बुधवार, 15 मार्च 2017

पडोसी के घर कमल खिला रे।

पडोसी के घर कमल खिला रे।
वोटों की खेती करने का गुर प्रधानमंत्री जी से सीखने लायक है। वोटों की फसल को एक तरफा काटने वाले वाली भाजपा भारतीय राजनीति में एक व्यापक बदलाव लाने में सफलता हांसिल कर निश्चित ही बहुत प्रसन्न होगी। जिस तरह कष्ट के बाद भी भारत के मौद्रिक अनुशासन पर्व विमुद्रीकरण का अस्त्र उत्तर प्रदेश के लिये फायदे का सौदा रहा। यह विमुद्रीकरण अपने प्रभाव से भाजपा की शांति प्रक्रिया के चलते वोटों के विध्रुवीकरण को अंजाम दे दिया। पूरा का पूरा ध्रुव भाजपा ने अपने पक्ष में कर लिया। अन्य राज्यों के चुनावों और वोटों की संख्या से स्पष्ट हो जाता है। कि भारतीय राजनीति निश्चित ही एक नये मोड पर खडी हुई है। इस मोड में अन्य दल अपने विकास और पतन की बाट जोह रहे हैं। और वो इसी चिंता से ग्रसित हैं कि आखिरकार कमल चुनाव चिन्ह वाली पार्टी के सामने अन्य दल कैसे बौने बन गये हैं। या यह कहूं कि मोदी-घाट में हर जात पांत के लोगों का जमावडा लग ही गया। और चाणक्य के रूप में अमित शाह अपनी राजनैतिक गुरुता को शिद्ध कर दिया और उनके किंग मेकर के प्रयासों को सफलता मिली है। तो कोई बेमानी ना होगी।
भाजपा की जीत के पीछे जितना प्रयास भाजपा के प्रयास से  संभव हुई उससे कहीं ज्यादा अन्य दलों की आपसी वैचारिक नोंकझोक और गलत सिरे का प्रयोग करके आगें बढना रहा। सपा के कुनबे के अंदर विभीषण गिरी और जनता के द्वारा उनके शासन काल में दागदार व्यवस्था,लचर कानून व्यवस्था आदि प्रमुख कारण भी रहे। कांग्रेस का विकल्प  जब जनता के सामने आया जनता ने सपा को अपनी नजरों से ही गिरा दिया। वोट तंत्र में टिकट को लेकर रामलीला और प्रत्याशियों के परिवर्तन और आंतरिक कलह तथा बसपा सुप्रीमों मायावती का ट्रंप कार्ड जिसमें मुस्लिम प्रत्याशियों को चुनावी जंग में उतारना सपा के लिये गर्त में गिराने की मुख्य वजह बन ही गई। परिवार के राजनैतिक प्रतिभागिता के बावजूद भी समाजवाद जैसे गर्त में धंस कर रह गया । उधर भाजपा ने तो इन कमियों के खिलाफ ही अपना मोर्चाखोला। काम बोलता है का जवाब उसने तो काम नहीं कारनामा बोलता है से शुरू किया। स्थानीय मुद्दों की चिंगारी से जनता के मन में सरकार के खिलाफ आग भडकाने का काम किया। बिहार की हार से भाजपा तो ठीक है अमित शाह और मोदी जी ने अच्छा खासा सबक लिया। भाजपा ने यहां तक काम के छोटे दलों अपना दल और सुलहदेव समाज की पार्टियों से काफी पहले गठबंधन करके उनके वोट बैंक भाजपा में मिला लिये। लोकल टच देने का फैसला चुनाव में भाजपा के कमल को खिलाने में खाद का काम किया। भाजपा ने गैर यादव और गैर दलित वोट बैंक को पूरी तरह अपने खाते में रखने का प्रयास किया और उसमें सफल भी रहा। देश का प्रधान मंत्री खुद राज्य में ताबडतोड रैलियां करके आक्रामकता का परिचय दिया। जिससे जातीय समीकरण के परिणाम को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। और तो और मीडिया ने इस बात को जग जाहिर कर दिया कि भाजपा भारत के अधिक्तर राज्यों प्रभावी राजनैतिक दल बन कर उभर रहा है।
२०१४ के लोकसभा चुनावों में भाजपा की ७१ सीट को उन्होने अपने खाते की तीन सौ प्लस के ऊपर ले जाकर कमल के तले मोदी- शाह युग का विकास कर दिया। उत्तर प्रदेश में संप्रदाय की लकीरों को अपना भाग्य नहीं बनने दिया साथ ही साथ ८१ प्रतिशत भाजपा सीटों ने भाजपा के इलेक्शन मैनेजमेंट सफल बना दिया। सारे कथानक जैसे भाजपा से शुरू होकर भाजपा में खत्म हो जाते हैं। अब देखना यह है कि उत्तर प्रदेश का मुख्य चेहरा कौन होता है। जिसका निदेशन मोदी जी के हाथों से होगा। राजनैतिक फसल काटने के बाद साथ में आगई खरपतवार के खतरों से भाजपा को बचाना जिसका मुख्य दायित्व होगा। हर संप्रदाय के लोगों की महत्वाकांक्षांओं को पूरा करना भी सरकार की चुनौतियां बन्कर सामने आयेगी। और अप्रत्यक्ष रूप से यह कहें तो हिंदुत्वसागर की हिलोरें अपनी तीव्रता को बढाने के लिये तीव्र अंगडाई लेंगी। बाबरी मस्जिद और राममंदिर के वैचारिक और धार्मिक मुद्दे भी अपने सवालॊं के जवाब इसी सरकार से चाहेंगें क्योंकि कहीं ना कहीं यह विषय और प्रवर्तन में इसी पार्टी से और मूल से जुडे हुये हैं। अब आने वाला समय अपने गर्भ में जिस यक्ष प्रश्न के उत्तर को खोजेगा वह है कि  किस प्रकार मोदी- शाह युग में समुदायों की अपेक्षायें, भाजपा और देश के राजनैतिक पक्ष प्रधानमंत्री जी कैसे सम्हालते हैं। जिसकी प्रस्तावना उत्तर प्रदेश से शुरू होगी। इस चुनाव के आचुके परिणाम का प्रभाव भाजपा शासित मध्य प्रदेश में देखने को अवश्य मिलेगा। क्योंकि अगले वर्ष में भाजपा शासित मध्य प्रदेश में चुनाव की दुदुंभी बजेगी। अब देखना यह है कि वर्तमान सरकार की स्थिति के चलते मध्य प्रदेश में भाजपा की परिस्थिति में यह चुनाव का परिणाम क्या प्रभाव डालता है। क्योंकि इसी के साथ साथ अन्य दलों के अगले केंद्र मध्य प्रदेश में भाजपा की सत्तारूढ स्थिति को बचाने हेतु कमल दल की चुनावी रणनीति तय होने का समय यह चुनाव ला चुका है।

अनिल अयान,सतना

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