सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

राजभाषा पखवाडा बना कमाई का अखाडा

राजभाषा पखवाडा बना कमाई का अखाडा
विगत दिनों राजभाषा पखवाडा का आयोजन किया गया. एक सितम्बर से १४ सितम्बर तक की गतिविधियाँ हिंदी के लिये समर्पित रही.राजकाज की भाषा के विकास और उत्थान के कसीदे सीमा से परे हो कर पढे गये.हिंदी के सेवक हिंदी की सेवा करते दिखे.अन्य लहजे में कहें तो गाहे बगाहे हिंदी से अपनी सेवा करवाने वाले इस पखवाडे में हीं सिर्फ हिंदी की दिखावटी सेवा कर मेवा पाने का प्रयास हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी करके कल ही फुरसत हुये.यदि हम परिणाम की बात करेंगें तो यह भी बेमानी होगा.
संविधान सभा में जब हिंदी की स्थिति को लेकर जब दो दिवसीय चर्चा का आयोजन १२ सितम्बर १९४९ से १४ सितम्बर १९४९ तक हुआ तब भी तत्कालिक राष्ट्रपति स्व.डा राजेन्द्र प्रसाद, ने अंग्रेजी में ही अपना उद्बोधन दिया.प्रधान मंत्री स्व.जवाहर लाल नेहरू ने अंग्रेजी की पैरवी ज्यादा की थी.तब से लेकर आज तक भाषा संबंधी अनुच्छेदों राजभाषा अनुच्छेद ३ ग और १४ क में तीन सौ से अधिक बार संशोधन किया गया जो आज के समय में भाग १७ के रूप में संविधान में उपस्थित है.संवैधानिक स्थिति के अनुसार तब से आज तक भारत की राजभाषा हिंदी है और अंग्रेजी सह भाषा है.तब से लेकर आज तक संविधान सभा की अनुशंसा में इस १४ दिन राजभाषा पखवाडे के रूप में मनाये जाने लगे.उस वक्त डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने देवनागरी लिपि को भारत की राष्ट्रीय लिपि बनाने की भी अनुशंसा की थी परन्तु उस बात को आज भी दबा कर खत्म कर दिया गया.
एक वह दिन था और एक आज का दिन, राज भाषा पखवाडा का चलन जगत में चलने लगा .हर छोटी बडी संस्था राजभाषा के प्रचार प्रसार के साथ राष्ट्रभाषा के रूप में स्थान दिलाने के लिये हर वर्ष एक नाटक का मंचन करते है.परन्तु परिणाम सिफर होता है.प्रायोगिक रूप से देखे.कि हिंदी हमारी रोजमर्रा की भाषा रही है.परन्तु आज के समय में भागदौड और बाजारवाद के अवसरो के दरमियान यह भी हिंदी और इंगलिश का मिश्रित रूप हो गई है.जिसे आज के समय हिंगलिश के रूप में जाना जाने लगा है.जो आज भी चलन में है.विशुद्ध हिंदी या यह कहें की तत्सम और तद्भव शब्दों से बनी हिंदी से कार्य और ज्यादा दुरूह् हो रहे है.अधिक्तर हिंदी माध्यम विद्यालय अंग्रेजी माध्यम मे बदल गये है.यहाँ तक आगामी पीढी को अंग्रेज बनाने की कवायद हम नर्शरी से शुरू कर देते है.आज के समय में अंग्रेजी ना बाँच पाने और बोल पाने वाला व्यक्ति अनपढ और गंवार समझा जाने लगा है.सिविल सर्विसेस परीक्षा का बखेडा अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है.ऐसी स्थित में राष्ट्र भाषा तक पहुँचने की कवायद बेमानी सी नजर आती है.आज के समय में अधिक्तर राजकीय काम अंग्रेजी से होता है.ऐसा लगता है कि हिंदी पहले कभी भाषा की माकान मालिक थी आज तो वह अंग्रेजी के फ्लैट में किराये से रहने को मजबूर हो चुकी है.
राजभाषा के पखवाडे में जितने लोग और विद्वान दिखने वाले लोग माइक के सामने हिंदी को ऊपर उठाने की बात करते है वो ही सही मायनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाये जाने के पैरोकार है.क्योंकी यदि हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित हो गई तो उनकी अच्छी खासी आमदनी वाली दुकान में ताला लगा समझिये.कहने को आज के समय में हिंदी के प्रचार प्रसार हेतु महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा,और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी कई संस्थायें है जिनको शासन और सरकार ने हिंदी के विकास के लिये बहुत सी जिम्मेवारी सौपी है.परन्तु यहाँ भी रेवडियाँ ही बाँटी जा रही है.अपने अपने दफ्तरों में बैठ कर इनके अधिकारी सरकारी दामाद बने बैठे है  अधिक्तर योजनायें और खर्च करने के लिये सरकार के द्वारा दिये जाने वाला फंड लैप्स हो जाता है और गाहे बगाहे सितम्बर माह मे हिंदी के कसीदे पढने के लिये समाज और देश भर में निकलते है.
क्या इसी तरह से हिंदी का विकास होगा.आज जरूरत है कि यह प्रयास हो कि इस तरह की संस्थाओ के अस्तित्व को समाप्त कर संयुक्त आयोग गठित करने की. जमीनी स्तर पर प्रयास किया जाये.जागरुकता अभियान चलाये जाये. शिक्षा विभाग उच्च शिक्षा विभाग का सहयोग बच्चों और युवाओं में हिंदी के प्रति रूझान बढाने में मदद करे.अन्य राज्यों में भी हिंदी भाषियों को स्थान और सम्मान मिलने के साथ साथ रोजगार मिले.वरना हिंदी का अस्तित्व खतरे में आन पडा है कुछ राज्यों को छोड कर हिंदी के बोलने वाले वख्ता कम होते जा रहे है.अन्य भाषी राज्य हिंदी को अपने राज्य के लिये कलंक समझते है.हमें अपने मन के भ्रम को टॊड कर वास्तविकता की जमीन मे कदम बढाना होगा और हिंदी को पहले धरातल मे घर घर की बोली बनानी होगी.राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के लिये अन्य भाषा भाषी राज्यों को अपने पक्ष में करना होगा.अभी फिल हाल यह प्रयास होना चाहिये कि हर दिवस हिंदी दिवस हो.

अनिल अयान.सतना.

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