सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

‘आप’ के सपनों की दिल्लीc





‘आप’ के सपनों की दिल्ली
बनारस की हार का परिणाम दिल्ली में आ चुका है। दिल्ली को नया मुख्यमंत्री मिल चुका है।दिल्ली ने जिस तरह आम आदमी पार्टी को बहुमत दिया है वह अद्वितीय है।शपथ लेने के समय में जिस तरह अरविंद केजरीवाल बोल रहे थे उससे साफ लग रहा था कि वो अपने किये चुनावी कुम्भकर्णी वायदों को पूरा करने से डरने लगे हैं।उन्होने दिल्ली वासियों को अर्धशतकीय वादों के जहाज में चढा कर अपनी सत्ता तो हासिल कर लिया पर उनकी आपूर्ति कहीं ना कहीं चक्रव्यूह के समान उनके सामने खडी हुई है। एक बार दिल्ली में सत्ता में काबिज होने के बाद लोकसभा चुनाव की मृग मारीचिका ने उन्हें दिल्ली की जनता और भाजपा के चुनावी निगाहों में गुनहगार बना दिया था।उनकी बुराई ,उनके ऊपर शब्द कटाछ ,और खूब व्यंग्य बाण छोडे गए। परन्तु केजरीवाल जी ने अपने संयम को कायम रखा।जब उसके दो कदवार राजनीतिज्ञ भाजपा में शामिल हुए तब भी वो अपना संयम बनाये रखे।जब उनके ऊपर काले धन का वार हुआ तब भी वो संयमित होकर अपनी जुबान में लगाम रखे।उस समय दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे वास्तविक जनसंघी याद आगये।
उसी समय भाजपा के दो महापुरुष सवाल पे सवाल और उत्तेजित होते नजर आये।जितनी ताकत भाजपा ने दिल्ली की जीत के लिये लगाई उसका परिणाम दिल्ली की जनता ने दे दिया। जनता ने बता दिया पार्टी के यदि कदवार उम्मीदवार नहीं है तो भगोडे उच्च कद के उम्मीदवार को भी जनता स्वीकार नहीं करेगी।जनता ने जिस तरह केजरीवाल जी को क्षमा दान देकर कुर्सी दान दिया वह दिल्ली के सांस्कारिक होने का पुख्ता सुबूत है।अब सवाल यह है कि भाजपा की कुंभकर्णी नींद इस हार से खुलेगी।उस को स्वीकार कर लेना चाहिये कि भाजपा अपनी ही राजधानी में किरायेदार की तरह हो गई है।और वहीं केजरीवाल को इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिये कि तालाब में बैरी मगरमच्छ के साथ अब आने वाला समय बिताना है।
उनके द्वारा पहली ही चाय भेंटवार्ता में पूर्ण राज्य की माँग करना कहीं ना कहीं महानगरीय क्षेत्रवाद को दिखाता है।हम सब जानते है कि ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी देश की राजधानी एक स्वतंत्र राज्य हो।राजनीतिशास्त्र और राष्ट्रीय परिकल्पना के अनुसार यह असंभव है कि मोदी जी दिल्ली को पूर्ण राज्य बना कर खुद को दिल्ली का किराये दार बना ले ।लोकतंत्रीय प्रणाली के अनुसार आज भी दिल्ली में अधिक्तम अधिकार पुलिस व्यवस्था के पास है।यह पर  जेड सुरक्षा क्षेत्र अधिक है।यहाँ पर अधिक्तर राज्य स्तरीय अधिकार द्वितीयक सरकार के पास होता है।अधिक्तर यहाँ पर केंद्र के निर्णय चलते है।परन्तु यह माँग केंद्र सरकार के लिये गले की हड्डी बनती जारही है।यदि माना जाये कि कभी ऐसा होता है तो क्या केद्र-राज्य संवैधानिक अधिकारों की पुनः समीक्षा की जायेगी।सुरक्षा और सामाजिक शांति व्यवस्था के साथ राष्ट्रीय मुद्दों की व्यवस्था साथ साथ पर विलगित होकर कार्य करेगी।यदि ऐसा होता है तो केंद्र के पास राजस्व और नीतियो के विलगन का बोझ बढेगा।
कभी कभी लगता है कि केजरीवाल जी अब भूल जाते है कि वो देश की संवैधानिक धारा से जुड चुके हैं।और वो केंद्र की अधीनस्थ विधानसभा के मुखिया है।इन सब परिस्थितियों के चलते उनकी इस तरह की नींवहीन माँग उनके अस्तित्व के खतरे को बढाता है। उनको इस हकीकत को स्वीकार करना होगा कि उनकी दीवार के सामने भाजपा के सारे के सारे धुरंधर परास्त हो चुके जरूर हैं पर काम उनको उसी पार्टी की केंद्र सरकार के साथ कदम से कदम मिला कर करना है।हाँ उनके और प्रयास सार्थक है परन्तु यह कहना की काले धन में अपने राज्य को मुक्त करना,भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन करना।आम जन की भागीदारी को बढाना।इस पर जोर देना होगा।उन्हें अपने मंत्रिमंडल में युवा चेहरों को स्थान देना होगा।केंद्र से मिल अपने राज्य के लिये नीतियों के अनुसार कार्यकरना होगा।और अपने अहंकार को नियंत्रित करते हुये अतिउत्साहित बयान बाजी से खुद और अपने मंत्रिमंडल को बचाने की मुहिम चलाना होगा तभी उनके उद्देश्य पूरे हो सकते है।अन्यथा वादों के महल में मोदी जी भी चुनाव जीते है और उनके नेतृत्व का परिणाम हमारे सामने है। राजनैतिक समझ और वैचारिक परामर्श के साथ ही केजरीवाल दिल्ली में स्थित होकर खुद की शाख बना सकते है वरना विरोधियों के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिनतम होगा।ऐसे वायदे जो उनकी शाख को खराब करें और केद्र से गतिरोध बढायें ,उनको त्यागना ही दिल्ली हेतु आप के सपनों को साकार कर सकते है।संवैधानिक नियम कायदों के विरोध में जाकर माँग करने से टकराव की स्थिति ही बनती है हल नहीं निकलता है।


अनिल अयान,सतना.9479411407

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