बुधवार, 21 अगस्त 2013

पुलिस सोती,जनता रोती


पुलिस सोती,जनता रोती
अंग्रेजों ने पुलिस की स्थापना इस लिये की ताकि वो लाटसाहबों के हुक्म को बजा सके और आज के समय में अब लाट साहब तो रहे नहीं इसलिये आज के समय मे पुलिस राजनेताओं का हुक्म बजा रही है. और इसका परिणाम रहा है कि पुलिस इतना थक जाती है कि समय आने में सो जाती है और जनता इसी वजह से रोती है.१८६१ के एक्ट के अनुसार जब पुलिस बनी तो यह माना गया कि पुलिस राजनैतिक दॄष्टि से लाभकारी हो.सत्ता का हर आदेश पालन करे .व्यवस्था कायम रखे और शांति बनाये रखे.आजादी के बाद ऐसा माना जाता था कि पुलिस का हो सकता है कि रवैये में परिवर्तन आजाये.परन्तु तब से ले कर आज तक हाल और चाल बद से बदतर हो गया है,.यह सच है कि कोई घटना के घटने में पुलिस महकमें को आडे हाथों लेते है . खूब खिंचायी करते है. परन्तु आज के समय की पुलिस अपंग और चिडचिडी होती जारही है. कारण यह है कि उनके लिये कोई ला और आर्डर नहीं होता है. ड्य़ूटी आने के टाइम होता है परन्तु जाने का कोई टाइम नहीं है. जनता की सेवा कितनी होती है यह तो नहीं पता किन्तु कोई भी मंत्री संत्री या तंत्री आ जाये तो पुलिस की सामत आजाती है.तब तो खाना नहाना सोना जगना सब बेटाइम हो जाता है. आज के समय में पुलिस का काम शांति स्थापना करना जरूर है परन्तु अशांति व्यवस्था बनाने में इनका काफी योगदान होता है. जनता के अनुपात में ना ये सही होते है और ना ही इनके पास कोई आधुनिक हथियार होते है आज भी पुलिस के पास वही पुराने जमाने की थ्री नाट थी बंदूक है और अधिकारियों के पास पिस्तौल है. अधिक्त्तर देखा जाता है कि जो हथियार आर्मी, पैरामलेट्री से रिजेक्ट कर दिया जाता है वह राज्य स्तरीय पुलिस के लिये चयन किया जाता है.
आज के समय में जनता पुलिस थाने में ऐसे जाने से डरती है जैसे कि उसे एफ आई आर लिखवाने नहीं बल्कि सजा भोगने के लिये थाने भेजा जा रहा है. जनता के और पुलिस के संबंधों को मधुर बनाने के लिये यह प्रयास गया कि जनता स्वागत केंद्र खोले गये और कई जिलों के थानों में यह कारगर रूप से काम भी कर रहे है. परन्तु कुछ बदनाम थाने में स्वागत केंद्र में आम जनता का ऐसा स्वागत किया गया कि दोबारा स्वागत करवाने की नौबत ही नहीं आयी.पूरी स्टडी  के बाद पता चलता है. की काम की बहुत ज्यादा मात्रा होने के बाद, परिवार से दूरी बढने के साथ, अधिकतर तनाव का प्रभाव हमारी पुलिस में साफ साफ दिखने लगती है. इसके पीछे इनका कोई दोष नहीं है. जब स्थानों में स्थित थानों के अंदर संख्या की मांग अधिक होती है और पुलिस वालों की आपूर्ति कम होती है तब काम का बोझ बढ जाता है. शासन की तरफ से एक निश्चित वेतनमान मिलने के बाद  भी जरूरते पूरी नहीं होती है. पूरा परिवार अपने मुखिया का समय पाने के लिये तरसता रहता है. पुलिस के निम्नतम स्तर की इकाई कांस्टेबल से लेकर मुंशी तक की सामाजिक स्थिति कुछ ऐसे ही है. और उसके बाद जितना अधिक ओहदा बढता जाता है परिवार के लिये समय उतना ही कम हो जाता है. मजबूर पुलिस करे भी तो क्या करे चाहे चोरी हो डकैती हो, बलवा हो दंगे हो सीमित संसाधनों के साथ अपने रफ टफ पोजीशन को बरकरार रखना बहुत कठिन हो जाता है. जब बीमार जवानों की छुट्टियाँ रद्द की जाती है और उनसे विवशतापूर्ण काम कराया जाता है तो वो सोयेगें ही,और जनता रोयेगी ही,आज के समय में अपराध बढ रहा है ,अपराधी बढ रहे है, अपराधियों के ऊपर लगाये गये इनाम बढा दिये जाते है परन्तु पुलिस को सुविधाओं के नाम पर ढेंगा दिखा दिया जाता है. यह सब सतना रीवा ही नहीं वरन पूरे देश में यही हाल है. हम कभी अपने को एक कांस्टेबल की इस परिस्थियों में अपने को रख कर देखें तो समझ में आता है. कि हमारी स्थिति शायद इनसे बुरी होती. पुलिस के अलावा नगर रक्षा समिति,होमगार्ड  और नगर सेना की स्थिति इससे भी बदतर है. एक मजदूर की कमायी और स्तर ज्यादा सम्मान जनक होती है परन्तु इन तीनों की स्थिति यह है कि इनका सक्रिय रूप से कोई माई बाप नहीं है.यह तय है कि इनकी स्थिति उस नंगे की तरह है जो नहायेगा क्या और निचोडेगा क्या, इनकी आर्थिक स्थिति एक मजदूर से भी बदतर है.आज के समय में जनता के बीच में शांति व्यवस्था बनाये रखना, और अनुशासन बनाये रखना बहुत ज्यादा कठिन है. जनता भी जागरुक है. और पुलिस अपने हतकंडों से बाज आती नहीं है. पुलिस अपना इरीटेशन और तनाव बेबस गरीब जनता पे उतारती है. आज समय की जरूरत है कि सरकार को पुलिस के प्रति अपना रवैया बदलना होगा. सुविधा और हथियारों से लैस , जनता के और पुलिस के संबंधों पर पुनः विचार करने और नये तरीके से सामन्जस्य बैठाने की आवश्य्कता है. वरना जनता की बौखलाहट पुलिस की इमेज इसी तरह खराब करती रहेगी. और पुलिस इसी तरह जनता के हाँथों से पिटती रहेगी. और नेता नपाडी सिर्फ खींस निपोरने के अलावा कुछ काम नहीं करेगें.
अनिल अयान,सतना.

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