सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

जातियों के सांप्रदायीकरण से उपजता चक्रव्यूह

जातियों के सांप्रदायीकरण से उपजता चक्रव्यूह
धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद में टिका भारत का जाति.वर्णात्मक अस्तित्व खतरे में आ रहा है।भारत के सभी राज्य आज इस ओर अंधी दौड में भागे जा रहे है।आज की स्थिति यह है कि हर तरफ जातियों का  पराक्रम दिखा कर उसके प्रभाव से अन्य जातियों को अपनी जूतियों तले रौंदने का प्रयास जारी है।इतिहास गवाह रहा है कि जो जातियाँ अंग्रेजों के पहले से बहुसंख्यक रूप में राज्य करती थी आज वह अल्प संख्यक वर्ग में आचुकी है।परन्तु आज जाति के नाम पर राजनैतिक पार्टियाँ या तो ऐश कर रही है या तो जाति को उग्रवाद बनाकर उसके नाम को कैश कर रही है।
लार्ड क्लाइव से शुरू होकर आज की इस ग्लोबल पीढी तक जिनका इतिहास नहीं आया वो बखूबी जानते हैं कि दलितों के राजा वैदिक काल से मध्य काल तक पाये जाते थे।कई जातियाँ अपने राजवंश को सुरक्षित रखे हुई थी।धनगर मराठे एहोलकर राज्य के संस्थापक खुद चरवाहे का काम किया करते थे।आज जितने भी ओबीसी और पिछडे वर्ग के अंतर्गत जातियाँ आती है उनकी सत्ता द्क्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में शासन करती रही है।इतिहास यह भी जानता है कि कभी पूरे देश में राजपूतों और ब्राह्मणों का राज नहीं रहा इन रियासतों में ये जातियाँ एक रहवासी के रूप में ससम्मान पूर्वक निवास करती थीं।समय सापेक्ष जाति का संविलियन और विघटन हुआ है।बडी जातियों से कई छॊटी छोटी जातियों का पुनर्जन्म हुआ।आज जातिगत समूहों से जिस प्रकार क्षेत्रवाद उतपन्न हो रहा है वह देश की अर्थव्यवस्था और समाजिक व्यवस्था के लिये खतरनाक चक्रव्यूह की तरह है।
जब से मनुष्य संगढित होकर रहना शुरू किया तभी से वर्णव्यवस्था के अंतर्गत जाति वर्ग व्यवस्था का अनावरण हुआ था।हर व्यक्ति का अपना अपना काम निर्धारित कर दिया गया।जाति भारतीय संस्कृति की पुरातन और नीव के पत्थर के समान है।हर इंसान की पीढ में यह पूर्वजों के द्वारा अमिट रूप से कुरेद दी गयी है।कोई चाहकर भी इस दर्दनाक हकीकत से मुँह नहीं मोड सकता कि वो जाति से हटकर अपने अस्तित्व को कायम कर सकता है।यह भी सच है कि जड और रूढ स्थिति में जाति कभी नहीं रही है अन्यथा गैरलचीली व्यवस्था कभी भी समाज में ज्यादा देर तक टिक नहीं सकती है।जो संगठन या लोगों के समूहों ने जाति को टोडने का प्रयास किया वो खुद समाज के एक हासिये में चले गये वो संगढन समाप्त हो गये है। और अंत में उन्हें अपनी अपनी जाति के अंतर्गत कुनबों में वापिस लौटना ही पडा है।देश में आज भी ऐसे स्थान है जिनके अंतर्गत जाति के हाहाकारी प्रभाव भी गाहे बगाहे दिख ही ही जाते है।हिंदू धर्म जिसे हम सब सनातन धर्म के रूप मे जानते है इसके अंतर्गत सबसे अधिक जातियाँ आती है और इन जातियों का विद्रोह भी देखने को मिल जाता है।पहले जातियों के नाटक का पटाक्षेप समाज में ही हो जाया करता था परन्तु आज इसका भी राष्ट्रीय स्वरूप देखने को मिलता है।
जब तक हम जाति को सामाजिक नजरिये से ना देखेंगें तब तक जतियों से सांप्रदायीकरण की चिंगारी धधकती रहेगी।भारतीय समाज की एक परंपरा के रूप में जाति को लेकर चलने से समाज की अनुकूलता बनी रहेगी।आज के समय में राजनैतिक पार्टियाँ जाति को परिवर्तित करके जातिगत समीकरण बनाने में लग गये।कई राजनैतिक पार्टियाँ तो जातिगत राजनीति की संवाहक बनी हुई है।वो जाति को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने मे पीछे नहीं हटती है।आज के समय में जातिगत असर साहित्य में भी दिखाई देने लगा है।जातियों को राजनैतिक स्वार्थ के तहत एससीएएसटीएऔर ओबीसी में बाँट दिया गया है।
राजनीति के साथ जाति सांप्रदायीकरण उत्प्लावित होकर क्षेत्रवाद के रूप  देश की संप्रभुता के लिये चक्रव्यूह के रूप में उपजा है।पूरे समाज को सवर्ण और अवर्ण के रूप में विघटित करके यह सांप्रदायीकरण देश को टुकडे टुकडे करने में भागीदार जरूर बनेगा।आज भारतीय उपमहाद्वीप की प्रमुख आवश्यकता है कि जाति को समाज के एक घटक के रूप में देखे और इसको सांप्रदायिक बनाने से बचे।यदि जातियों का इसी तरह साप्रदायी करण होता रहेगा तो लोग जाति के नाम में एक दूसरे के खून के प्यासे इस वजह से हो जायेंगें ताकि वो अपनी जाति का वर्चस्व पूरे भूभाग में कायम कर सकें।आज के समय मे राजनैतिक पार्टियों के सह पर सवर्ण और अवर्ण के मध्य साम्प्रदायिक विद्वेष सांप्रदायीकरण का तीक्ष्ण प्रहार है।और इससे हमे बचकर रहना होगा।

अनिल अयानण्सतनाण्



कोई टिप्पणी नहीं: