रविवार, 1 जून 2014

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

देह स्पर्श से जुडे है रिस्तों की गहराई

सामान्यतः देखा गया है कि हर रिस्ते मे गहराई का मापदंड आँका जाने लगा है और उसी  का परिणाम रहा है कि रिस्तों में टूटन और कमजोरी समझ में आने लगी है.समय के साथ देह का संबंध रिस्तों की मजबूती के लिये अति आवश्यक है.सदेह प्रेम की कल्पना ही आज के समय पर प्रायोगिक रूप से देखी जा रही है. हम चाहे किसी जाति धर्म और संप्रदाय के हों परन्तु यह भी शास्वत सत्य है कि आजकल देहिक प्रेम रह गया है.और इसी प्रेम के सहारे हर रिस्ते की नींव परवान चढती है.जितना अधिक दैहिक सुख प्राप्त होता है दो पार्टनर्स उतना नजदीक आते है.यदि हम आज के परिवेश में सिर्फ मनो वैज्ञानिक और मानसिक सुख हेतु प्यार और मोहब्बत की बात करें तो यह बेमानी सा लगता है.
     इतिहास और शास्त्र गवाह रहे है कि पूर्व काल से देह के लिये या देह की वजह से युद्ध लडे गये और विनाश का कारण बने है.कामशास्त्र का जिक्र ना करना इस संदर्भ में भी बेमानी होगी.आज के समय में मन के रिस्ते ,दिल की तह तक जगह देने वाले रिस्तें सिर्फ फेंटेसी में रह गये है.जिनका जिक्र कहानियों उपन्यासों और काव्य साहित्य तक सीमित रह गया है.जिन शब्दों को हम अश्लीलता की श्रेणी में लाकर खडे कर देतें है और यह कह कर नकार देते है कि यह हमारी मर्यादा तोडने के लिये जिम्मेवार है वह सब टूट कर खंड खंड हो गया है.और आज के समय पर हर जगह इस प्रकार की शब्दावली का इस्तेमाल होने लगा है या यह कहें कि इस्तेमाल करने में फक्र महसूस करने लगे है हम.आज के समय में ९० प्रतिशत सक्रिय रिस्तों की बुनियाद दैहिक वजहों से निर्मित होती है. यदि हम उदाहरण स्वरूप अपने घर या पडोस से लें तो समझ में आता है कि जब तक माता पिता का स्पर्श बच्चे को प्राप्त होता है यानि बाल्यकाल तक तब तक यह रिस्ता ईमानदारी से बच्चा निभाता है हर कहना बच्चा माता पिता का मानता है. परन्तु जैसे वह अपने विषमलिंगी सहपाठी से या मिलता है और किशोरावस्था वा युवावस्था में प्रवेश करता है और उसके जीवन में जीवन संगिनी या जीवन साथी आते है तब यह परिणाम होता है कि स्पर्श का एहसास बदल जाता है तो रिस्तों मे प्राथमिकतायें बदल जाती है .अब वह व्यक्ति अपने माता पिता के साथ साथ या यह कहे की उससे कहीं अधिक अपनी प्रेमिका,या पत्नी की ज्यादा सुनता है मानता है और विवश होता है दैहिक सुख से जुडा होने की वजह से.वह चाहकर भी अपने माता पिता और अन्य रिस्तों को अपनी प्रेमिका और पत्नी से बने रिस्तें से ज्यादा प्राथमिकता नहीं देता है.क्योकि देह का संबंध अब पत्नी और प्रेमिका के साथ अधिक होने से समय अधिक उनके साथ ही बीतता है और सुख भी उन्ही से प्राप्त होता है और उसकी आकांक्षा में वह उनकी तरफ ही झुकाव रखता है.और उम्र होने के साथ इन रिस्तों में गहराई भी बढती जाती है जिसकी वजह से अन्य रिस्तों की प्राथमिकतायें द्वितीयक होती चली जाती है.अर्थात कुल मिलाकर देह के स्पर्श का असर रिस्तों को कमजोर भी बनाता है और मजबूत भी बनाता है. हम यह कह सकते है कि यह प्रभावी गुण है जो युवावस्था में सबसे अधिक पाया जाता है.मुखर रूप से पुरुषों में और मौन रूप से स्त्रियों में. वैज्ञानिक रूप से एंडोक्राईनोलाजी के अंतर्गत ग्रंथियों और हार्मोंस का प्रभाव भी इसका वैञानिक पक्ष है.जिसे कोई भी नकार नहीं सकता है.जो इस पक्ष को नहीं मानते है वो दिल के रिस्तों की बनावट को ही समझने में इतना समय निकाल देतें है जिस समय तक रिस्तों की मजबूती भी खतरे में आ जाती है.जो समाज को विधटित कर रहें है.एक तरफ व्यक्तिगत सुख और सुकून है दूसरी तरफ समाजिक सुख.अब बात यहाँ पर आ जाती है कि व्यक्ति से समाज का अस्तित्व बनता है या समाज से व्यक्ति का अस्तित्व .यह बहस का विषय है जिसका निष्कर्ष विचारधारा के अनुरूप अलग अलग होता है.
     मिथकों की बात को यदि एक समय पर किनारे करें तो प्रायोगिक रूप से समाज में नजर डालने में समझ में आता है कि रिस्तों के विघटन का प्रमुख कारण इसी को माना गया है. एकल परिवार की रूपरेखा भी इसी कारक की वजह से निर्मित होती है क्योंकि इससे प्राथमिकता के लिये कोई चयन नहीं करना होता है.प्राईवेसी के लिये भी अन्य रिस्तों से संघर्श नहीं करना पडता है.मै इस बात का समर्थन करता हूँ कि इस प्रयोगिक विवशता को टोडना ही समाज को सही दिशा दे सकता है पर इसके लिये हमें खुद ही प्रयास करना होगा.और कितना समय लगेगा.यह कोई नहीं जानता है.
अनिल अयान,सतना

९४०६७८१०४०

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