रविवार, 16 फ़रवरी 2014

विजय-पराजय की गणनाओं मे उलझी दिल्ली

विजय-पराजय की गणनाओं मे उलझी दिल्ली
आप पर लिखने का मन नहीं करता है मेरा परन्तु जिस तरह की दशा दिल्ली की इस समय है उसको देख कर बिना लिखे रहा भी नहीं जाता है या यूँ कहें कि दिमाग कहता है कि कलम चलाओ और इस संदर्भ में कुछ तुम भी वमन करो.आप की सरकार जिसने गिनकर ५० दिन में एक कम दिन तक अपने हाथ में सत्ता रख कर दिखा दिया कि वह भी कुछ कर सकती है.समाज से लेकर सत्ता की दशा और दिशा दोनो को अपने तरीके से चलाकर दिखा दिया केजरीवाल जी की सरकार ने. इस लगभग पचास दिन की सरकार के अंतिम दिन की गतिविधियों ने स्पष्ट कर दिया कि सरकार की सी.एम. की कुर्सी का ना भाना और पी एम की कुर्सी का लालच आना इस्तीफे और विधानसभा भंग की कार्यवाही की रीड की हड्डी साबित हुई.
केजरीवाल सरकार ने लोकपाल के सहारे अपनी नैया को विधान सभा के अंदर प्रवेश करवाकर वापस बाहर ले भी आई. और कुछ संयोग बन गया संसद में हुये ड्रामे और दूसरे दिन ही विधान सभा में चकरी के चट्टॆ बट्टॆ का मिलने के रूप में.लोकपाल के अलावा भी जनता से १८ वायदे भी किये गये थे इस सरकार के द्वारा परंतु उनवायदों को दरकिनार करते हुये यह स्थिति हो गई की जनलोकपाल को प्रमुख मुद्दा बनाकर सब कुछ पाकसाफ तरीके से अंततः स्थिति तक पहुँचा दिया गया. पहले दिन से आखिरी दिन तक भ्रष्टाचार का नाम जुबाँ से इस सरकार की हटा नहीं और पूरे देश को अपनी ओर आकर्षित करने की पूरी चेष्टा की गई.अन्ना के दौरान इस सरकार का उदय हुआ. किरण बेदी से होते हुये कुमार विश्वास तक का सफर तय कर चुकी यह सरकार पूरे देश को विजय पराजय की गणित में उलझा कर रख दिया. इस्तीफे के २४ घंटे के अंदर ही उन्होने केजरीवाल जी का दामन थाम कर लोकसभा चुनाव लडने का बिगुल बजा दिया और इस तरह इस राजनैतिक महाभारत का आगाज कर दिया. राजनीति में सत्ता के बाहर रहकर सत्ता को गालियाँ देना जितना सरल था उतना ही दुश्वार हो गया सत्ता में रहकर सत्ताधारियों को गालियाँ देना या यह कहूँ भ्रष्टाचारी कह देना.शब्द जाल में उलझाई कांग्रेस भी इस मामले में अपनी कट्टर दुश्मन भाजपा के साथ हो गई. और पूरी की पूरी सरकार को शिकारी की भांति जाल में फाँस कर रख दिया. और आप के सभी लोग कराहते ही रह गये.इस पूरे कार्यकाल में इस सरकार ने जनलोकपाल का इतना रोना रोया कि पूरा देश और विदेश रो पडा. और साथ ही हल्के से लोकसभा में धमाकेदार इंट्री भी मार दी.अब तो यह समझ में नहीं आ रहा है कि केजरीवाल को दिल्ली की सत्ता छोडने का दुख है या लोकसभा में आश्चर्यजनक तरीके से इंट्री मारने का विजय सुख.
विधानसभा चुनावों के बाद सरसरी निगाह से गौर करें तो जिस प्रकार पूरे चुनाव के दौरान आप के नाम से चैनलों की टी आर पी बढी थी. उसी तरह लोकसभा चुनावों में भी यह अराजनैतिक तरीके से राजनैतिक तत्व बन चुका दल अपना इतिहास आगामी महीनों में दुहरायेगा.जनता की तरफ से कई प्रश्न पूँछने का मन केजरीवाल जी से करने का मन करता है कि आम आदमी पार्टी में जनता के बीच से आम आदमी को चयन कर कैसे खास की तरफ आकर्शित होने लगा यह दल. जनता से हगी पादी बात पूँछने वाले केजरीवाल जी इस्तीफे और सरकार चलाने की बात को जनता से पूँछना क्यों बिसर गये. या याद ना रहने की रामलीला करने का ढोंग कर रहेंहै. अब वो स्वीकार करें या ना करें परन्तु यह तो सच है कि अब उन्हें कुर्सी का मोह सताने लगा है. और यह कोई गलत नहीं है क्योंकि काजल की कोठरी में घुसने के बाद सफेदी फक रखकर वो करेंगे भी क्या. काजल लगना ही उन्हे लोगों की नजर लगने से बचायेंगा. परन्तु यह भी शास्वत सत्य साबित होता नजर आ रहा है कि नाच ना जाने आँगन टेढा और मिट्टी का माधव बन रहे केजरीवाल,जनता को अपने चस्में से फिल्म दिखाने वाले केजरीवाल
किसी दुर्योधन के मामा से कम नहीं हैं.लोकसभा चुनावों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्जकराकर काग्रेस और भाजपा को चौकाने का काम क्को केजरीवाल बखूबी रूप से लोकसभा के चुनावो के माध्यम अंजाम देने की ठान रहे है.मेरा व्यक्तिगत मत है कि दिल्ली में इस सरकार ने जनता के भोलेपन के साथ राजनैतिक रूप से गैंगरेप किया है. जनता से अलविदा कहते वक्त भी जनता को अपनी इस्तीफा प्रक्रिया का हिस्सा बनाना जनता के साथ ईमानदारी होती.लेकिन कुछ दिनो के नायक नुमा प्रभाव के बाद जनता अब क्या फैसला लोकसभा में सुनाती है यह तो भविष्य के गर्भ में छुपा है.अब केजरीवाल जनता की न्यायपालिका में निहत्थे होकर अपने कार्यकाल के साथ उपस्थित हो चुके है.
अनिल अयान.
९४०६७८१०७०

कोई टिप्पणी नहीं: