सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

आओ बच्चों तुम्हे दिखाए झांकी पटाखिस्तान की

आओ बच्चों तुम्हे दिखाए झांकी पटाखिस्तान की
इस बार की दीवाली भी नये रंग ले कर आ रही है। नवंबर दो हजार सोलह के आदेश जिसके तहत दिल्ली एनसीआर में पटाखों की बिक्री और भंडारण पर रोक लगाने पर आगे इस वर्ष भी जारी रखा। पटाखो के विक्रय पर रोक, पटाखों के फोड कर उत्साह जाहिर करने पर रोक, प्रदूषण के हवाले को ध्यान में रखकर इस रोक बरकरार रखा गया है। कभी कभी इन रोकों को अन्य माध्यमों से देखने का प्रयास नहीं किया जाता। न जाने कितने सवालात अंतर्मन में उठ जाते हैं। कभी दही हांडी को लेकर आदेश आ जाता है। कभी दुर्गाप्रतिमाओं और गणपति विसर्जन पर आदेश जारी कर दिये जाते हैं। कभी विदेशी पटाखों पर रोक कभी विदेशी सामानों पर रोक लगा दी जाती है। ऐसा महसूस होता है। किसी दिन प्रदूषण का हवाला देकर विभिन्न अवसरों पर आयोजित होने वाली यज्ञ और हवन पर भी रोक लगा दी जाएगी। दियों और मोमबत्तियों को जलाने में भी रोक लगा दी जाएगी। छमा सहित महसूस होता है कि किसी दिन न्यायालय द्वारा अंतिम संस्कार में जलने वाली लकडी की चिताओं को जलाने में रोक लगा दी जाएगी। क्या कभी जीव जंतुओं की बलि प्रथा पर न्यायालय रोक नहीं लगाने की सोचता। बच्चों का उत्साह जिस तरह पटाखों फुलझडियों के लिए चरम पर होता है उसको रोकना कितना सही है यह समझ के परे हैं। इतना ही नहीं व्यवसाइयों के व्यवसाय पर भी यही आलम देखने को मिल रहा है। अबतक कुल पटाखे का कारोबार लगभग सातहजार करोड रुपये का है। इसमें दीवाली पर लगभग पांच हजार करोड का कारोबार होता है, इसमें चीनी पटाखों का कारोबार दो हजार पंद्रह सोलह में नौ सौ करोड, दो हजार सोलह में पंद्रह सौ करोड और आगामी दो हजार सत्रह में पच्चीस सौ करोड का कारोबार करने की आशा रही है। इस रोक की वजह से तीस प्रतिशत लगभग नुकसान होने के आसार नजर आ रहे हैं। यह बात समझ के परे है कि दीवाली के अलावा भी हम विभिन्न अवसरों, उत्सवों में राजनैतिक, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक अवसरों पर फुलझडियों,बंबों, पटाखों का प्रयोग किया जाता है। इसके चलते कितना प्रदूषण होता है इसका मूल्यांकन करके इन अवसरों पर रोक क्यों नहीं लगाया जाता है। यदि प्रतिबंध इतना महत्वपूर्ण है तो हर जगह प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया जाता है।
हमारी सरकार बार बार यह अपील करती है कि विदेशी पटाखों और सजावटी लाइटों का उपयोग ना करें। देशी उत्पादों का प्रयोग करके देश के विकास में योगदान दें। अब यह जानने का विषय है कि हमारे देश में देशी पटाखों की स्थिति क्या है। विक्रय मूल्य कितना है। क्या आम जन उसे खरीद सकते हैं। हम दीवाली की बात करते हैं ऐसा कोई त्योहार नहीं है जिसमें हमारे देश में चीनी और जापान का सामान आयातित किया जाता है। हमारा बाजार चीन के सामानों के दम पर फायदे का गुमान भरता है। क्योंकि चीनी उत्पादोंमें तीस से पचास और सत्तर प्रतिशत तक का फायदा मिलता है और तो और गारंटी का कोई टेशन नहीं होता है। हम क्या बडे बडे मीडिया से जुडे हुए एमएलए और एमपी तक , अभिनेता और अभिनेत्रियां, बडे बडे बिजनेशमैन, और खिलाडी विदेशी माल और उत्पाद का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्रांड एम्बेस्डर बनते हैं। उनको इतना फायदा होता है, साइनिंग एमाउंट मिलता है इसका कोई जवाब नहीं है। पटाखों की बात की जाए तो विदेशी पटाखों के परे देशी पटाखों के इस्तेमाल पर क्या प्रदूषण नहीं होगा। भले ही हिंदूवादी संगढनों ने इसे वामपंथ और दक्षिण पंथ के बीच का मुद्दा बनाकर संप्रदायिक बहस का रास्ता खोलने का प्रयास किया है। किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर कोई भी धार्मिक विवेचना करने से मना कर दिया। नई दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने दो साल पहले आड और इवेन नंबरों की कारों को अल्टरनेट दिन में चलने का नियम भी लागू कर पर्यावरण को बचाने का प्रयास करने का स्वांग रचा था परन्तु उसको दोबारा इस्तेमाल नहीं लाया गया। इस फार्मूले को आगामी रूप से जमींजोद कर दिया गया। पटाखों की एम आर पी भी इस बार जीएसटी के चलते दस से पंद्रह प्रतिशत तक इजाफा किया गया है। इसके चलते मुनाफे के साथ टैक्स की बढोत्तरी के आसार पर भी सरकार के मुख पर ताला लगाहुआ है। इसके अलावा दूसरा तर्क देंखें तो क्या प्रदूषण का स्तर डीजल गाडियों के चलने में विशेषकर एक हजार सीसी से अधिक छमता वाले वाहनों के प्रयोग से बढता नहीं है। इसका भी जवाब प्रदूषण बोर्ड के पास नहींहै।
मुझे तो महसूस होता है कि हम ज्यादा तटस्थ नहीं हैं। हमारा कानून तटस्थ नहीं है। एक राज्य के लिए अलग कानून है अन्य राज्यों के लिए अलग कानून है। महानगरों के लिए कानून को सख्त कर दिया जाता है और अन्य नगरों के लिए व्यवसाइयों के साथ तालमेल बिठाकर हम नियम कायदों मेंढील दे देते हैं।  प्रदूषण बोर्ड के अनुसार दिल्ली को छ सात दिन प्रदूषण को कम करने के बाद  हवा को सांस लेने लायक बनाने की कवायद यह है। अब यह बताइये कि इस कवायद में अन्य राज्यों को क्यों नहीं शामिल किया गया है। दिल्ली में भाजपा विरोधी पार्टी का शासन है तो यह कवायद दौड में बदल दी गई। अन्य राज्यों में इस पार्टी की कृपा दृष्टि के चलते कवायद को पैदल दौड मेंबदल दिया गया। इतना ही नहीं देशी विदेशी पटाखों पर बहुत बहस की जातीहै देशी पटाखों से आवाज और धुंआ कई गुना ज्यादा निकलता है। देशी दियों को बनाने वाले भट्टे आज भी पारंपरिक तरीकों से इस्तेमाल किए जाते है। क्या इसमें प्रदूषण नहीं फैलता है। क्या इनका व्यवसायिकीकरण क्यों नहीं किया गया। इनको नई तकनीकियों का प्रशिक्षण क्यों नहीं दिया गया। ताकि ये कम लागत में अच्छे उत्पाद तैयार कर सके। हम सब देशी उत्पाद तो उपयोग करे किंतु क्या ये उत्पाद सुलभ सहज और आसानी से हर वर्ग के लिए उपलब्ध हैं। इनका जवाब किसी के पास नहीं है। मेक इन इंडिया में इस समस्या का समाधान क्यों नहीं खोजा गया है। हमारे विद्युत उत्पादों के पास इस तरह के उत्पाद क्यों नहीं पैदा किए गये जिसमें कि हम सस्ते दर से कम बिजली खर्च वाली सजावटी लाइटों का प्रयोग कर सके। पटाखा कंपनियों से पूंछिये कि क्यों उनका व्यवसाय चीनी पटाखे और बंबों के आयात होने पर प्रभावित हुआ है? इसका समाधान हमारी सरकार और न्याय व्यवस्था के पास नही है। हम देश में बार बार देशी समान उपयोग करने का राग अलापते हैं किंतु विदेशी आयात पर सरकार खुद रोक नहीं लगाती है। देशी उद्योंगों को विश्वस्तर की तकनीकि प्रशिक्षण  प्रदान नहीं करती है और दोगली दोमुही बात करके सबको खुश करने की कोशिश में लिप्त होती है। प्रदूषण को कम करना है तो पटाखों फुलझडियों और बंबों में भी वर्गीकरण करके निम्नतम प्रदूषण करने वाले उत्पाद को त्योहार की खुशी के लिए प्रतिबंध से मुक्त किया जा सकता है। ध्वनिप्रदूषण, जल प्रदूषण, और वायु प्रदूषण के मानकों की सीमा के चलते हमे दूसरे रास्तों पर भी विचार करना चाहिए। यदि नियम कायदों का आदेश हो तो हर राज्य में एक समानपालन होना चाहिए चाहे वो किसी भी राजनैतिक पार्टी से ताल्लुकात रखे। विशेषकर मुद्दा जब धार्मिक, सामाजिक, और पर्यावरण पर जाकर केंद्रित हो जाए। हर वस्तु को बंद करना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। यही नैतिक आधार होना चाहिए।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

बुधवार, 11 अक्तूबर 2017

नोटों-वोटों की दीवाली में छिपा राजनैतिक डर

नोटों-वोटों की दीवाली में छिपा राजनैतिक डर
सन दो हजार चौदह के चुनाव में मोदी सरकार का चुनावी मुद्दा अगर काला धन था तो दूसरा मुद्दा जीएसटी था, इसके साथ दुश्मनों को धूलचटाने की बात तो हम सबको भूली ना होगी। इसके साथ एक देश एक टैक्स का नारा देकर जिस तरह जीएसटी की शुरुआत हुई वो काबिले तारीफ थी। इस काबिले तारीफ काम को भाजपा ने मूल मंत्र मान कर देश में खूब प्रचार प्रसार किया। दिवाली के पहले तोहफा दे कर माननीय ने गुजरात की चांदी कर दी। और अन्य राज्यों को यह सोचने में मजबूर कर दिया कि जरूर यह दिवाली नहीं गुजरात के चुनाव का प्री गिफ्ट हैं। खाखरा और गुजराती पांपड जैसे उत्पाद में तो जिस तरह से जीएसटी में कटौती किया गया है वह वाकायै जबरजस्त निर्णय था। एक तरफ राहुल गांधी ने नवसर्जन यात्रा में जामनगर और गुजरात को फोकस करके व्यापारियों का कंधा थामा है वह भी भाजपा के लिये चिंता का विषय बना हुआ है। इसका परिणाम भी कहीं ना कहीं यह प्री गिफ्ट है। अरुण शौरी , यशवंत सिन्हा, और शत्रुधन सिन्हा जैसे मुखर नेताओं ने इन ढाई कदम वाले व्यक्तियों को केंद्र में रखकर कठघरे में खडा करने का कोई मौका हाथ से नहीं छोडे।
भाजपा की मजबूरी है कि  इन तीनों महारथियों को निंदक के रूप रखे हुए हैं।  सरकार को नोट बंदी में मनी लांडरिंग  स्कीम बताया इन न्होने। अरुण शोरी ने  जीएसटी मामले में कांग्रेसियों जैसी राय रखी। अरुण जेटली ने तो उन्हें यहां तक कह दिया कि पी चितंबरम के पीछे पीछे नहीं चलना चाहिये। यशवंत और शत्रुघन सिन्हा ने तो सरकार को हर कदम में आइना दिखाया है। अपने ही घर में सरकार से बगावत के लक्षण इनमें दिखने लगे हैं। यह बात अलग है कि इनकी बातें भी अधिक्तर काम की हो जाती है।  शिवसेना ने तो इस मुद्दे में कूद कर यहां तक बयान बाजी कर दी कि यह अब व्यापारियों का भाजपा के अंदर डर का परिणाम है। पेट्रोल की कीमतों में बढोत्तरी और जीएसटी दरों में बढोत्तरी भी गुस्से का प्रमुख वजह मानी गई। जीएसटी की मूल समस्या साफ्टवेयर भी है। इन्फोसिस को इसका प्रयोग कर पुष्टि करने से पहले ही सरकार ने रातो रात एक कर लागू तो कर दिया अब यथार्थ को भोग रही है। नोट बंदी के समय पर  दो लाख तक का सोना खरीदने के लिये पहले पैन की अनिवार्यता और अब उसके नियम में बदलाव करके जरूरत को खत्म करना कहां की बुद्धिमत्ता है यह समझ के परे है। उस समय  नोटबंदी के प्रभाव से काले धन को सोने में बदलने के लिये यह कदम उठाया गया था। क्या अब वह काला धन इस निर्णय को वापिस लेने से रुक जाएगा। अब तो ऐसा लग रहा है कि काले धन को पीला करने का रास्ता खोल दिया गया है। छ अक्टूबर के पहले वित्त मंत्री यह कह  रहे थे कि जीएसटी की वर्तमान व्यवस्था में कुछ गलत है। दीवाली के एक सप्ताह पहले ऐसा क्या हुआ कि इस इसमें खामी नजर आने लगी। इसका जवाब किसी के पास नहीं है। जिस ईबिल के लिए इतनी मसक्क्त करनी पडी उसको अभी फिलहाल टाल दिया गयाहै। ई वे बिल की व्यवस्था लागू करने के बाद ही जी एसटी का असली प्रभाव समझ में आएगा।
जनवरी में खत्म होने वाली गुजरात विधानसभा का असली तोहफा तो भाजपा को क्या मिलेगा यह तो आने वाला दो हजार अठारह साल बताएगा। नोटबंदी, जीएसटी, और मंहगाई वो जहरीले नाग हैं जो निगल चुके हैं मंहगाई लगातार बढ रही है। चुनाव के चलते  जिस तरह से भाजपा सकते में है वह जीएसटी के सूत्र को बदलाव करने के अलावा कोई रास्ता मुहैया नहीं कराता है। सूरत अहमदाबाद, जैसे औद्योगिक शहर के वोट बैंक भाजपा के लिये ज्यादा महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके जैसे कई शहर विधानसभा में समीकरण बदल सकते हैं। छॊटे और मध्यम उद्योगों के प्रति भाजपा की नीतियां जिस तरह विरोधी होती जा रही है वो भी कहीं ना कहीं पर डर का प्रमुख कारण है। विधानसभा चुनाव के फायदे के लिए कई सत्ताइस प्रकार के उत्पादों में परिवर्तन किया गया है। दूसरी तरफ पेट्रोलियम  बिजली और रियल स्टेट पर जीएसटी का कोई रोडमैप सरकार के पास नहीं है।
खेतीकिसानी वाले उत्पादों पर जीएसटी को लागू करना कपडा उद्योग को लाभ ना देना भी सरकार की कमजोरी है जो विधान सभा चुनाव में मुख्य मुद्दा बनने वाला है। जब अरुण शौरी कहते हैं कि केंद्र में गुजरात के ढाई लोगों की सरकार है तो गुजरात से मोदी सरकार और मोदी शाह की प्रीति जग जाहिर हो जाती है। गुजरात के स्टेट  ब्रेकफास्ट में जीएसटी को अठारह से पांच प्रतिशत तक लाना भी इसी गुजरात एफिनिटी का उदाहरण है। एक तरफ पटाखों को जलाने से रोकना, पटाखों पर जीएसटी को अट्ठाइस प्रतिशत करना और दूसरी तरफ दीवाली के पहले ही  जीएसटी की दरों को कम करके दीवाली का उपहार देने का ढिंढोरा पीटना । जनता सब जानती है इन सब शतरंज की चालों को। सन एकसठ की फिल्म नजराना का गीत एक वो भी दीवाली थी और एक ये भी दीवाली है उजडा हुआ गुलशन है रोता हुआ माली है। कितना मौजूं है हम सब समझ सकते हैं।
गुजरात को केंद्र मान कर जिस तरह के मूल चूल परिवर्तन किये गए हैं जीएसटी में वह तो पूराने जुमलों के प्रभाव पर पानी फेरने वाले है। पहले जो भी वायदे किये गए वो चूल्हे में चले गए। एक बार फिल चुनावी बिगुल में आम जनता को छला गया और व्यापारियों को लाभ देकर वोट बैंक को बचाने और वोट बैंक में छिपे काले धन को सफेद करने का प्रयास किया जा रहा है। नोटबंदी के बाद जीएसटी का प्रभाव सरकार और भाजपा के लिए अपेंडिक्स बन गई है। ऊपर के गाने में माली के पास ना बगीचे में आने वाली तितलियों  के लिए खाना तक नहीं है। दीवाली के जशन में पटाखों की खुशी को ग्रहण तो लगाया जा सकता है किंतु चीनी सामानों को प्रचार प्रसार करने वाले आइकान के लिए कोई प्रतिबंध सरकार के पास नहीं है। ना ही कोई दूसरा विकल्प देशज रूप से हैं। चुनावी भाषणॊं के आईकान बन चुके हमारे प्रधानमंत्री जी विकास को इतना दौडाए कि अब वह बौरा गया है। चुनाव के लिए रातोरात किए गए एक टैक्स नीतियों को परिवर्तन कर दिया गया है। नुकसान जो व्यापारियों को हुआ वह भी अब तक अंधेरे में छिपा हुआ है। सरकार के पास इन सब के लिए कोई शब्द नहीं है। परन्तु इस बात को सुनकर मन गदगद हो जाता है कि सरकार अब कृषि प्रधान देश को व्यापारी प्रधान देश मानकर उनकी दीवाली मनाने के लिए चुनावी आतुरता जिस तरह से आम जनता के सामने दिखा दी है वह वाकायै यह शाबित करता है कि दीवाली में धन वैभव उलूक वाहन के जरिए ही आती है। चाहे वह उलूक नीति ही क्यों ना हो।
अनिल अयान ,सतना
९४७९४११४०७

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

आदिकवि का स्मरण-छण

आदिकवि का स्मरण-छण
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्गमः शास्वतीः समाः।
 यत्क्रोंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितः।
संस्कृत का यह श्लोक हम सबने अपने पढा नहीं तो सुना होगा ही। आदि कवि के नाम से विख्यात महर्षि बाल्मीकि की जयंति हमने कल ही मनाई होगी। रामचरित मानस के परे भी जिस व्यक्ति ने राम के चरित्र का वर्णन किया वो व्यक्ति ही नहीं महर्षि  संस्कृत का प्रकांड विद्वान और आदिकवि बाल्मीकि ही थे। महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र वरुण और चर्षणी के पुत्र बाल्मीकि भृगु ऋषि के भाई थे। इनका दूसरा नाम प्राचेतस भी है दीमक से ढक चुके शरीर की साधना के बाद तो इन्हें दीमदूह बाल्मीकि भी कहा जाने लगा। वो ही ऐसे महर्षि थे जिनका उल्लेख सतयु़ग, द्वापर और त्रेता युग में देखने को मिलता है राम के चरित्र के साथ उनका संबंध जितना गहरा है उतना ही गहरा उनका संबंध कृष्ण के साथ भी रहा। अगर वो राम के लिए ये कहते हैं कि
तुम त्रिकाल दर्शी मुनिनाथा,
विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा।
तो कृष्ण के जीवन में महाभारतकाल में कुरुक्षेत्र के युद्ध कोजीतने के बाद जब द्रोपदी का यज्ञ सफल नहीं हो पाता तो  बाल्मीकि उसके निवेदन से आते है और अनुष्ठान पूर्ण होता है। इस घतना को कबीर ने लिखा कि
सुपच रूप धार सतगुरु जी आए।
 पांडवों के यज में शंख बजाए।
बाल्मीकि ने अंततः राम के चरित्र का वर्णन किया। राम के चरित्र कोआराध्य मान कर पूरी की पूरी रामायण उन्होने लिखी। इस रामायण में सूर्य चंद्र नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन जिस तरह किया गया है वह तो खगोल विज्ञान के जानकार को ही करना चाहिए था। बाल्मीकि का लिखा यह श्लोक आदि कविता के रूप में प्रसिद्ध भी हुआ। हम उन्हें हिंदु दर्शन के अतिरिक्त भी देख सकते हैं। हमें यह पता होना चाहिए कि आज के समय में अगर तुलसी बाबा को सब लोग जानते हैं और बाल्मीकि को तुलनात्मक कम लोग जानतेहैं तो उसके पीछे यही कुनबे बाजी जिम्मेवार है। राम को केंद्रित करके दोनों ने अपने विचार लिखे किंतु रामचरित मानस घर घर की पूजा हो गई। बाल्मीकि रामायण के तथ्य ज्यादा परंपरागत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संबंधित है।
वनवास में राम का बाल्मीकि से निर्देशन लेना और सीता के परित्याग के बाद बाल्मीकि का सीता को प्रश्रय देना लवकुश का पालन पोषण ज्ञानी बनाना भी बाल्मीकि के तेज का ही प्रभाव था। वर्तमान में जिस तरह के आचार विचार चल रहे हैं उसक चलते कबीर, रहीम, तुलसी, बाल्मीकि, और अन्य ऋषि मुनियों को कुनबों में बांट दिया गया है। किसी कवि और कलमकार का एक ही धर्म हैं वह है मानव धर्म और मानवधर्म की सेवा करना। आजकल तो इन साधू संतो और ऋषि मुनियों की जयंतियां भी इनके समाज के लोग मनाते हैं जैसे कबीर के लिये कबीर पंथी, बाल्मीकि के लिए बाल्मीकि समुदाय के लोग इनको अपने कुनबे में उठाए घूमते फिरते रहते हैं। अब सोचने वाला विषय यह है कि इस प्रकार के आयोजनों में उसी समुदाय के लोगों के द्वारा उत्तराधिकार स्थापित करना और अन्य व्यक्तियों की प्रतिभागिता से परहेज करना न्यायसंगत नहीं है। कवि लेखकम, संत पीर फकीर, औलिया अगर इस गुटबाजी से परे रखकर आस्था से जुडे हों तो लाभप्रद होते हैं। अन्यथा संकीर्ण मानसिकता के काल कपाल क्रिया में विलुप्त होते चले जातेहैं। इतने बडे कवि का आयोजन उतना ही सीमित होता है। सीमित हुआ। एक पक्ष पर बात करके उसके रचनाकर्म को एक पक्षीय बना दिया जाता है। यह वैचारिक स्वतंत्रता का हनन हैं। हम अगर इस संस्कृति के वाहक है तो हमें यह अधिकार है हम आदिकवि और अन्य पुरातन से आद्यतन कलमकार के बारे में किसी नेपथ्य के पक्ष को भी उजागर करें। यही समयपरक सार्थकता होगी।

अनिल अयान ,सतना