सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

संघम शरणं गच्छामि

संघम शरणं गच्छामि
सम्राट आशोक के सामने महात्मा बुद्ध ने जिन तीन मूल वाक्यों का जिक्र किया वो बुद्धं शरणं गच्छामि,धम्मं शरणं गच्छामि,और संघम शरणं गच्छामि। विगत दिनों मध्यांचल भवन में संपन्न हुई तीन दिवसीय चिंतन बैठक में यही मूल वाक्य के भाजपा द्वारा सुप्रयोग को दिखाया गया है। महात्मा बुद्ध ने सम्राट आशोक से यह कहा कि जब कोई मार्ग ना दिखे तो संघ की शरण में जाओ। रास्ता जरूर प्राप्त होगा। विगत तीनों दिनों में भारतीय जनता पार्टी के अधिकांश मंत्री इस चिंतन बैठक में शामिल हुये, तथाकथित रूप से यह भी प्रकाश में आया कि मंत्रियों ने केंद्र सरकार का सन २०१३ से अब तक का लेखा जोखा संघ के सामने रख कर चिंतन बैठक में चिंतन करते हुये आने वाली समस्याओं की चिंताओं को खत्म करने का रास्ता प्राप्त किया है। यह रास्ता आने वाले समय में सरकार को अच्छे दिन प्राप्त करने में मदद करेगा। एक कम अनुभवी व्यक्ति को जिसतरह अधिक अनुभवी व्यक्ति से बैठक कर चिंतन जरूर करना चाहिये ताकि उसकी स्थिति में सुधार हो सके वही काम तो भाजपा संघ की शरण में जाकर कर रही है। यह काम तो भाजपा सरकार बनाने के पहले भी करती थी।
इस बात में कोई भी गुरेज नहीं है कि जब सरकार दो साल से सत्ता में बैठी है और  इसका परिणाम जनता के सामने आ चुका है। दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम जनता के सामने था,बिहार विधान सभा चुनाव खेल जारी है। इस बीच अच्छे दिन,भूमि अधिग्रहण बिल,वन रैंक और वन पैंशन,कालाधन वापसी के वायदे की पोल जनता के सामने धीरे धीरे आ रही है। विदेशों से भारत के रिस्ते जमीनी तौर पर कितने मजबूत हुये और कितने फाइलों में कैद होकर रह गये यह भी शास्वत रूप से जनता के सामने आ गये हैं। काम जारी समय चाहिये यह सूत्र सरकार का मूल मंत्र बन चुका है। इन सब परिस्थितियों के चलतें सरकार कितनी कालजयी होगी यह चिंतन संघ के साथ आवश्यक था। विगत तीन दिनों में केंद्र के अधिक्तर मंत्री मध्यांचल भवन पहुँचे और अपना प्रस्तुतीकरण देकर राय या मसविरा लिये। अन्य राजनैतिक दलों के नजरिये से देखें तो भले ही यह बैठक कई नये विमर्श खडे करती हो परन्तु भाजपा के नजरिये से यह अतिआवश्यक भी है। क्योंकि हम सबको पता है कि जनसंघ,भाजपा,और संघीय संगठनात्मक ढांचे की रूपरेखा और प्रस्तावना क्या है। भाजपा पहले से संघीय विचारधारा की पोषक थी, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी। यह बात और है कि वह इस समय केंद्र की सत्ता में विराजमान है।सन दो हजार तेरह में श्री नरेंद्र मोदी को केंद्र तक पहुँचाने में संघीय व्यवस्था जिम्मेवार रही है। श्री नितिन गडकरी और श्री राम माधव जी संघ के प्रतिष्ठित स्वयंसेवक रहें हैं। जो आज भाजपा की सरकार में आज प्रमुख पदों में हैं।
परन्तु संवैधानिक नजरिये से देखें तो जब यूपीए की सरकार थी तो भाजपाइयों द्वारा यह कहा जाता रहा है कि फैसले मनमोहन सिंह नहीं वरन श्री मती सोनिया गांधी जी करती हैं या आदेश देती हैं। क्या यही घटनाक्रम इस बैठक के बाद नहीं हमारे सामने आ रही है। कि भाजपा पर संघीय प्रणाली हाबी है जो उसके काम करने के ढंग पर भी दिखती है। मंत्रियों को कार्ययोजना में चिंतन करने के लिये क्या प्रधानमंत्री जैसे प्रमुख संवैधानिक व्यक्ति की क्षमता में संदेह है जो इस चिंतन बैठक में राह तलाश रहे हैं। जो बार बार यह बयान दिये गये कि चिंतन बैठक परामर्श चल रहा था। जो भाजपा सरकार बनाने के पहले भी किया करती थी। तो शायद मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री के पास इतना संवैधानिक अधिकार है कि वो किसी संगठन को अपने कार्यालय में परामर्श के लिये बुला सकता है वस्तुतः इस काम के लिये संघ की ड्योरी जाने की इजाजत संविधान कितना देता है। इस बैठक में राममंदिर,और  विहिप प्रमुख श्री प्रवीण तोगडिया जी के लेख जो आर्गनाइजर में प्रकाशित हुआ था उस पर भी काफी चर्चा हुई। जिसमें वो ये कहते हैं कि हिंदू को बच्चे पैदा कर हिंदुओं की संख्या में इजाफा करना चाहिये,और मुसल्मानों को दो से अधिक बच्चे पैदा करने पर बुनियादी सुविधाओं से बेदखल कर देना चाहिये।यह लेख राजनीति में नई बहस शुरू कर दिया है। हमारे प्रधानमंत्री जी बार बार यही कहते हैं कि उनका सपना सबका विकास हो,तब भी इस तरह के घटनाक्रम में वो मौन क्यों हो जाते हैं। क्या बिहार के चुनावों के चलते वो भूमि अधिग्रहण बिल में यू टर्न लेने का फैसला संघीय परामर्श के आधार पर लिये हैं। ये कुछ सवालात हैं जो भाजपा और संघ के रिस्तों को पुनःसरकार बनने के दो सालों के बाद बहस के मुद्दे के रूप में सामने लाते हैं। 
यदि ये रिस्ते जन्म जन्मांतर के हैं तो संघ का बार बार यह कहना कि हम राजनैतिक संगठन नहीं है वरन सांस्कृतिक संगठन हैं हमारा काम हमारी विरासत को बचाना है कहाँ तक जायज हैं जब वो भाजपा के रिमोर्ट कंट्रोल के रूप में काम कर रहा है। संभवतः जनता को मान लेना चाहिये कि अब भारत धर्म निरपेक्ष राष्ट्र ना होकर हिंदू बाहुल्य राष्ट्र के रूप में आने वाले भविष्य में जाना जायेगा। यदि संघीय विचार धारा का प्रभाव सरकार में तथाकथित रूप से दबाव के रूप में काम कर रहा है तो संविधान के नियमों और अधिकारों को ताक में रखकर जनता के सामने आभासी विकास दिखाने की आवश्यकता क्यों पड रही है। क्या यह सब सत्ता को हथियाने का आडंबर है। इस प्रकार की बैठकें सरकार को सिर्फ और सिर्फ कठपुतली बनाने का प्रभावी प्रयास ही तो हैं। सरकार को तटस्थ होकर जनता के पक्ष में स्वयंमेव निर्णय लेने की आजादी संगठनात्मक रूप से होनी चाहिये अथवा संघ को चाहिये कि भाजपा को यह रास्ता दिखाये जिसमें वायदों को पूरा करने का तरीका भी  शामिल हो, उद्देश्यों की पूर्ति अपनी जगह है और सरकार के दायित्व अपनी जगह अन्यथा इस पंचवर्षीय के पश्चात कोई ना कोई सरकार तो रहेगी जनता के पास बदलाव लाने का दूसरा विकल्प भी निर्णायक होगा।

अनिल अयान 
सतना.९४७९४११४०७   

कोई टिप्पणी नहीं: