शनिवार, 22 अप्रैल 2017

मौत को गले लगाता, हमारा मजबूर अन्नदाता

मौत को गले लगाता, हमारा मजबूर अन्नदाता
हमारा देश भी अजीबो गरीब चलचित्र बन कर रह गया है। एक तरफ देश में चमकते कांक्रीट के महानगर खडे हो रहे हैं और दूसरी ओर जय जवान जय किसान की दुंदुभी बजायी जाती है। एक तरफ देश के विकास करने और विकास दर पर गर्व किया जाता है और दूसरी ओर देश के युवा और किसान दोनो अपनी स्थिति पर रो भी नहीं पाते। हमारा प्रशासन और सरकारें यह समझने को कतई तैयार नहीं हैं कि अगर जवान और किसान तबाह हुआ तो देश के चमकते महानगर भी बर्बाद हो जायेगी। और इस तबाही को कोई रोक नहीं सकेगा। राजधानी में पीएमओ तो किसानों के एक समूह को इस तरह नजरंदाज कर दिया है मानों वो देश से उसकी आत्मा निकालकर देने की मांग कर रहे हों। ऐसा नहीं है कि यह मामला मात्र तमिलनाडू का ही बस हैं। मध्य प्रदेश का ६० प्रतिशत जिसमे बुंदेलखंड, बघेलखंड,मालवा, का क्षेत्र पंजाब, तमिलनाडू, महाराष्ट्र जैसे ना जाने कितने राज्य और उनके किसानों की दुर्दशा इस  मुद्दे का गवाह रही है। हरित क्रांति के नाम पर कुछ दशक जितने सुकून दायक थे जिसमें कि गेहूं और चावल की खेती ने अच्छा उत्पादन दिया किंतु दो हजार दस के बाद तो किसानों पर मौसम सरकार और बैंक तीनों के एक साथ कहर ढाया हैं। इसके लिये कौन जिम्मेदार है यह जितना महत्वपूर्ण है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि इस स्थिति से अपने देश के अन्नदाताओं को कैसे बाहर निकाला जाये
किसानों की खुद की सक्रियता में कमी होने के साथ सरकारों के द्वारा खराब मानसून के चलते बदहाली रोकने के लिये आवश्यक कदम ना उठाना भी इस जीवन संघर्ष का मुख्य कारण रहा। दिल्ली के जंतर मंतर में तमिल नाडु के किसान लगभग चालीस दिनों से विरोध प्रदर्शन की पराकाष्ठा को लांघ रहे हैं। प्रधानमंत्री जी तो इस मामले में ऐसे उदासीन हो गये हैं जैसे मानवता की पीडा का उनके सामने कोई महत्व नहीं रहा। किसानों के द्वारा केंद्र से लोन की माफी और मुआवजे की मांग किसी भी कोण से नाजायज नहीं है।इसी का परिणाम रहा है कि देश के अन्य राज्यों में किसान मौन आत्महत्या का रास्ता अपनाया है। और तो और सूखे की मार से तो देश की ६०-७० फीसदी खेती नष्ट हो चुकी है। खाने को अन्न और पीने को पानी की कमी ने जीवन को त्रासद मोड पर लाकर खडा कर दिया है। राज्य सरकारें तो मौन धारण की ही हुई हैं किंतु केंद्र की तरफ से इस तरह की उदासीनता मानवीय तौर पर समझ के परे हैं। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद तमिलनाडू सरकार के देरी से उठाये जाने वाले कदम की वजह से आत्महत्यायें बढ रही हैं। मध्य प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। अब देखना यह है कि क्या तमिलनाडू की तरह अन्य राज्य के किसानों को इसी तरह से कुछ करके सरकार और प्रशासन की आंख खुलवाना पडेगा या राहत के रास्ते पर सरकार चलकर अन्नदाताओं को कुछ लाभ प्रदान करेंगीं।
रिजर्व बैंक और उनके सहकारी ग्रामीण विकास बैंकों की  भूमिका इस दौरान ज्यादा बढ जाती हैं। मध्यम श्रेणी और निम्नश्रेणी किसानों के लिये योगी सरकार के द्वारा कर्ज माफी का निर्णय अन्य राज्यों के लिये एक सीख के रूप में है। मौसम की मार तो वैसे भी किसानों का जीना हराम किये हुये हैं किंतु प्रशासन और सरकार भी अपने अन्नदाताओं का ख्याल ना रखेगी तो इनका माई बाप कौन होगा। भारतीय अर्थव्यवस्था का आधे से अधिक दारोमदार खेतीकिसानी और उसके निर्यात के रूप में टिकी हुई है। अगर अन्नदाताओं की खैर ख्वाहिश ना ली जायेगी तो हम सब भूखों मरने के लिये भी विवश हो जायेंगें। आज के समय में किसानों फसल का जिस तरह मंडियों में न्यूनतम विक्रय मूल्य तय किया जा रहा वह बहुत ही चिंताजनक हैं। यह तो तय है कि रिजर्व बैंकर्स और इनकी विभिन्न साखाये भी सरकार की सहमति से किसानों के पक्ष में निर्णय लें तथा कर्ज माफी के लिये कदम उठायें तो भला हो सकता है। अति सक्रिय प्रधानमंत्री जी और उनके मुख्य सचिव के द्वारा पीएमओ के बाहर इस हृदय विदारक किसानों के विरोध का कोई प्रतिक्रिया ना देना और नजरंदाज करना वाकयै मानवीय दृष्टिकोण की धज्जियां उडाना है। किसानों की आत्म हत्या को रोकने की बजाय इस तरह का मौन उनकी मजबूरी को सरेबाजार नीलाम करने से भी बद्तर है। सुप्रीमकोर्ट के साथ अगर केंद्र सरकार साथ दे दे तो निश्चित ही राज्य सरकार तीव्रता से फैसला लेकर किसानों का भला करेगी। ऐसी उम्मीद तो जताई ही जा सकती है। अब तो किसानों के माईबापों को अपने मुखर होने का सबूत अन्नदाताओं को देना होगा।

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