रविवार, 4 जून 2017

वाह रे! भारत की कृषि प्रधानता

वाह रे! भारत की कृषि प्रधानता

पिछले कुछ महीनों से देश की कृषि प्रधानता और इसका सम्मान दांव में लगा हुआ है। वजह हम सबसे अलग नहीं हैं। कभी जय जवान जय किसान के नारों से देश का किसान खुश होकर खेती किसानी करता था। आज वही किसान अपने अस्तित्व के लिये लिये जीवन संघर्ष कर रहा है। कृषि के नाम पर बतोलेबाजियों का मंच सजाया जा रहा है। कृषकों को आश्वासनों के भरोसे दिलाए जा रहे हैं। पार्टियां किसानों को वोट बैंक के रूप में बना कर अपने बैंकों में गिरवी रख चुकी हैं। तब भी हम देश के अंदर विदेशी निवेश करने की बात करके दंभ भरते हैं। जिन किसानों के दम पर राज्यों को पुरुस्कार आवंटित किये जाते हैं। वही राज्य किसानों की माली हालत के लिये जिम्मेवार होते हुए भी मौन रह जाते हैं।इस सब तथ्यों का गवाह विगत गुजरे महीनों में किसान आंदोलनों की लंबी फेहरिस्त है। हमारा अन्नदाता उपज बनाकर भी बदहाल है।सरकार की अन देखी के चलते महाराष्ट्र में इस वर्ष आंदोलन ने आग की तरह राज्य को अपने कब्जे में ले लिया। दूध से लेकर फल सब्जियां तक सडक में फेंक दिया गया। इस आंदोलन के पूर्व छत्तीसगढ में टमाटर के लिये यही संघर्ष किसानों के द्वारा किया गया था। जब टमाटर को सरकार ने पचास पैसे प्रति किलो में खरीदना शुरू कर दिया। तमिलनाडू में तो किसानों जिस आंदोलन प्रारंभ किया उसका नमूना हमने  दिल्ली तक में देखा। बैंक से ऋण माफी की मांग कर रहे ये किसान तमिलनाडू से दिल्ली तक का सफर करने के लिये मजबूर हुये। किसान आंदोलनों में तेलंगाना के किसानों ने मिर्च की फसल को आग के हवाले कर दिया ताकि उन्हें फसल के सही मूल्य मिल सके महाराष्ट्र में किसानों ने अपनी स्थितियों से निजात पाने के लिये  उग्र आंदोलन किये। साथ ही साथ अपनी उपज को सडक में फेकने का काम किया। अभी अभी मध्य प्रदेश में विशेष कर पश्चिमी मध्य प्रदेश में  फसल और उत्पाद के वाजिब दाम ना मिलने  की वजह से आर्थिक संघर्ष किया वह हमारी कृषि प्रधानता के लिये यक्ष प्रश्न खडा करता है। इंदौर उज्जैन शाजापुर मालवा धार सहित कई ऐसे जिले थे जिनके किसानों की फसलों, फलों, सब्जियों, दूध सामग्रियों को सही बिक्री करने का मौका नहीं दिया गया। सरकार की तरफ से भलेही वित्त मंत्री ने किसानों के संगठनों से अपील की संवाद करके चर्चा करके हल निकाला जाये। परन्तु सरकारों के हल किसी स्थाई निदान की ओर किसानों को  क्यों नहीं ले जाते हैं यह चिंतन का विषय है।
     किसानों को बोवाई के समय यह पता ही नहीं होता कि इस मौसम में फसल का उत्पादन कैसा होगा।कम हो या ज्यादा दोनों तरफ से किसानों की मरन हैं। ज्यादा उत्पादन होने पर किसानों के पास उचित भंडारण की व्यवस्था नहीं होती और कम उत्पादन होने पर कर्ज देने वालों और बैंको के नुमाइंदे उन्हें जीने नहीं देते है। अनुदान के नाम पर सरकारी आलाअफसर उनसे नोंचते खसोटते हैं। समाधान के लिये सरकार के पास आवश्यकतानुरूप साधारण और वातानुकूलित वेयरहाउसेस नहीं हैं। परिवहन की व्यवस्था नहीं हैं। फूड प्रोसेसिंग के नाम पर मात्र कूछ इकाइयों से उत्पादन लिया जा रहा है। फूड प्रोसेसिंग से किसानों को दूर रखा जा रहा है शायद डर है कि किसान ज्यादा आत्म निर्भर ना हो जाये। किसान और उसके परिवार के सदस्यों को जीविकोपार्जन के लिये समुचित व्यवस्था और योजना का प्रचार प्रसार सही ढंग से नहीं किया जा रहा है। हमारी सरकार के पास फूड सिक्योरिटी और प्रोसेसिंग बिल के लिये समय है परन्तु फूड प्रोसेसिंग की इकाइयों को ग्रामीण अंचलों में आवश्यकतानुसार स्थापित करने और उससे उत्पादन लेने ले लिये समय नहीं है। स्वामीनाथन जी से सिफारिशों को मांग कर फाइलों में सुरक्षित रख लिया गया है। किसानों की उपज का दोगुना दाम दिलवाने का वायदा वायदा ही क्यों रह गया। किसानों की आत्महत्याएं और आंदोलनों का प्रतिशत इतनी तेजी से क्यों बढ गया। किसान अपनी मेहनत से उगाई फसलों फलों और सब्जियों को बिना किसी उम्मीद के सडक में फेंकने के लिये क्यों मजबूर है। कृषि कर्मण अवार्ड को हासिल करने वाली सरकार आज अपने किसानों के लिये त्वरित कार्यवाही के रूप में क्या निर्णय ले रही है। हर राज्य में एक समान स्थिति पर केंद्र और राज्य सरकारें आपस में तादात्म बिठाकर एकल निर्णय लेने में अक्षम क्यों हैं। ऐसे ना जाने कितने प्रश्न हैं जो आज भी निरुत्तर ही हैं। इनके जवाब जब आकाओ के पास नहीं हैं तो किसानों के पास कैसे होगा।
     हर साल बारह से पंद्रह हजार किसान कृषि प्रधान देश की छत्र छाया में आत्महत्या कर रहे हैं।यह सरकारी आंकडे हैं व्यवहारिकता तो इससे कहीं ज्यादा है। इसके बावजूद सरकार और प्रशासन को मूल तीन कारकों पर काम करने की आवश्यकता है। जिससे खेती से पहले पहल लागत निकले और फिर लाभांश के लिये कदम बढाये जा सकें। इन कारकों उत्पादन को सही ढंग से परिवहन करके भंडारण करने ली व्यवस्था सरकार मुहैया कराये,नहीं तो ग्रामीण और कस्बाई अंचलों में पंचायत स्तर पर इन भंडार ग्रहों का  निर्माण हो। किसानों को सही मूल्य बिक्री का मिले। दूसरा मूलभूत फसलों के साथ उसको विभिन्न उत्पादों में परिवर्तित किया जा सके। फूड प्रोसेसिंग इकाइयों की स्थापना करना, श्रम के लिये किसानों के परिवारों का सहयोग लेकर उन्हें प्रशिक्षित करना, उनकी आमदनी बढाने के लिये सहयोग करना। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारक है देशी और विदेशी बाजार की उपलब्धता। इसके लिये सरकार को अपने पडोसी देशोंके साथ साथ अन्य महाद्वीपों के देशों से अच्छे संबंध बनाकर निर्यात नीति को परिवर्धित करने की आवश्यकता है। यदि यह सब सही ढंग से चलता रहेगा तो किसान की आमदनी दो गुनी से ज्यादा कई बढाई जा सकती है। वेयर हाउसेस, कोल्ड स्टोरेज, फूड प्रोसेसिंग, और अंतर्राष्ट्रीय बाजार का विपणन की तरफ सरकार को ध्यान देना होगा। वर्तमान में जैविक खेती, जैविक फसलॊं, और बायोटेक्नालाजी के अनुरूप फसल उत्पादन के लिये किसानों को अगले क्रम में उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के वितरण पर भी मंत्रालय को विचार रहा होगा।जेनेटिकली माडीफाइड फसलों को अपनाने के साथ अपने पुस्तैनी बीजों के प्रयोगों को भी प्रोत्साहित करने से कृषि प्रधानता का ग्राफ बढेगा। कांटेक्ट फार्मिंग के तहत किसान के परिवारजनों को भरपूर रोजगार और जीविकोपार्जन का अवसर प्रदान करने में सरकार को आंगे आना होगा। नाम मात्र का कर्ज माफी, अनुदान देना, जीरो ब्याज पर कर्ज की सुविधा प्रदान करना आदि कारनामें कुछ समय के लिये किसानों को आकर्षित कर सकते हैं किंतु स्थाई निराकरण नहीं प्रदान कर सकते हैं। हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिक्तर भाग, उद्योगों का अधिकतर प्रतिशत कृषि आधारित है। कृषि कृषक और कृषि प्रधानता का राजमुकुट तभी बचेगा जब किसान अपने जमीनी स्तर पर तरक्की करेंगें। उन्हीं से जल जंगल जमीन गांव खलिहान और ग्रामीण संस्कृति सुरक्षित है। किसानों को वोट मानना बंद करके सोने का अंडा देने वाली धरोहर मानेंगें तो पूरा देश तरक्की करेगा।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७

     

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