सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

अभियान बनी एक परंपरा का सच


अभियान बनी एक परंपरा का सच
बहुत समय से देख रहा हूँ कि बच्चों को हाथ धुलाने का अभियान शासकीय विद्यालयों में चलाया जा रहा है।बच्चे हाथ धोकर अपने जीवन को शुद्ध करने का भ्रम पाल कर विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। बच्चे पढने में कम और मध्यान भोजन और हाथ धोने में ज्यादा ध्यान लगाते है। यूँ तो हाथ धुलाने की परंपरा का निर्वहन आदि काल से ही भारत वर्ष में चली आरही है। मेजबान अपने काम को खत्म करने के बाद और भोजन ग्रहण करने के पूर्व अपने हाथ पैर जरूर साफ करते थे।आज भी यह परंपरा का निर्वहन देश के हर घर में किया जाता है।हमारी सुबह हाथ धोने से होती है और सोने से पहले हम सब हाथ धोकर ही बिस्तर में जाते हैं।शिक्षा विभाग की यह पहल का क्या उद्देश्य है यह सोचने का विषय है।क्या सिर्फ स्वच्छता,और बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिये यह अभियान चलाया जा रहा है या फिर इसके पीछे भी एक उच्च स्तरीय व्यापार नीति का संचालन सरकार द्वारा किया जा रहा है।
हाथ धुलाने के अभियान में हर स्कूल में विशेष प्रकार का साबुन,जग,बाल्टी,नल कनेक्शन,और पानी की टंकी की व्यवस्था की जाती है।साथ हर बच्चे का अपना अलग तौलिया निर्धारित किया जाता है।इसके लिये विद्यालय एक निविदा निकाल कर टॆडर बुलाता है और सस्ते रुपयों की दर में ये सब उचित दाम में खरीदा जाता है।यह प्रक्रिया हर विद्यालय में अपनाया जाता है।गाँव का वो बच्चा जो अपने परिवार की गरीबी को मिटाने के लिये सरकारी स्कूल में जाता है वह इस प्रकार लग्जरी तरीके से हाथ धोने में बहुत आनंद आता है और वह इस काम को घर में भी करने के लिये अपने गरीब माता पिता को बोलता है।अब उसके माता पिता की जिम्मेवारी बनती है कि यह सरकारी तरीका वह अपने घर में अपनाये।और इस तरह से इस व्यापार की प्रथम बिसात सफल होती है।इस सफलता का परिणाम है कि आज के समय में मध्यान भोजन के लिये स्वसहायता समूह शिक्षा विभाग के नजदीकी लोगों द्वारा चलाये जा रहे हैं। फिर मँहगे किस्म के साबुन,तौलिये आदि का आयात प्रारंभ किया जाता है।बच्चों की सुरक्षा और साफ सफाई के साथ साथ इस तरह का लाभ अन्य सामाजिक धन्ना सेठों को भी आकर्षित करता है।लोगों को किसी चीज का आदी बनाना है तो उन्हे इसी तरह से लग्जरी सामान उपयोग करने की आदत डलवाई जाती है ताकि बच्चों की सह में ही सही लोग अपने दैनिक जीवन में इस तरह के मँहगे और लग्जरी सामान की खपत कर सकें और शिक्षा के मंदिर को व्यापारिक प्रतिष्ठान बनाया जा सके।
इस अभियान के पूर्व में भी बच्चे हाथ धोते थे।इस के लिये कही नहीं लिखा कि मँहगे हाथ धोने वाले साबुन और मंहगे तौलिये इस्तेमाल किये जायें।प्राचीन काल में हाथ धोने के लिये राख का इस्तेमाल किया जाता था। कभी-कभी नीबू का पानी और ताजा पानी भी इस काम के लिये इस्तेमाल किया जाता था।फिर यह काम देशी निरमें से पूरा किया जाने लगा।और धीरे धीरे शहरी जीवन शैली में हैंड वाश सोप और हैंड वाश लिक्विड का इस्तेमाल किया जाने लगा।भारतीयता को अपनाने वाले शासकीय विद्यालय के ग्रामीण बालकों को शहरीय जीवन शैली की तरफ मोडने की यह साजिस सिर्फ इस लिये है क्योंकि हम भारत को इंडिया के रूप में परिभाषित करने की फिराक में लगे हुये है।ग्रामीण बालक जिन्हे अपनी सामान्य जीवन शैली को सुधारने और सर्वकालिक विकास के लिये विद्यालय के दरवाजे खटखटाता है।उसे बाजारवाद के इस प्रकार के पैने  हथियार परिवार वालों के साथ अपने गिरफ्त में जकड लेता है।शासन और प्रशासन विद्यालय को संबंधित व्यापारियों के हाथों धीरे धीरे सुपुर्द करने में लगे हुये है।कुल मिलाकर यह कहा जाये कि विद्यालय को व्यावसायिक प्रतिष्ठान के रूप में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोडी जा रही है तो बेमानी कुछ भी नहीं है।इस प्रक्रिया के चलते बच्चे के हाथों की सुरक्षा और साफ सफाई किस हद तक होती है यह तो अनुमान लगाना कठिन है परन्तु व्यापारियों की जेबों की भरपाई होना तय माना जा सकता है।
इस प्रकार के अभियान छात्र छात्राओं के विकास में कितना कारगर है यह तो विद्यालय की स्थिति देख कर समझा जा सकता है।विद्यालय में जहाँ शासकीय स्तर पर शौचालय,पीने के पानी की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती है।मध्याहन भोजन में मिलावट का खेल खेला जाता। बच्चे बस्ता लेकर आते है और खाना खाकर घर बिना पढे चले जाते है।जहाँ बच्चों को अपने मास्टर साहब का नाम नहीं पता होता है।बच्चों की जगह पर उनके छोटे भाई बहन थाली में भोजन करते है।जहाँ बच्चों के फर्जी नाम रजिस्टर में सिर्फ संख्या की बढोत्तरी के लिये लिखे जाते है।वहाँ पर हाथ धुलाकर अपनी और व्यापारियों की जेब भरने की प्रक्रिया षडयंत्रकारी और बेमानी लगती है। अभियान होतो पारदर्शी हो अन्यथा बच्चों को विद्यालय लाने के लिये अच्छी पढाई और ज्ञान देकर आकर्षित किया जाना चाहिये ना कि उनके गरीब माता पिता की जेब खाली करने की चाल चल कर उन्हें धोका दिया जाना चाहिये।विद्यालय में यदि पठन पाठन से अधिक इन सब अभियानों में शिक्षक ध्यान देंगें तो फिर बच्चों का कैरियर तो ग्रामीण परिवेश में दम तोड देगा।
अनिल अयान,सतना        

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