सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

अब जाति पूछिये साधु की

अब जाति पूछिये साधु की
भाजपा सरकार ने कुछ दिनों पूर्व यह घोषणा की कि वो कांग्रेस द्वारा शुरू की गई जातीय जनगणना के आंकडे अगले साल तक प्रकाशित करेगी। आंकडों का विश्लेषण करने का समय भी उन्हें मिल जायेगा और साथ में आंकडॊं का पुष्टीकरण भी हो जायेगा। अचानक भाजपा का जातीय जनगणना को प्रकाशित करने का निर्णय गले से नहीं उतर पा रहा है। उसका बार बार खुद को राष्ट्रवादी पार्टी घोषित करने के बाद अचानक जातिवादी निर्णय लेना और उस पर इतना जल्दी अमल करना किसी राजनैतिक लाभ के चलते ज्यादा तीव्र नजर आरहा है।कांग्रेस ने जब इस जनगणना को सन २०१० में बंद कर दिया था तब उसको यह अहसास हो गया था कि इससे जातिवाद फैलने का डर है और यह उसके लिये नुकसानदेह हो सकता है। डाँ हट्टन कमेंटी में यह बात स्पष्ट की गई कि हर जनगणना के समय जाति परिवर्तन होना है इनकी कैटेगरी बदल दी जाती है और आज के समय पर भारत में जातियों का आंकडा ४५ लाख के ऊपर पहुँच चुका है।शुरुआत में कांग्रेस का यह सोचना था कि जातिगत आंकडे मिलजाने से गरीबी और अमीरी के बीच के आंकडों की खाईं को खत्म किया जा सकता है। परन्तु देर से ही सही उनकी आंख खुली और उस पर विराम लगाया गया। हम सब को ज्ञात है कि बिहार चुनाव इस समय भारत के सिर पर हैं और इस राज्य में जातिवाद का प्रभाव सबसे अधिक है।यदि भाजपा इस घोषणा के साथ बिहार चुनाव की बहती नदी में हाथ धोना चाहती है तो यह उसका तात्कालिक लाभ ही होगा। दीर्घकालिक हानि उसको बाद में भोगना पडेगा।इस घोषणा में अमल होने के बाद तो अब जनगणना वाले साधु की भी जाति पूँछने में लग जायेंगें क्योंकि उनका मकसद जातिगत लोगों की संख्या प्राप्त करना होगा।
इस प्रकार की आग का यदि हम इतिहास जाते हो इतिहास के झरोंखे से यह नजर आता है कि १८५७ में बनी हंटर रिपोर्ट के चलते बंगाल विभाजन की नींव पडी और उसको विभाजन का दंश झेलना पडा। १९४७ में भारत पाक विभाजन के लिये भी जातिगत संघर्ष और क्षेत्रवाद हाबी रहा। इस सब को बर्दास्त न करपाने के कारण राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस प्रकार की जनगणना का विरोध करके ११ जनवरी १९३१ को जनगणना बहिष्कार दिवस के रूप में गांधीवादी समर्थकों को मनाने के लिये प्रेरित किया। इस तरह के ऐतिहासिक तथ्यों के बावजूद यदि भाजपा अपने तात्कालिक लाभ के लिये जातीय जनगणना का प्रक्षेपास्त्र छोडने का विचार कर रही है तो वह सरासर गलत और स्वार्थवश है।हम सबको पता है कि जाति नाम का दंश हमारी पीठ में हमारे पुरखों के द्वारा पत्थर से कुरेद दी गई है। हम चाहकर भी इसे खत्म नहीं कर सकते है। जिस भी व्यक्ति ने इसके विरोध में जाकर निर्णय लिया वो पूरी तरह से समाज से पृथक करा दिया गया। अब सोचिये यदि सरकार ही इस तरह के निर्णय को समर्थन देगी तो देश का क्या हाल होगा। प्रख्यात समाजवादी डाण्राममनोहर लोहिया ने जात तोडो का नारा लगाते हुये अपने समाजवाद को इसके लिये झोंक दिया उनकी मृत्यु के उपरांत उन्ही के अनुयायी जातिवाद के धन्नासेठ बनकर राजनैतिक लाभ के लिये अन्य पार्टियों में आ गये। जातिगत आरक्षण वह भीख है जिसे हर आरक्षित वर्ग हंसते हंसते लाभ लेने के लिये रेवडी बांटने वाले की कतार में लग जाता है भले ही वह चाहे अमीर हो या गरीब। हर स्थान में जाति की बात की जाये तोए कोस.कोस में पानी की तरह जैसे भाषा और बोली बदलती है वैसे ही जाति भी सवर्ण और अवर्ण में बदल दी जाती है। एक ही जाति एक स्थान में आरक्षित वर्ग का लाभ लेती है और दूसरे स्थान में अनारक्षित होने का दंश झेलती है। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस वर्ग को जातियों का मलाई दार परतें कह कर संबोधित कियाएजो हर जाति के भुजबली होते है वो इस प्रकार की जनगणना का लाभ जरूर ले रहें होंगें । और यह उन लोगों का समूह है जो कि जाति का बहाना बनाकर बार बार जातीय जनगणना का राग अलापते नजर आते हैं।यदि हमें गरीबी मिटानी है तो हमें जनगणना से गरीबों के आंकडे इकट्टे करने होंगें।जिससे सभी वर्गों के गरीब आ जायेंगें। और इस प्रकार हम उन लोगों को अलग करने में भी सफल हो जायेंगें जो जातिगत नेतागिरी करने के लिये लालायित होते है। यदि सरकार का इस जनगणना के प्रति यह उद्देश्य है कि इससे जातिगत गरीबी को खत्म कर सकेंगें तो उनके लिये कई सवाल मन में आते हैं। जिसका निराकरण शायद इस फैसले से नहीं मिलता है।
जातिगत जनगणना से व्यक्तिगत पहचान कैसे सुरक्षित रहेगीघ् जातीय आंकडों से गरीबी को कैसे मिटाया जा सकता हैघ् जातीय आंकडों का समाज में शिक्षा पर क्या प्रभाव पडेगाघ् जातीय आंकडों से उत्पन्न सामाजिक विद्वेष को कैसे रोका जा सकता हैघ् जातिवादी जहर राजनीति को अल्पकालिक सफलता तक पहुँचा सकता है। परन्तु समाज और नागरिक को यह शनै शनै खोखला कर रहा है अब जरूरी है कि राष्ट्रवाद को जातिवाद में परिवर्तित करने से बचाने का प्रयास किया जाये।तभी देश की स्थिति कुछ सुधर सकेगी। हमें देश में शिक्षा और आर्थिक सुधार की ओर अग्रसर होने के लिये सोचना पडेगा ना कि जातीय और क्षेत्रीय विभाजन की रेखा खींचने के बारे में अल्पकालिक निर्णय लेने के लिये सोचना चाहिये।
अनिल अयानएसतना

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