शनिवार, 23 अप्रैल 2016

पानी बिन सब सून

पानी बिन सब सून
जल स्रोत सूख चुके हैं. प्यास बढती जा रही है. प्यास बुझाने वालों का पानी खत्म हो चुका है. जिनको जल आपूर्ति की व्यवस्था सौंपी गई थी वो आज कर अपनी व्यवस्थाओं में मग्न हो चुके हैं. त्राहि त्राहि चारो ओर मची हुई है.ऐसा लग रहा है कि गर्मी का विकराल रूप सभी के अंदर का पानी खतम करके ही चैन लेगा. देश के ३५ फीसदी क्षेत्र ऐसे हैं जहां वर्ष भर पानी की त्राहि त्राहि बनी रहती है.बारिस ने हर मौसम की तरह खुद को बदल लिया है. जल संकट किसी आपातकालीन संकट से कम नहीं है.इस समय की स्थिति को देखकर ऐसा लग रहा है कि जल जंगल जमीन खतरे में होते हुये भी सरकार की पानीदारी विलुप्त हो चुकी है. एक जगह पर रेलगाडी से पानी की जल ट्रेन भेजने से बस जिम्मेवारी से उऋण होने का भ्रम सरकार ने पाल रखा है. मुझे एक लतीफा इस समय पर बहुत ही मौजूं है " एक नाती अपने बाबा से पूंछता है कि बाबा हमारा देश कितना विकास किया है? बाबा हंसते हुये जवाब देता है छोरे हमारे देश ने विकास ही तो किया है पहले हम पानी एक कोस से कम दूरी पर पैदल लाते थे. कुछ समय के बाद हमारे छोरों ने पानी बैलगाडी से लाना शुरू कर दिया. उसके बाद साईकिल और मोटर साइकिल से पानी लाया गया. अब टैंकर से पानी की सप्लाई की जा रही है. सरकार ने इस बार तो पानी के लिये ट्रेन चलवा दी. आने वाले समय में हवाई जहाज में हमारे यहां पानी आया करेगा. यह हमारे देश का विकास ही तो है." सच है,हमारा देश कितना विकास कर लिया है. पानी का स्टैंडर्ड भी कितना जल्दी आम से खास और अब तो वीवीआईपी के जैसे हो गया है. पानी के लिये तो हाई टेक पुलिस भी लगा दी जाती है.ऐसा लगता है ऐसा लगता है कि आपात काल की तरह एक दिन  सेना भी ना कहीं बुलवा ली जाये. पानी के लिये लिखे गये सभी उक्तियां और मुहावरे हमें चिढा रहे हैं. लोककथाये हमें सचेत करती रह गई हैं परन्तु हम सुधर नहीं सके. हम अपनी आदतों से मजबूर हो चुके हैं. हमारी आलीशान और सुविधायुक्त जीवनशैली ही हमारे लिये घातक सिद्ध हो रही है. यही वजह है कि प्रकृति का संतुलन पूरी तरह से बिखर चुका है. जब गर्मी होनी चाहिये तब गर्मी नहीं पडती या बहुत ही ज्यादा पडती है. बरसात में बारिस नहीं होती या फिर बाढ की स्थिति बन जाती है. पेड पौधों से हमारा जुडाव पूरी तरह से खत्म हो चुका है. हम आजके समय में मानव निर्मित आर्टीफिशियल पेड पौधों और सजावटी फूलों से अपने दिल को बहलाने के आदी हो चुके हैं.
यह तो सच है कि सरकार के मत्थे कुछ भी नही होने वाला जल को बचाने के लिये हमारे अंदर पानीदारी की आवश्यकता है.हम भी पानी के होने पर अलाल हो जाते हैं जल संकट भुला कर खूब मजे करते हैं. पहले कहा जाता था कि पानी पर लकीरें खींचना नामुमकिन हैपरन्तु आजकल तो राज्यों ने जल स्रोतों पर भी सीमा रेखायें खींच ली हैं.कुछ दिनों पूर्व दिल्ली के जल संकट और उस पर अन्य राज्यों की प्रतिक्रिया को हम नहीं भुला सकते हैं.परन्तु कभी कभी मेरे जेहन में ख्याल आता है, कि मै कैसे स्वीकार करूं कि पानी का अकाल उत्सव मनाया जा रहा है. एक तरफ पानी की त्राहि त्राहि का हो हल्ला है. दूसरी तरफ पैकेज्ड पानी धडल्ले से बाजार में बंट रहा है. मम के पाउच और रेल नीर,बिसलरी, जैसे उत्पाद क्या इसके परे की दुनिया से आते हैं. बडे बडे उद्योगों के लिये क्या जल संकट नहीं है? क्या उनके लिये विशेष जल श्रोतों का इंतजाम सरकार के द्वारा किया गया है. क्या ये सब सरकारी दामाद हैं जो आम जनता से ज्यादा भारत की सुविधाओं के हकदार हैं? आज के समय में पुरातन जल स्रोत मर चुके हैं.बावलियां,गहरे कुएं,प्राकृतिक जल स्रोत आत्म हत्या कर चुके हैं. एक समय हुआ करता था कि इस तरह के विरासती स्रोत एक गांव नहीं बल्कि कई गावों की प्यास बुझाने के लिये काफी हुआ करते थे. इनकी पूजा होती थी. ताकि इनके जल स्तर पर देवी देवताओं की कृपा दृष्टि बनी रहे. परन्तु आज ये सब विलुप्त प्राय हो चुके है. हमारे बाजारवाद ने इन्हें दफन कर दिया है. रही बात ट्यूब वेल जैसे आधुनिक स्रोतों का तो  ट्यूब वेल के पाइपों से प्राकृतिक जल स्रोतों का मिलाप संभव नहीं हो पाता है. वारिस तो ईद का चांद हो चुकी है.ऐसे में जल संकट तो पैदा ही होगा. मै यह सोचता हूं की खाये अघाये लोगों के लिये पानी क्या हूर की परी इस गर्मी में आपूर्ति करती हैं. या फिर पानी के उद्योग इन्ही के यहां की बपौती है. हमारे देश में आम जन के लिये जल संकट मुख्य मुद्दा है. खास और खास म खास लोगों के लिये यह तो बहुत लाजमी समस्या है. यह अंतर खत्म होना चाहिये. तभी सभी को रोटी कपडा मकान और पानी बराबरी से मिलेगा. यह अमीरी गरीबी का अंतर पानीदारी को खत्म करने के लिये काफी है. रहीम दास जी ने सही लिखा है." रहिमन पानी राखिये, पानी बिन सब सून।पानी गये ना ऊबरे, मोती मानुष चून।" इसमें तो कोई दो राय नहीं है पानी को बचाने के हमें अगर दस कदम चलना है तो सरकार को हमारे साथ नब्बे कदम चलना ही पडेगा. अन्यथा हमारी स्थिति उस चकवे की तरह हो जायेगी जिसके आस पास पानी तो होता है परन्तु वो स्वाति नक्षत्र में बरसने वाले पानी  की एक बूंद के लिये प्यासा अपनी उम्र गुजारता है.
पानी को बचाने के लिये हमारी इच्छा शक्ति की आवश्यकता बहुत जरूरी है. कुछ दिन पूर्व ही विश्व धरा दिवस हम मना चुके हैं. पूरा देश इस चिंतन में व्यस्त है कि धरती का तापमान बढने से कैसे रोका जाये. पानी की आवश्यकता लगातार बढ रही है. पूरे विश्व में जिस पानी की आवश्यकता है वह पीने लायक नहीं है. मृत सागर इसी का प्रसिद्ध उदाहरण है. पानी के संग्रहण के बारे में हमें खुद ही आगें आना होगा. पहले के समय में सोख्ता पिट बनाते थे. इन्हें दोबारा शुरू करने की आवश्यकता है.बावलियां.राजों रजवाडों के समय के कुएं, और अन्य जल श्रोतो के और ज्यादा गहरीकरण की आवश्यकता है. नदियां, और अन्य बडे तालाबों के रखरखाव को ज्यादा वरीयता से देखने की आवश्यकता है. दूसरी तरफ जल आपूर्ति परियोजनाओं को सरकार के द्वारा कम से कम समय में जनता के लिये उपलब्ध कराना चाहिये.जलावर्धन योजनाओं,,बाणसागर परियोजनाओं जैसे अनेकों योजनाये हैं जिसके पूर्ण होने पर प्यास बुझाई जा सकती है. परन्तु इनके अधूरे होने पर कहीं ना कहीं सरकार ही दोषी है. पानी के लिये अलग से विभाग और मंत्रालय है परन्तु उसमें आने वाले फंड की उपयोगिता सिर्फ धरती को छलनी करने तक ही सीमित है. जिन नदियों के दम से शहरों को जल आपूर्ति की दावेदारी विभाग द्वारा की जाती है वो उन्ही नदियों को पोषण नहीं दे पा रहे हैं. सफाई से लेकर इंबैंकमेंट तक की कोई व्यवस्था नहीं हैं नदियों के गहरीकरण तो होता नहीं परन्तु नदियों के आसपास की बालू को बेंच करके उथला बनाने षडयंत्र तेजी से जरूर चल रहा है. हमारी सरकार के दावे सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं परन्तु गहराई से देखने से समझ में आता है कि पूरी की पूरी व्यवस्थायें ही चरमराई हुई है..जिस नांव में बैठकर दावे किये जाते हैं उसी नाव में रोज छेद किये जाते हैं ताकि लीक प्रूफ की खरीद फरोक्त करके सबको बेवकूब बनाया जा सके .. इस तरह की आदतों से आला अफसरों को बाज आना चाहिये. संयुक्त संरक्षण और जल श्रोतों के उन्नयन से ही हम पानी को भविष्य के बचा सकते हैं. अस्थिर पर्यावरण के दंश से बचने के लिये हम सबको एक साथ कदम बढाना ही होगा. हमें यह स्वीकार करना होगा कि यदि हम चाहते हैं कि गर्मी सर्दी को अपने स्तर तक सीमित किया जाये तो हमें अपने पर्यावरण को स्थानीय स्तर से सुधार करना होगा. जल स्तर बनाने के लिये हमारे पूर्वजों के द्वारा प्रदान किये गये जल स्रोतों को नवीनीकृत करने के साथ साथ खुद भी नए स्रोतों को निर्मित करके आगामी पीढी के लिये सुरक्षित रखना होगा तभी पानी के साथ यह जग भविष्य में सुरक्षित रह पायेगा.
अनिल अयान.सतना
९४७९४११४०७

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