मंगलवार, 23 मई 2017

कानूनन जीवित प्राणी बनती नदियां

कानूनन जीवित प्राणी बनती नदियां
मध्य प्रदेश में हाल ही में नर्मदा नदी को जीवित इकाई मानने का संकल्प लिया है। कल ही नर्मदा सेवा यात्रा का प्रधानमंत्री जी ने समापन किया है। इस एक सौ पचास दिन की यात्रा के दरमियान नर्मदा मात्र नदी के रूप में अपने अस्तित्व के साथ साथ एक आत्मीय अस्तित्व में खुद को बदल चुकी है। साहित्य में सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना -  कदंब का पेंड और इसके अस्तित्व को सार्थक करती यह यात्रा हम सबके बीच रही। इस समूचे उपक्रम में नर्मदा के मूल चूल को परिवर्तन करने का जो जज्बा हमारे मुख्यमंत्री जी ने देखा है वह कितना साकार होता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। परन्तु यह तो इस पंच वर्षीय में हुआ ही कि नर्मदा को जीवित प्राणी का अस्तित्व मिल ही गया। जो इस सरकार के लिये उपलब्धि के रूप में अंकित हो जायेगा। शिवराज सिंह चौहान अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अपने बचपन के उन पलों को दर्शनशास्त्र से जॊडकर देखने और उसे साकार करने का काम किया है जिसका केंद्र नर्मदा नदी रही। इन डेढ सौ दिनों में नर्मदा का अस्तित्व उसकी अवधारणायें और उसकी आकांक्षाओं पर खूब चर्चायें विमर्श किये गये। बहुत से निर्णय लिये गये। बहुत से कदम उठे। जो एक विकास की बात करते नजर आये।
इसके पूर्व न्यूजीलैंड की संसद ने वहां की वांगानुई नदी को एक कानूनी व्यक्तित्व के रूप में मान्यता प्रदान की। उसके बाद उत्तराखंड ने उच्च न्यायालय ने गंगा यमुना को जीवित प्राणी मानने का कार्य किया। और कुछ हो चाहे ना हो परन्तु ये खबरें प्रकृति प्रेमियों और इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के लिये हर्ष का पल होगा। यह विषय पर्यावरणप्रेमियों को सुकून देने का काम करेगा। इधर मध्य प्रदेश में नर्मदा के लिये यह प्रयास पर्यावरण की दृष्टि से सराहनीय कदम होगा। जिसके अंतर्गत इस सरकार ने लगभग पांच सौ चालीस करोड रुपयों का बजट इस नदी के उद्गम अमरकंटक से आलीराजपुर तक उत्थान के लिये रखा है। जिसमें स्पर्श करने वाले सोलह जिलों की सीमाओं को फलौद्द्यान घने जंगलों का विकास आदि लक्ष्य रखा गया है। विरोध के उफान के बाद भी यह यत्रा अपने चरम पर पहुंच चुकी है। परन्तु इसके बाद भी यह प्रश्न बाकी है कि जीवित प्राणी का दर्जा पाने वाली नदियां किस तरह एक नागरिक की तरह अपना अस्तित्व कायम करेंगीं। किस तरह और कौन उनके अस्तित्व को बचाने वाले पालनहार का दायित्व निर्वहन करेगा।
सवाल तो कई मन में उठते हैं जिनका समाधान सरकार और कानून को खोजना होगा जिसमें सबसे बडा सवाल यह है कि नदी के अधिकार और नदी के लिये हमारे कर्तव्य कया होंगें। नदी की अविरलता को बाधा पहुंचाने वालों की क्या सजा होगी। क्या बांधों का अस्तित्व इसकी वजह से प्रभावित होगा। क्यों की बांधों की वजह से नदियों की तीव्रता और आविरलता बाधित होती है।नदी के कचडे को अलग करने के लिये क्या गंगा विकास प्राधीकरण जैसे विभागों का गढन होगा। क्या नदियों के संवैधानिक कर्तव्य और उत्तर दायित्व भी होंगें। संवैधानिक रूप से देखें तो समझ में आयेगा कि गैर मनुष्य को जीवित इकाई के रूप में मान्यता मिलती है तो उसके लिये अभिभावक निशिच्त किये जाते हैं। क्योंकि उनके लिये यह स्थिति अवयस्क की होती है। ऐसे में सरकार क्या करेगी। वर्तमान में जल प्रदूषण अधिनियम जिसमें निवारण और नियंत्रण आता है १९७४ से हमारे देश में लागू है। पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम १९८६ से लागू है। धारा ४३०-४३५ तक में जल श्रोतों को खत्म करने , उन्हें हानि पहुंचाने वाले को कडे से कडे दंड का विधान है। किंतु रेत उत्खनन से लेकर, नदी के बहाव में बाधाएं उतपन्न करने वालों की एक लंबी फेहरिस्त है। नर्मदा की ही बात करें तो राजनीतिज्ञों के भाई पट्टीदारों का पूरा समूह सक्रिय है जो रेत उत्खनन का लंबा कारोबार रात के अंधेरों में चला रहे हैं। नर्मदा का ही कई जिलों में अतिक्रमण करके प्रवाह बाधित कर दिया गया। उस समय क्या निर्णय न्यायालय द्वारा लिया जायेगा।
इतना बजट होना, उसका सही ढंग से उपयोग होना ताकि नर्मदा संरक्षित की जा सके, अमरकंटक और सतपुडा का यह अनुपम प्राकृतिक उपहार आगामी पीढी के सुरक्षित की जा सके। यह उद्देश्य अभी भी इस यात्रा के बाद अपना मुंह बाये खडे हुये हैं। क्योंकि जितना सकारात्मक सोचने वाले लोग हैं उससे कहीं ज्यादा दोहन करने वाले लोग इस जगह पर मौजूद है। तटों से संरक्षण से लेकर नदी के भयावह रूप को रोकने के लिये उपाय खोजना भी इसी सरकार का दायित्व होगा। ये एक सौ पचास दिन अगर नर्मदा के नाम को प्रचारित करने, इसके सहारे अपनी उपलब्धियों में इजाफा करके के लिये उपयोग किया गया। नर्मदा को जीवित प्राणी का दर्जा दिलाने की अप्रतिम मुहिम शुरू की गई है। तो अब आने वाले समय में सरकार को अपने नैतिक और प्रकृति के प्रति दायित्व के अंतर्गत यह करना होगा कि उपर्युक्त कानूनी और संवैधानिक सवालों के उत्तर खोजे। अपने बजट को नदियों के लाभ के लिये खर्च करे। नर्मदा के साथ साथ अन्य नदियां भी अपनी अंतिम सांस ले रही हैं। उनका संरक्षण भी अगले क्रम में होना चाहिये। क्योंकि मालवा के साथ साथ विंध्य और बुंदेलखंड भी इसी उम्मीद में चातक की तरह इंतजार में खडे हुये हैं। नर्मदा अगर अपने संघर्षरूपी अस्तित्व को इस यात्रा के परिणामों के द्वारा जीवित प्राणी बनने में अगर असफल होती है तो सबके मुंह के बोल यही होगें "शिवराज तेरी नर्मदा मैली ही रही"। परन्तु एक आश बांकी है कि नर्मदा के साथ अन्य नदियों का समय बदलने वाला है सबको जीवित प्राणी की तरह स्वतंत्रता मिलने वाली है। सुनने में जितना सुखद लगता है वास्तव में यह फैंटेसी में जीने की तरह ही महसूस होता है। अगर नदियों की अविरलता और प्रवाह बचेगा तभी वो जीवित रह पायेगीं।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७



कोई टिप्पणी नहीं: