलन तक को गिरा दिया। पूर्व प्रधान मंत्री जी ने तो राष्ट्रपति से घुटने के बल खडे होकर विनती कि हमारे प्रधानमंत्री की चुनावी भाषा अमर्यादित है वह प्रधानमंत्री की भाषा नहीं हो सकती। अब चुनाव का मतलब ही है अमर्यादित होकर नंग दहाव करना। पूर्व राज्यों में सत्ता का सुख भोगने के बाद अमुक पार्टी ने जिस शेख चिल्ली के स्वप्न को साकार करने का प्रयास किया वह वाकयै सत्ता की भूतनी को राजरानी के रूप में बदलने की चेष्टा थी। इस चेष्टा की प्यास इतनी ज्यादा थी कि संविधान, लोकतंत्र सब को अमुक पार्टी ने धता बता दिया। दोनों बेचारे संविधान और लोकतंत्र इस जबर जस्ती की पीड़ा से कराह उठे। इसके बाद तो सत्ता पगडंडी को फास्ट ट्रैक नेशनल हाईवे बनाने की जग्दो जहद चालू हुई। अमुक पार्टी और  तमुक पार्टी ने एक दूसरे के विजयी विधायकों को लालच की हद तक गिरते देखना चाहते थे। फ्लोर टेस्ट के पहले ही सीटों की रिक्तता और त्रिसंखु सत्ता का स्वप्न दिवा स्वप्न नजर आने लगा। सत्ता की मोहिनी ने अमुक तमुक और भी अन्य को नाचने के लिए मजबूर कर दिया। यह मजबूरी भी थी और सत्ता सुख के लिए मजदूरी भी थी।
राज्य के मुखिया के ऊपर जब अमुक पार्टी ने जब केंद्र का दबाव बनाया तो तमुक पार्टी का व्यास बदल गया। मुखिया की परिधि कब्जे में आ गई। मुखिया ने पक्षपात का शीर्षस्थ नमूना सत्ता के सौंदर्यीकरण के लिए रखा। तमुक पार्टी ने न्यायालय से न्याय की उम्मीद अच्छे दिन की लालसा में लगाई। हालांकि यह उम्मीद कितना साकार होगी वह तो आने वाला वक्त बताएगा। यह देखने में आ रहा है। कि तमुक पार्टी गैर की शादी में अब्दुल्ला दीवाने की स्थिति में है। अमुक पार्टी तो शोक मना रही है क्योंकि उसके अच्छे दिन में चंद्र ग्रहण लग गया। तमुक पार्टी को इस बात की चिंता है कि कहीं उसकी सत्ता रूपी बेगम मौलवी के साथ फरार न हो जाए। आखिर कार हुआ वही मौलवी तो नहीं किंतु मौलवी के सिपेहसलारों ने इसको हथिया ही लिया किंतु। इस चाल की गीदडी खाल बहुत जल्दी ही उतर गई। 
इसी "सप्ताह" की इह लीला देखकर मन द्रवित भी है क्यों कि आखों से द्रव तभी निकलता है जब बहुत ज्यादा खुशी हो या बहुत ज्यादा दुख। यहां पर फिफ्टी फिफ्टी का मामला है। राज्य गिनने वाली अमुक पार्टी के लिए पीपीपी फार्मूला अभी बिना पीओपी के कमजोर है। तमुक पार्टी दूसरे पार्टी की मुख्यमंत्रित्व का गैरपार्टीसुख में लीन है। किंतु कहीं मामला " तेरह घंटे, तेरह दिन, तेरह माह" वाली केंद्र की सरकार की तरह हुआ तो इस बार डूबने के लिए इस गर्मी में चुल्लू भर पानी भी नसीब न होगा। खैर कर्नाटक को जो न जानता होगा वह भी रग रग से जानने लगा होगा। करनाटक ने अमुक को अमुक होने की सीख दी और तमुक को तमुक होने की सीख दे ही दी। इस सप्ताहिक नाटक में सबसे ज्यादा मजे किए इलेक्ट्रानिक मीडिया वाले न्यूज चैनलों को उनकी बाइट देखने लायक होती थी। समझ में नहीं आ रहा था कि मीडिया की बहसों और चर्चाओं का उद्देश्य क्या है टाइम पास करना या जनता के विश्वास के मोहजाल को और सघन करना।
स्थिति यह थी कि वो भी मनोरंजन वाले चैनल बन गए थे। भेडिया घाट में भेडों को हलाल होता तो दिखाया जा रहा था। किंतु भेड़ों के बचाव का रास्ता निकाले बिना ही भेडियों के राजा का गुणगान किया जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि इस बलि के बाद प्रसाद में कुछ भाग इधर भी सरका दिया जाएगा। कई चैनल तो दुखी होकर अमुक पार्टी के लिए शोक संदेश बांचने  में आज भी लगे हुए हैं। ऐसा लगता है कि वीरगाथा काल का चारण वंदन सभा का आयोजन किया जा रहा था। राजनीति विष्लेषक अपनी राजनीतिशास्त्र की सारी किताबों को पलटते पलटते उतान हो गए कि आखिर लोकतंत्र में यह उत्तर प्रदेशी नौटंकी के कलाकार कहां से आ गए। सभी अपना माथा पकड़े हाथों की लकीरों और माथे की लकीरों की तुलना करने में व्यस्त थे।
विधायकों नामक सत्ता की करेंसी को भारतीय करेंसी से तुलादान करके हथियाने की कोशिश में पूरा देश साथ दे रहा था। कुल मिला कर स्वर्ण आभूषणों की बजाय गिलिट के सोने का पानी चढ़ाकर सत्ता को सुशोभित किया जा रहा था। इस सब सप्ताहिकी को देखकर लगा कि वाकयै भारत की सत्ता ने भारत को इतने दशक के बाद भी विकासशील ही क्यों बनाए हुए है। सत्ता सुख किसी भी पार्टी को मिले अमुक या तमुक किंतु जिस प्रकार भेडियों ने लोकतंत्र की भेड़ों को धोबिया घाट में नाटक करके हलाल किया है वह यह साबित करता है कि समय अब जनता का नहीं इन्ही लोगों का है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, संवैधानिक पद और  देश का चौथे स्तंभ तक विधायिका की मुट्ठी में कैद हो चुके हैं। इस सौंदर्यीकरण से विदेश में अमुक पार्टी के प्रधान नेतृत्व कुछ भी दिखाए किंतु अंदर की लोकतंत्रीय देह में दीमक को पालने , दीमकों की खरीद फरोख्त करने की शाजिस अमुक पार्टी को ही जाती है। जब सौंदर्यीकरण के मेकप धुलेंगें तब सत्ता की बदसूरत तस्वीर हमें लज्जित जरूर करेगी।

अनिल अयान,सतना

रविवार, 6 मई 2018

स्त्री सुरक्षा के यक्ष प्रश्न से जूझता समाज

स्त्री सुरक्षा के यक्ष प्रश्न से जूझता समाज

पुरातन काल से स्त्री सम्मानित स्थान समाज में रखती चली आई है। हमारे धर्म ग्रंथ वेद पुराण गवाह रहे हैं कि स्त्री को पुरुष के पूर्व देवी देवताओं के नामों के रूप में पुकारा जाता रहा है। स्त्री को आराध्य देवीय रूप माना जाता रहा है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुरूप स्त्री पर केंद्रित सत्ता रही है। स्त्री की सत्ता को सिरोधार्य मानकर पुरुष ने समाज की रचना की है। हमारी  धार्मिक वर्ण और समाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरूप पुरातन काल से से स्त्री को लेखन का केंद्र माना गया। स्त्री के ऊपर तुलसी ने रावण के मुख से ढोल गंवार सूद्र पशु नारी को एक पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। अहिल्या को इसी व्यवस्था के अंतर्गत अपमान का घूंट पीकर श्राप ग्रहण करने को मजबूर होना पड़ा। रंभा को इंद्र का छल भोगना पड़ा। देवों ने दानवों की स्त्रियों के ऊपर और दानवों ने देवों की स्त्रियों के ऊपर अत्याचार, व्यभिचार के हर स्तर को पार किये। यह रीति हमारे देश में वर्तमान तक चली आ रही है। हमारे देश में स्त्री पुरुष अनुपात कम होने के बाद स्त्री की कम संख्या होने पर एक तरफ चिंता की जाती है और दूसरी तरप कन्या को गर्भ में ही समाप्त करने की चालें स्त्री के द्वारा ही चलाई जाती है। इस काम में पुरुष समाज भी उनक बखूबी साथ देते हैं।
पद्मावती फिल्म का एक संवाद याद आता है कि जो भी स्त्री की अस्मिता में हाथ ड़ाले उसकी अंगुलिंयां नहीं काटना चाहिए बल्कि सीधे गला काट देना चाहिए।यह संकेत हैभविष्य गत समाज में इस तरह के व्यभिचारों और यौन अपराधों की सजा के लिए। हमारा देश अरब राष्ट्र नहीं बन सकता, मुस्लिम राष्ट्र नहीं बन सकता किंतु सजा में फेर बदल करने के लिए उसे सोचना होगा। हमारे देश में हजारों महिला संगढ़न चल रहे हैं। महिला आयोग को कितना फंड़ स्त्रियों की सुरक्षा के लिए सरकार उपलब्ध करवा रही है। महिलाओं के लिए मानवी परामर्श केंद्र, महिला पुलिस थाने, महिला सुरक्षा कानून, पास्को कानून तक हमारे संविधान में है। बहुत से एनजीओ महिलाओं के उच्च समाजिक स्तर, स्वास्थ्य स्तर, परिवारिक और समाजिक उन्नयन के लिए सरकार के करोडो रुपये निगल रहे हैं। किंतु ये भी महिला सुरक्षा के लिए मौन हो जाते हैं।
विगत कुछ दशकों से यह देखा जा रहा है कि महिला सशक्तीकरण के नाम पर जितना स्वांग हमारी सरकारों ने रचाया है। वह राजनैतिक हथकंडा मात्र शामिल हो रहा है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि मीडिया जो पहले खबरे परोसता था अब वह सरकारी अंगुलियों की कठपुतली बनकर खबरों में तेल मसाला लगाकर महिलाओं के ऊपर हो रहे यौन अपराधों,बलात्कार की घटनाओं को वर्ग विशेष हेतु उद्वेलित और उत्तेजित करने का काम कर रहा है। पहले भी समाज में बलात्कार और व्यभिचार हुए हैं किंतु वह या तो दबा दिये गये, या तो महिला को मौत की नींद सुला कर मामले को बंद कर दिया गया। वर्तमान में मीडिया की सक्रिया की वजह से सोशल मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया इस घटनाओं को बडी खबर बनाकर समाज के सामने ला रही हैं। यह  कैमरे के सामने आने के बाद पुलिस की नजरों तक पहुंच पाती हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर कार पिछले कुछ दशकों से ही महिला सुरक्षा पर बहस, चर्चा, मुद्दे उठना क्यों शुरु हुए। पहले भी महिलाएं काम करती थी, पहले भी महिला पहनती ओढ़ती और बिछाती थी। पहले भी वो कामगार थी।
आसपास के वातावरण को देखें तो समझ में आता है महिलाएं पुरुषो से ज्यादा टेक्नालाजी फ्रेडली हो गई हैं। पहले महिला पुरुष को कोई भी काम करने से रोकती थी। अब की स्थिति में महिलाए पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर यहां तक की दो कदम आगे बढ़ चुकी हैं। सोशल मीडिया, कार्यक्षेत्रों,परिवार, समाज, सोशल क्लब्स, समाज सेवा नाम से महिला समाज और परिवार के डेहरी लांघ चुकी हैं, डेहरी लांघने के साथ साथ संबंधों की स्वच्छंदता भी बढ़ी है। संबंधों के रूप बदले हैं। शादी जैसे संबंध अब आधुनिक युग में ढ़कोसले और लिव इन जैसे संबंध आवश्यकता बन चुके हैं, रूम मेट्स में मेल फीमेल का शामिल हो जाना, अपने कोआर्डिनेट्स के साथ स्त्री और पुरुष की निजता का समाप्त होना, परिवार में प्रथाओं का विलोपन, सीमाओं की समाप्ति, आधुनिकता का समावेश सुरक्षा में सेंध उत्तपन्न कर रहा है। वर्तमान में कोई भी क्षेत्र हो महिला चाहे जितने ऊंचे पद पर हो वह अन्य महिला साथी का उतना सहयोग नहीं प्राप्त कर पाती जितना कि पुरुष से प्राप्त करती है। खेल, मीडिया, व्यवसाय, बाजार, बालीवुड़ जैसे कितने स्थान हैं जहां पर महिलाओं से विश्वासघात, मानसिक और शारीरिक शोषण होता है, पूर्व में मौन रहकर सब सहा जाता है और अंततः जब सहा नहीं जाता तब विरोध कर दिया जाता है। यही स्तिथि परिवार के विभिनन संबंधों पर भी देखने को मिलती है।
महिलाएं अपने अधिकारों, सरकार और संविधान के द्वारा दिए गये सुरक्षा कवच को जानती तो हैं किंतु उसे उपयोग करने से सकुचाती हैं,वो अपने परिवार,समाज की इज्जत की चिंता के चलते तात्कालिक निर्णय लेने से घबड़ाती हैं। वहां पर उन्हें अपने पित्रसत्तात्मक और पुरुष समाज की चिंता खाए जाती है। वहां पर उनका सशक्तीकर मौन क्यों हो जाता है। सोशल मीडिया इसका गवाह है कि महिला को एक्सपोजर उसके मेकप,उसके रहन सहन,उसके पहनावे, और उसके वैचारिक स्वतंत्रता के अनुरूप मिलता है, ग्लैमर और वाकपटुता की कीमत लाइक कमेंट और पर्सनल आडियो वीडियों चैट होते हैं, बाजार और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने महिलाओं को उत्पाद मानकर उन्हें कैस कर रहा है। आज के समय में वर्जनाएं खत्म हो चुकी हैं, महिलाओं को जिस एक्स्पोजर बोल्ड़नेश और ग्लैमर की जरूरत है वो उसे मीडिया और बाजार परोस रहा है। खुले आम महिलाओं से संबंधित निजी उत्पादों का  प्रदर्शन और विज्ञापन किया जा रहा है, सरकार की सूचना पौद्योगिकी की नाक के नीचे अश्लीलता और पोर्नोग्राफी का खुला बाजार चल रहा है उसमें महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी देखने को मिलती है। परन्तु फिर भी कहा जाता है सोच बदलने की जरूरत है। देश में महिलाओं को देह, उत्पाद, बाजार, मनोरंजन का साधन बनाकर परोसने और अप्रत्यक्ष रूप से हुकूमत की रजामंदी के बाद स्त्री असुरक्षित नहीं होगी तो क्या होगी।
स्त्री की समाजिक सुरक्षा तभी संभव है जब स्त्री को समाजिक प्राणी रहने दिया जाए, उसको शिक्षित होने का अधिकार हो, उसे अधिकारों के उपयोग करने का तरीका पता हो, उसके ऊपर समाज का मनोवैज्ञानिक दबाव न बने, उसे मानव बने रहने दिया जाए, अपने घर में बेटे बेटियों को यह समझाया जाए कि रील लाइफ और रियल लाइफ में कोई समानता नहीं हैं। कोर्ट कचेहरी से असुरक्षा को नहीं खत्म किया जा सकता है। यह समाज की समस्या है समाज के मानसिकता सोच और आने वाली पीढी को वैचारिक रूप से मजबूत बनाकर ही इस पीड़ा से छुटकारा पाया जा सकता है। बच्चों  को यह भी बताया जाए कि भारतीय समाज और पाश्चात समाज की रूप रेखा बिल्कुल अलग है। यहां पर अंग प्रदर्शन और वस्त्र धारण करने में महीन अंतर है, यहां पर सहवास का सुख विवाह पश्चात मान्य है न कि लिव इन रिलेशन में रहकर भोग कर छॊड़ने में है। बच्चों के बीच संवाद स्थापित करने का काम जितना पिता  की जिम्मेवारी निर्वहन कर रहे पुरुष का है उतना ही माता के रूप में जिम्मेवारी का निर्वहन कर रही स्त्री का भी है। स्त्री को अपने स्त्री समाज के लिए खडे होना चाहिए। स्त्री पुरुष की पूरकता को हर स्त्री पुरुष को समझना होगा। स्वतंत्रता,स्वछंदता,उच्छखृलता और इसका बोल्ड़नेश ग्लैमर और अश्लीलता में परिवर्तित होने के बीच में महीन अंतर है। एक सीमा रेखा के इस पार और उसपार पहुंचने के लिए कुछ सेकेंड ही लगते हैं अगर हम इस अंतर को नहीं समझ सकते हैं। स्त्री पुरुष एक साथ चलेंगें तो शायद यह सुरक्षा घेरा नहीं टूटेगा, अगर स्त्री आगे गई और पुरुष पीछे छूटा या फिर पुरुष आगे गया और स्त्री पीछे छूट गई तो यह सुरक्षा असुरक्षा में बदल जाएगी।

अनिल अयान, सतना
९४७९४११४०७

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

जीवितं जीवेति धरा, यत्र-तत्र युगे युगे।

जीवितं जीवेति धरा, यत्र-तत्र युगे युगे।
प्रकृति, जो है हमारी पालनहार, जो है हमारे पुरखों की सर्वेसर्वा,हमारी प्राकृतिक और नैसर्गिक पालक, मानव प्रजाति ही बस नहीं बल्कि करोड़ों जीवजन्तु अपने अपने तरीके से इस जीवन को जीने के लिए भली भूत हो रहे हैं। हमारी करतूतों के कारण हमें इस दिन को देखना पड़ रहा है। हम अब अपने पालनहार के बारे में, अपने अस्तित्व के खतरे के बारे में बात करने के लिए विवश हैं। हम ही क्या पूरा विश्व इस धरा की तपन को महसूस कर रहा है। धरती लगातार प्यास से व्याकुल हो रही है। सूरज का तापमान धरती के लिए खतरनाक हो रहा है। धरतीवासी अपनी आकाशगंगा में पृथ्वी जैसे ग्रह का कोई विकल्प खोजने में फिलहाल असमर्थ हैं। धरती ने अपने आपको विज्ञान के परे परिवर्तित कर लिया है।यह परिवर्तन के लिए हम सब मानव ही गुनहगार हैं। और इस गुनाह के पश्चाताप के लिए ही हम एक्जुट होकर अपनी धरती और इसके ऊपर पड़ने वाले कारको पर विचार करने के साथ बचाव के लिए प्रयास कर रहे हैं। हर देश के रहवासी इस मुहिम में अपने आप को आहुत करने के लिए आतुर नजर आ रहे हैं। कोई कुछ नहीं कर पा रहा तो अपने आस पास पौधा लगा रहा है। अपने आसपास से प्लास्टिक और सिथेटिक रसायनिक पालीथीन प्रोडक्ट को खत्म करने की कोशिश कर रहा है। हमें वैश्विक प्रयासों में व्यक्तिगत प्रयासों की मुहिम को जोड़ना ही होगा। हर व्यक्ति जो जहां है उसे अपने स्तर पर इस प्रकृति और धरती के लिए कुछ ना कुछ संरक्षण हेतु करना होगा। हम खुद सोचें कि इस मुहिम में यदि हम मिलियन भर लोग अगर अपने अपने स्तर पर स्वतंत्र रूप से प्रयास करें तो प्रकृति संरक्षण में कितनी बढ़ोत्तरी होगी।
हर सार विश्व धरा दिवस पर्यावरण आंदोलन जो सन सत्तर के दशक में प्रारंभ किया गया उसकी याद में नित नये प्रयोग किये जाते हैं।हर व्यक्ति समझ रहा है कि हमारा जीवन और इसका अस्तित्व खतरे में है। जानते सभी हैं किंतु क्या करना है यह जानकर भी कोई कुछ करना नहीं चाहता है। वर्तमान परिस्थितियों के लिए धरती को बचाने के लिए जरूरी है कि हम इसमें पाए जाने वाली जीवजन्तुओं और पेड़ पौधों की प्रजातियों को सुरक्षित करें,दैनिक जीवन से मानवनिर्मित रसायनिक खपत को कम करें,प्राकृतिक संसाधनों की महत्ता को समझते हुए उनकी सुरक्षा की जिम्मेवारी लेंऔर उसको पूरा करें, अपने आसपास हरियाली विकसित करें, हमारे आसपास की भूमि को सूखने से बचाएं,व्यर्थ में बह रहे पानी को धरती तक सीधे पहुंचाकर धरती की प्यास को बुझाएं, आसपास के जल स्रोंतों को दोबारा जीवित करें,अपने आसपास के पुराने पुरखों के कुओं और बावड़ियों का रखरखाव करके जल की एक एक बूंद संजोएं, अपने आसपास खेतों की पानीदारी, और हरियाली को दिन दोगुनी और रात चौगुनी बढ़ाने की कोशिश करें, वर्तमान समय के अनुसार घर के निकलने वाली गीले विघटित होने वाले कचडे को आसपास की जमीन में ही नष्टकरें ताकि उसका विघटन जैविक रूप से हो और धरती को उर्वरकता को बढ़ावा भी मिले, आस पास जल सोखने वाले गड्ढे बनाने की आवश्यकता है जिससे आपके आसपास जल के स्रोत पानीदार बने रहे, काक्रीट की दीवालों से बाहर आकर दिमाग में जमें कांक्रीट को हटाना होगा। शहरीकरण का जो प्लासटर हमारे दिमाग में पैवस्त हो चुका है वह प्रयासों की ड्रिल मशीन से और कटर से टॊड़ कर हटाने की जरूरत है। हमारी मानवीय प्रकृति अगर प्राकृतिक धरा की प्रकॄति को समझ कर एक दूसरे के साथ मिल जुल कर काम करे तो दोहन जैसा कार्य बहुत जल्दी खत्म हो जाएगा। ये धरा हमें देती है सब कुछ अगर हम भी इसे इसके जरूरत की कुछ सामग्री इस संरक्षण यज्ञ में आहुत कर सकें तो कितना अर्थदायी कदम हम सबका होगा। प्रकॄति के नजदीक हम अनायास ही पहुंच जाएंगें। हम खुद बखुद कई बीमारियों, कई अवरोधकों को खत्म कर देंगें, हम खुद बखुद पोषित होजाएंगें अगर हम पोषक को पोषण देने का कार्य प्रारंभ करेंगें।
हमारे दैनिक जीवन में जितना कचड़ा इस्तेमाल हो रहा है, जितना सामान सुविधाभोगी वस्तुओं को एक बार में उपयोग करके भूल जाते हैं उन सबको बार बार उपयोग करने की आदत डालना चाहिए, कैमिकल खाद्य प्रदार्थों की बजाय प्राकृतिक खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल करना चाहिए, प्लास्टिक, पालीथीन, पाली काटन जैसे सामान को कई बार रिसाइकिल करके इसतेमाल करने की कोशिश करना चाहिए। प्रदूषण के हर उस कारक को खत्म करने की बजाय कम करने की पहले कोशिश करना चाहिए। कम करने की कोशिश में प्रदूषक खत्म तो हो ही जाएगा। हम सब मै नहीं वह करे की परंपरा में अपने घर से किसी प्रयास का प्रारंभ नहीं करते, हमे यही शुरुआत करनी है, हमें अपने आसपास जल प्रबंधन, कचड़ा प्रबंधन, प्रदूषण प्रबंधन, और वस्तुओं को बार बार उपयोग करने की परंपरा को उपयोग करना है और आने वाले पीड़ी के हमसे ज्यादा समझदार बच्चों को भी यही मूल मंत्र सिखाना होगा। हम कुछ अच्छी बात और अच्छे काम के सूत्र सिखाएगें तो आने वाली पीढ़ी के बच्चे इसे अपने जीवन में अपनाएगें, समय की जरूरत है कि प्रकॄति/ धरा के बारे में चिंता, चिंतन, मनन, अध्ययन, अवलोकन, और प्रयास हर दिन हर पल हर घडी होना चाहिए।  हम आने वाली पीढियों को समय सापेक्ष प्रकृति से जुड़ने के हर मौकों में शामिल करना चाहिए। हमें उनको इस काम के लिए तैयार करना चाहिए के वो जल संरक्षण करें, वो अपने आसपास की हरियाली को नष्ट होने से बचाएं और  अधिक से अधिक  पौधों को रोप कर उनकी सुरक्षा करके वन महोत्सव जीवन भर मनाएं, हमें यह याद रखना होगा कि यदि जल है तो कल है, ठीक उसी तरह  यदि हरियाली होगी, जल की खुशहाली होगी, जीवन में दीवाली होगी, महकेंगें बाग बगीचे, लहराएगी लताएं और डालियां, प्रसन्न होकर धरती वर देगी हमारी मनुष्य प्रजाति को कि यह प्रजाति कई जनम उसके आंचल में फले फूंले, आने वाली पीढियां इसी धरा के गुणगान करके आने वाली पीढियों को धरा  पर्यावरण को सुरक्षित रखने का संदेश आजीवन देती रहें। अंतत जीवितं जीवेति धरा, यत्र तत्र युगे युगे। जीवित धरा जीवित रहे, हमारे आसपास से युग युग तक प्राण्युक्त बनी रहे।
अनिल अयान,