बच्चे
बन रहे हैं कलमघिस्सू ( मैकाले)
मार्च के पहले सप्ताह से सभी विद्यालयीन बच्चों की बोर्ड
परीक्षायें प्रारंभ होने वाली हैं। बच्चे रटन्तविद्या का उपयोग परीक्षा करके की कापियां
भरने के लिये तैयार है। यह हमारी परंपरा रही है कि हमारे शिक्षा के परमात्मा और अंग्रेजों
के भारत में अंतिम वंशज लार्ड मैकाले ने जो क्लर्क बनाने के लिये शिक्षा की पालिसी
छॊड गये थे वो आज भी हमारे द्वारा उपयोग की जा रही है। हमने कभी भी बदलाव करने की नहीं
सोची। क्योंकि हमने हमेशा से ही पका पकाया हजम करने की आदत डाल रखी है। बच्चे साल भर
एक बने बनाये पाठ्यक्रम के सांचे में अपने आप को ढालते हैं और बने बनाये फ्रेम की परीक्षाओं
में प्रश्नपत्र हल करके अच्छे से अच्छे नंबर प्राप्त करके अपना रिजल्ट बनाते है।वो
कभी भी किताबी ज्ञान के बाहर से अनुभव लेने की नहीं सोचते हैं और ना ही उन्हे फुरसर
है। शिक्षा विभाग ही परीक्षायें करवाता है और विद्यालयीन शिक्षा में बच्चे अव्वल आते
हैं। परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य है कि यही विभाग आगामी नौकरी के लिये भी दोबारा परीक्षायें
करवाता है नौकरी दिलवाने के लिये भी। अब सोचने की बात यह है कि यदि शिक्षा विभाग एक
बार परीक्षा करवाकर बच्चों का मूल्यांकन करवाता है तो दो बारा परीक्षा करवाने की आवश्यकता
क्यों होती है। सभी जब परीक्षाओं में सफल हैं तो नौकरी पाने के लिये दोबारा परीक्षा
करवाने का क्या औचित्य है। इसका जवाब किसी ने आज तक खोजने की कोशिश नहीं की।
लार्ड मैकाले
ने अपने शासन काल के दौरान भारतीयों को शिक्षित करने की कवायद इसलिये की ताकि वो अंग्रेजी
शासन में अग्रेजी अधिकारियों के अधीनस्थ प्रशिक्षित होकर कार्य कर सकें और उनके सामने
सिर उठाने के काबिल ना हो सकें। मैकाले ने उस समय लोगो कों सिर्फ कलम घिसने वाला क्लर्क
ही बनाने की पहल की। आज भी हम यही काम कर रहे हैं। आज भी बच्चे उसी फ्रेम में परीक्षायें
देकर वेल ट्रेंड (बहुप्रशिक्षित) बन रहे हैं। परन्तु दंश यह है कि हम उन्हें वेल एडूकेटेड
अर्थात शिक्षित बनाने का दुःस्वप्न देख रहे है। हमारे बच्चे शिक्षा को याद करके जीवन
में उतारना चाहते है। परन्तु क्या रटने से हम किसी विषय या बिंदु को आत्मसात कर सकते
हैं? शायद नहीं क्योंकि समझने की प्रक्रिया याद करने की प्रक्रिया से बिल्कुल भिन्न
है। आज के समय में शिक्षा पालिसी जितना दोषी है उतना ही दोषी आज के अभिभावक हैं आज
के समय में अभिभावक भी रिजल्ट ओरियेंटेड हो चुके हैं उन्हें बच्चों के नालेज ओरियेंटेड
होने से कोई सरोकार नहीं है। वो रिजल्ट खुलने के दिन अपने बच्चे का नाम मैरिट लिस्ट में सबसे ऊपर देखना चाहते है। वो चाहते हैं कि हमारा
बच्चा १०० प्रतिशत रिजल्ट लेकर आये भले ही वो परीक्षा के बाद वो उस रटे रटाये उत्तरों
को भूल जाये। इस उद्देश्य के लिये बच्चों पर अनावश्यक दबाव होता है। ये दबाव विद्यालय,
शिक्षक, समाज से अधिक अभिभावको का अधिक होता है। वो समाज में अपने स्तर को ऊँचा उठाने के लिये बच्चे के परीक्षा
परिणाम को स्टेटस सिंबल बना कर देखते हैं। बोर्ड परीक्षाओं में यह सबसे ज्यादा देखा
गया है। जो बच्चे के भविष्य के हिसाब से कदापि सही नहीं होता है। इस दबाव के चलते बच्चों
को आत्महत्या तक करनी पड़ जाती है। हमें बच्चों को यह समझाना होगा कि रिजल्ट कैरियर
के लिये एक अहम पहलू हो सकता है परन्तु वह इतना भी अहम नही है जितना की ज्ञान। इसलिये
बच्चों को रिजल्ट के साथ साथ ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिये ताकि वो अपने ज्ञान के दम
पर जीवन यापन कर सके। परीक्षाओं के दौरान एक मानसिक बीमारी एग्जाम फियर को भी हम नकार
नहीं सकते हैं।
हमें यह
नहीं भूलना चाहिये कि बच्चा यदि ज्ञानवान है और उसका रिजल्ट कुछ कम भी है तो वो अपने
ज्ञान के दम पर अच्छे मुकाम तक पहुंच सकता है। हमारा ज्ञान हमारी सफलता को हमारा पीछा
करने के लिये मजबूर कर देती है। नौकरी में दो प्रकार से लोग सेवाए देते हैं। एक जुगाड
से (सोर्स से) और दूसरा ज्ञान से (रिसोर्स से) पहले किस्म के लोगों को हमेशा जुगाड
की आवश्यकता होती है और दूसरे किस्म के लोगों को हमेशा अवसर खुद बखुद मिल जाते हैं।
इसलिये रिसोर्स की तरफ बच्चों को जाना चाहिये। लार्ड मैकाले के फ्रेम से निकल भारतीय
शिक्षा दर्शन की तरफ भी शिक्षा विभाग को जाना चाहिये जिसमें गांधी की बुनियादी शिक्षा
और स्वामी विवेकानंद की मानव निर्माण की शिक्षा अपने में विशेश स्थान रखती है। शिक्षा
विभाग को चाहिये कि वो शिक्षा पालिशी को बदले और परीक्षा प्रणाली को भी समय की मांग
के अनुसार परिवर्तित करे ताकि बच्चे वेल एडूकेटेड होकर समाज में जायें ना कि वे ट्रेंड
होकर। हम उन्हें नौकर ना बनायें एक अच्छा व्यवसायी बनायें। सरकार की शिक्षा नीतियों
से सरोकार रखने वाले एनसीईआरटी,एनसीटीई,सीबीएसई,आईसीएसई,माध्यमिक शिक्षा मंडल जैसे
राज्य के बोर्डों से उम्मीद की जाती है कि इस तरह की परीक्षा प्रणाली में नवाचार शामिल
करके बच्चों को कलम घिस्सू बनाने से देश को बचायें। पुरानी परंपरागत शिक्षा व्यवस्था
को पोस्टमार्टम करके नवीनीकृत रूप में ढालने की आवश्यकता है। बच्चों का मूल्यांकन परीक्षा
नामक हौआ से नहीं बल्कि लगातार रूप से सर्वांगीण होना चाहिये। हमें ध्यान रखना चाहिये
कि हम अभिभावक यदि अपने बच्चे को यह समझाये कि जीवन है तो परीक्षा है सफलता और असफलता
सिर्फ पडाव है और इसके अलावा कुछ नहीं तो बच्चों की इस अनावश्यक दबाव वाली आत्म हत्यायें
जरूर घटेंगीं।
अनिल अयान,सतना
९४७९४११४०७
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