मंगलवार, 7 जून 2016

कांक्रीट बनते जंगल..कैसे मनाये मंगल

कांक्रीट बनते जंगल..कैसे मनाये मंगल
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनिचे।
ब्रहं प्रज्ञा च मेघां च त्वयं नो देहि वनस्पते।
स्कंध पुराण का यह श्लोक हमारी पर्यावरण की चिंताओं को मुक्ति प्रदान करने का हल सुझाता है।इस श्लोक से स्पष्ट हो जाता है कि हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, वैज्ञानिक ज्ञान प्रज्ञा और धारण शक्ति प्रदान करें! वनस्पति को पालन पोषण करने से वो हमे पूर्णांक से भर देगी।जब कभी यह सुनने में आता है कि पर्यावरण का संतुलन बिगड रहा है, असंतुलन का प्रतिशत लगातार बढ रहा है. तो महसूस होने लगता है कि तटीय इलाकों के डूबने का वक्त आगया है. आज नहीं तो कल यह होना ही है. सत्तर प्रतिशत के ऊपर का भाग जब जल से पर्याप्त हो तो हम धरती वासी जलमग्न होने से कौन बचा सकता है. ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव लगातार धरती को गर्म कर रहा है. औसतन धरती का तापमान पांच से सात डिग्री सेल्सियस लगातार बढ रहा है.तब हमारा खेवनहार कौन होगा. क्या ग्लोबल वार्मिंग के द्वारा हम सब लील लिये जायेगें, तो हमारे पास एक ही उत्तर मिलता है जिस प्रकार आशोक सम्राट अंततः बुद्ध की शरण में जाना उचित समझा था उसी तरह हम मनुष्यों को वृक्ष की शरण में जाना होगा. और यह वृक्ष समुदाय ही हमारे पालनहार बनेंगें.वन संरक्षण से हमें पर्यावरण के साथ साथ चौतरफा सुधार महसूस होगा. वन संपदा जीवन को विकसित और बेहतर बनाने के लिये कारगर अस्त्र बनकर हमारा साथ देगी.
       सन उन्नीस सौ बहत्तर में स्टाकहोम में जब पर्यावरण सम्मेलन हुआ तो उस समय ही इसे संरक्षित करने की पहल पूरे विश्व में प्रारंभ की गई.उस सम्मेलन से आज तक लगभग इक्कीस सम्मेलन हो चुके हैं परन्तु आज तक ना पर्यावरण को एक यूनिट माना गया. ना ही पर्यावरण को बचाने के लिये पूरे विश्व में संयुक्त प्रयास किये गये. जब अंतिम बार पेरिस में दिसम्बर दो हजार पंद्रह को सम्मेलन हुआ तो भी इस बात से पूरी दुनिया को चेताया गया कि हम ग्लोबल वार्मिंग के प्रथम चक्र में प्रवेश कर चुके हैं. विकसित देशों के पास हमारे पर्यावरण के वसीहत बपौती के रूप में गिरवी रखी हुई है. इनकी आवाज बैठकों में एक तूती की तरह होती है परन्तु दीर्घकालिक परिणाम देने में ये विकसित देश कई गुना पीछे होते जा रहे हैं. उदाहरण के लिये भारत को कोयले के उत्पादन में रोक लगाने और उपयोग में पाबंदी लगाने की बात पर्यावरण सम्मेलनों में विकसित देशों के द्वारा की जाती है. वही दूसरी तरफ अमेरिका हमें थर्मल उर्जा  टेक्नालाजी को खरीदने का दबाव बनाता है. विकसित देशों की यही गाथा हमारे साथ चली आ रही है. उनका दोगला व्यवहार कहीं ना कहीं गरीव और मध्यम श्रेणी के देशों में लगातार जारी है. दोगला चरित्र रखने वाले देश कहीं ना कहीं पर्यावरण की विश्वव्यापी मुहिम को बट्टा लगाने में लगे हुये हैं.हम कांक्रीट के जंगल बना रहे हैं. हरे पेड पौधों की जगह हम कांक्रीट बिछाते जा रहे हैं. कांक्रीट का मकडजाल हम सबको चक्रव्यूह में फंसाता जा रहा है. उद्योगों में पर्यावरण प्रदूषण जन्म ले रहे हैं पर्यावरण विभाग का प्रदूषण मानक जंग खा रहा है. जंगलों की स्थिति और दयनीय होचुकी है.हम इस मुहिम के लिये विदेशों पे निर्भर हो रहे हैं और अपने देशज उपायों को भूल चुके हैं. हमारे देश में ही पर्यावरण को बचाने के कई दॆशज रास्ते विद्यमान हैं हमें बस खुली आंखों से इन्हें पहचानने की आवश्यकता है.
      आज विश्व में कार्बन भंडारण और कार्बन फूटप्रिंट की नई अवधारणा चलन में आ चुकी हैं परन्तु हमारे देश में पीपल,बरगद,नीम जैसे पेड इसी काम को वर्षों से करते चले आ रहे हैं.पीपल और बरगद का एक पेड दो से तीन टन कार्बन का भंडारण करता है जो कार्बन डाई आक्साइड की दस गुना अधिक मात्रा को वातावरण में जाने से रोकता है.इस तरह हम कार्बन डाई आक्साइड को ग्रीन हाउस प्रभाव उतपन्न करने से जाने अनजाने रोक लेते हैं. पूर्व काल में इसीलिये वन देवी के रूप में पीपल, नीम ,बरगद की पूजा की जाती रही है और हर गांव में इसको विकसित करने की प्रथा प्रारंभ किये हुये थे.हमारे धर्म ग्रंथों में भी वृक्षॊं के महत्व के बारे में विस्तृत वर्णन देखने, पढने, और सुनने को मिलता है, हमें सिर्फ अनुशरण करने की आवश्यकता है.शासन प्रशासन के साथ मिल कर यदि हमे यदि पर्यावरण को बचाना है और संतुलित करना है तो हम सबको अनवरत वृक्ष लगाना होगा.जंगलों के कांक्रीटीकरण को प्रतिबंधित करना होगा. हमें नहीं भूलना चाहिये कि हमें या तो जंगलों में जीवन को संरक्षित करना होगा या फिर जंगली जीवन के लिये तैयार होना पडेगा. हमें पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने के लिये वृक्षं शरणं गच्छामि के मूल मंत्र को गांठ बांधना होगा. तो फिर चलों पौधे लगाये अपने आसपास ही सही.
अनिल अयान सतना

९४७९४११४०७

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