दलित
आंदोलन बना सियासी टानिक
दलित आंदोलन की लोकप्रियता और राजनैतिक वर्चस्व सन १९५६
के धर्म परिवर्तन और अंबेडकर की मृत्यु के बाद ज्यादा देखने को मिला, इस समय ही दलित
साहित्य का नव जागरण देखने को मिला.जब राजनैतिक दखल बढा तो दलितों के लिये विश्वविद्यालय
प्रवेश और सेवा नियुक्तियों में आरक्षण के लिये एक संवैधानिक सहमति बनी आज के समय में
हमारे देश में लगभग अठारह करोड दलित हमारे देश में रह रहे हैं.जैसे जैसे दलित अत्याचार
के मामले में सजाओं का प्रतिशत घटा वैसे वैसे अपराध भी दोगुने प्रतिशत से बढ गये.दलित
अत्याचार का एक नमूना गुजरात और ऊना कांड के रूप में विगत दिनों भरपूर देखा गया. हैदराबाद
युनीवर्सिटी में रोहित वेमुला हत्याकांड भी इस अत्याचार का प्रतिनिधित्व करता है. अपनी
मौत के पहले वीसी को लिखे पत्र में इच्छा मृत्यु और दाखिले के समय १० मिलीग्राम सोडियम
एजाइड देने की सिफारिश की थी. बाद में उसके मौत को जे एन यू और अन्य विश्वविद्यालयों
ने आंदोलन के नाम पर वामपंथियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया.उसके
नाम पर मीडिया और राजनीति को खूब कैश किया गया. इतिहस के पन्नों की मुडे तो समझ में
आयेगा कि दलित आंदोलन की शुरुआत जिस तरह ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई
वो काबिले तारीफ थी. उन्होने वाकयै दलितों के लिये सराहनीय काम किये जिसमें दलितों
की शिक्षा, महिला शिक्षा,समाज में यथोचित स्थान, और दलित विश्वविद्यालय की स्थापना,
आदि प्रमुख रही,परन्तु मुख्यधारा से दलितों
को जोडने का काम बाबा साहब ने जिस तन्मयता से किया वह आज भी दलित आंदोलन के लिये बुनियाद
बन हुआ है.यूं तो बौद्ध धर्म में भी दलितों के लिये अपने स्तर पर पैरवी की थी. महात्मा
बुद्ध ने अपने समय पर इस आंदोलन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी सुनिश्चित
ही बस नहीं की बल्कि सफल भी रहे क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और आज हर धर्म में भी सत्ता का आधिपत्य हो चुका है. बाबा
साहब से प्रारंभ हुयी प्रेरणा श्रोत की फेहरिस्त आगे चलकर के आर नारायणन,संत कबीर,गाडगे
बाबा,रविदास,कबीर,जगजीवन राम, से होते हुये कांशीराम और मायावती तक पहुंच गई, प्रेरणायें
बदल गयी तो प्रभाव भी बदल गया.
दलित आंदोलन
आज के समय पर सियासत के लिये पोलियो ड्राप का काम कर रहा है. दलितों के नाम पर वोट
मांग कर उनके हक पर करारी चोट की जाती है. यह चोंट मारने का काम दलित पार्टीयों के
नेताओं के द्वारा सवर्णों की तुलना में अधिक किया जाता है. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो
ने बताया कि दलित उत्पीडन में सबसे अधिक प्रतिशत उ.प्र राज्य का है. सन २०१३ की रिपोर्ट
के अनुसार एससी.एस.टी एक्ट के अंतर्गत हर वर्ष लगभग १५ हजार घटनायें यहां दर्ज होती
हैं. इसी स्तर पर सियासत का दारोमदार बसपा के पास सबसे ज्यादा देखने को मिला. विगत
दिनों वैश्या जैसे शब्द से भाजपा के अमुक नेता ने संबोधित करने की जुर्रत भरी संसद
में बसपा सुप्रीमो के लिये कर डाला. अब तक के घटना क्रम में वैश्या से प्रारंभ हुआ
यह राजनैतिक स्टंट बेटी के सम्मान नामक खजूर के पेड से लटक गया है.अब भाजपा और बसपा
दोनो उत्तर प्रदेश में स्थित इस खजूर के पेड से उपजने वाले दलित वोट रूपी खजूर को पाने
के लिये जी जान लगाने के लिये आतुर नजर आ रहे हैं.उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस
विवाद में कूदना कहीं ना कहीं चुनाव के दौरान इस खजूर रूपी प्रसाद को पाने का लालच
मात्र है. दलित आंदोलनों की पर्याय बनी मायावती के लिये जितने दलित भेडचाल में अपना
आक्रामक रुख अपनाये हुये हैं, जिनका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है हां दलित आंदोलन और
दलित मसीहा के लिये उनसे आंदोलन के नाम पर बलिदान मांगा गया और सभी खुशी खुशी दे रहे
हैं. वैसे ही गुजरात में भी हाल बेहाल थे. दलित युवकों की पिटाई और फिर वीडियो का वायरल
होना वहां की राजनीति के लिये नाक में दम कर दिया और मानवता भी कहीं ना कहीं प्रभावित
हुई. इस मुद्दे में जिस पर गुजरात मुख्य मंत्री की चुप्पी साधे हुई थी वह उनकी हार
का प्रत्योत्तर दे रही थी.
दलितों
के लिये जिस तरह से हर राजनैतिक पार्टी की सियासत तेज है उससे ना तो समस्याओं का समाधान
होने वाला है और ना ही उन पर हो रहे जुर्म थमने वाले है.जो राजनैतिक दल इसने अधिकारों
की पैरवी करते हैं वो सब वास्तविक रूप से अधिकार दिलाने में फिसड्डी हो जाते हैं. जब
दलित पार्टियों की सरकार भी बनती है तब भी दलितों पर जुर्म ढाया जाता है. जब उनका नेतृत्व
सत्ता में विराजमान होकर कुछ नहीं कर पाता तो वर्तामन उनके लिये अधर में नजर आने लगता
है.वर्तमान में आगामी चुनाव के लिये बसपा और भाजपा दलित वोट बैंक को यूपी की जमीन में
मजबूत करने की चाल चलना शुरू कर चुकी हैं. अब बसपा यूपी में अपने स्वार्थ के लिये दलित
सूत्र को कैश करने में कोई कसर नहीं छॊड रही है. "आओ गाली - गाली खेले" की
भावनात्मक पुरवाई का भाजपा की ओर बहते देख सुप्रीमों ने दलितों की शक्ति को अपने पक्ष
में लाने के लिये कोई कसर नहीं छोड रही हैं.दलित आंदोलनों की वास्तविकता कहीं ना कहीं
राजनैतिक सांचे में ढल चुकी है.आज आवश्यकता है दलित समाज सुधारकों की समाज में उपस्थिति
की.जिनका मुख्य उद्देश्य दलित उत्थान हो ना कि राजनैतिक टानिक बनकर पार्टियों की हलक
में उतरना."आओ गाली गाली खेलें" वाला खेल तो अभी कुछ दिन खेला ही जायेगा
शायद जब तक कि वोट की फसल के लिये ये राजनैतिक खाद में ना बदल जाये.आज की परिस्थितियो
में दलित आंदोलन राजनीति का पिछलग्गू हो चुका है. जो उनके समाज के लिये लकवे से कम
नहीं है. जिससे लाभ हानि की अपेक्षा रखना बेबुनियाद है.
( लेखक युवा साहित्यकार हैं, लेखक के अपने विचार हैं)
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
दलित
आंदोलन बना सियासी टानिक
दलित आंदोलन की लोकप्रियता और राजनैतिक वर्चस्व सन १९५६
के धर्म परिवर्तन और अंबेडकर की मृत्यु के बाद ज्यादा देखने को मिला, इस समय ही दलित
साहित्य का नव जागरण देखने को मिला.जब राजनैतिक दखल बढा तो दलितों के लिये विश्वविद्यालय
प्रवेश और सेवा नियुक्तियों में आरक्षण के लिये एक संवैधानिक सहमति बनी आज के समय में
हमारे देश में लगभग अठारह करोड दलित हमारे देश में रह रहे हैं.जैसे जैसे दलित अत्याचार
के मामले में सजाओं का प्रतिशत घटा वैसे वैसे अपराध भी दोगुने प्रतिशत से बढ गये.दलित
अत्याचार का एक नमूना गुजरात और ऊना कांड के रूप में विगत दिनों भरपूर देखा गया. हैदराबाद
युनीवर्सिटी में रोहित वेमुला हत्याकांड भी इस अत्याचार का प्रतिनिधित्व करता है. अपनी
मौत के पहले वीसी को लिखे पत्र में इच्छा मृत्यु और दाखिले के समय १० मिलीग्राम सोडियम
एजाइड देने की सिफारिश की थी. बाद में उसके मौत को जे एन यू और अन्य विश्वविद्यालयों
ने आंदोलन के नाम पर वामपंथियों के शक्ति प्रदर्शन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया.उसके
नाम पर मीडिया और राजनीति को खूब कैश किया गया. इतिहस के पन्नों की मुडे तो समझ में
आयेगा कि दलित आंदोलन की शुरुआत जिस तरह ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई
वो काबिले तारीफ थी. उन्होने वाकयै दलितों के लिये सराहनीय काम किये जिसमें दलितों
की शिक्षा, महिला शिक्षा,समाज में यथोचित स्थान, और दलित विश्वविद्यालय की स्थापना,
आदि प्रमुख रही,परन्तु मुख्यधारा से दलितों
को जोडने का काम बाबा साहब ने जिस तन्मयता से किया वह आज भी दलित आंदोलन के लिये बुनियाद
बन हुआ है.यूं तो बौद्ध धर्म में भी दलितों के लिये अपने स्तर पर पैरवी की थी. महात्मा
बुद्ध ने अपने समय पर इस आंदोलन का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भागीदारी सुनिश्चित
ही बस नहीं की बल्कि सफल भी रहे क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और आज हर धर्म में भी सत्ता का आधिपत्य हो चुका है. बाबा
साहब से प्रारंभ हुयी प्रेरणा श्रोत की फेहरिस्त आगे चलकर के आर नारायणन,संत कबीर,गाडगे
बाबा,रविदास,कबीर,जगजीवन राम, से होते हुये कांशीराम और मायावती तक पहुंच गई, प्रेरणायें
बदल गयी तो प्रभाव भी बदल गया.
दलित आंदोलन
आज के समय पर सियासत के लिये पोलियो ड्राप का काम कर रहा है. दलितों के नाम पर वोट
मांग कर उनके हक पर करारी चोट की जाती है. यह चोंट मारने का काम दलित पार्टीयों के
नेताओं के द्वारा सवर्णों की तुलना में अधिक किया जाता है. नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो
ने बताया कि दलित उत्पीडन में सबसे अधिक प्रतिशत उ.प्र राज्य का है. सन २०१३ की रिपोर्ट
के अनुसार एससी.एस.टी एक्ट के अंतर्गत हर वर्ष लगभग १५ हजार घटनायें यहां दर्ज होती
हैं. इसी स्तर पर सियासत का दारोमदार बसपा के पास सबसे ज्यादा देखने को मिला. विगत
दिनों वैश्या जैसे शब्द से भाजपा के अमुक नेता ने संबोधित करने की जुर्रत भरी संसद
में बसपा सुप्रीमो के लिये कर डाला. अब तक के घटना क्रम में वैश्या से प्रारंभ हुआ
यह राजनैतिक स्टंट बेटी के सम्मान नामक खजूर के पेड से लटक गया है.अब भाजपा और बसपा
दोनो उत्तर प्रदेश में स्थित इस खजूर के पेड से उपजने वाले दलित वोट रूपी खजूर को पाने
के लिये जी जान लगाने के लिये आतुर नजर आ रहे हैं.उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस
विवाद में कूदना कहीं ना कहीं चुनाव के दौरान इस खजूर रूपी प्रसाद को पाने का लालच
मात्र है. दलित आंदोलनों की पर्याय बनी मायावती के लिये जितने दलित भेडचाल में अपना
आक्रामक रुख अपनाये हुये हैं, जिनका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है हां दलित आंदोलन और
दलित मसीहा के लिये उनसे आंदोलन के नाम पर बलिदान मांगा गया और सभी खुशी खुशी दे रहे
हैं. वैसे ही गुजरात में भी हाल बेहाल थे. दलित युवकों की पिटाई और फिर वीडियो का वायरल
होना वहां की राजनीति के लिये नाक में दम कर दिया और मानवता भी कहीं ना कहीं प्रभावित
हुई. इस मुद्दे में जिस पर गुजरात मुख्य मंत्री की चुप्पी साधे हुई थी वह उनकी हार
का प्रत्योत्तर दे रही थी.
दलितों
के लिये जिस तरह से हर राजनैतिक पार्टी की सियासत तेज है उससे ना तो समस्याओं का समाधान
होने वाला है और ना ही उन पर हो रहे जुर्म थमने वाले है.जो राजनैतिक दल इसने अधिकारों
की पैरवी करते हैं वो सब वास्तविक रूप से अधिकार दिलाने में फिसड्डी हो जाते हैं. जब
दलित पार्टियों की सरकार भी बनती है तब भी दलितों पर जुर्म ढाया जाता है. जब उनका नेतृत्व
सत्ता में विराजमान होकर कुछ नहीं कर पाता तो वर्तामन उनके लिये अधर में नजर आने लगता
है.वर्तमान में आगामी चुनाव के लिये बसपा और भाजपा दलित वोट बैंक को यूपी की जमीन में
मजबूत करने की चाल चलना शुरू कर चुकी हैं. अब बसपा यूपी में अपने स्वार्थ के लिये दलित
सूत्र को कैश करने में कोई कसर नहीं छॊड रही है. "आओ गाली - गाली खेले" की
भावनात्मक पुरवाई का भाजपा की ओर बहते देख सुप्रीमों ने दलितों की शक्ति को अपने पक्ष
में लाने के लिये कोई कसर नहीं छोड रही हैं.दलित आंदोलनों की वास्तविकता कहीं ना कहीं
राजनैतिक सांचे में ढल चुकी है.आज आवश्यकता है दलित समाज सुधारकों की समाज में उपस्थिति
की.जिनका मुख्य उद्देश्य दलित उत्थान हो ना कि राजनैतिक टानिक बनकर पार्टियों की हलक
में उतरना."आओ गाली गाली खेलें" वाला खेल तो अभी कुछ दिन खेला ही जायेगा
शायद जब तक कि वोट की फसल के लिये ये राजनैतिक खाद में ना बदल जाये.आज की परिस्थितियो
में दलित आंदोलन राजनीति का पिछलग्गू हो चुका है. जो उनके समाज के लिये लकवे से कम
नहीं है. जिससे लाभ हानि की अपेक्षा रखना बेबुनियाद है.
( लेखक युवा साहित्यकार हैं, लेखक के अपने विचार हैं)
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
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