शनिवार, 27 जुलाई 2013

बेरहम भूख और गरीबी ,कब से नेताओं के करीबी...



बेरहम भूख और गरीबीकब से नेताओं के करीबी,...

पिछले कई दिनों से देख रहा हूँ कि इस समय सत्ता पक्ष के नेता नपाडी गरीबी और भूख का अच्छा खासा तमाशा बनाये हुये है.जिसको देखो वो ही इस पर ढेर सारे कमेंट करके अपने को मीडिया के सामने ग्लोबलाइज करना चाहता है.खाना ,रोटी-सब्जी, दाल-चावल, इन सब का हिसाब रखने की कोशिश में लगे हुये है. और अपने बयानो के जरिये जनता का ध्यान खींचने की कोशिश करने में लगे हुये है. ऐसा लगता है कि जैसे बंदर के हाँथों मे अदरक लग गयी है और वह उसके स्वाद पाने के लिये बौराया फिर रहा है. इस खाने की कीमत का हिसाब लगाने वाले ये जनप्रतिनिधि आज तक अपने घर में खर्च होने वाले सामान्य खर्चों का हिसाब नहीं लगा पाये है. और आज इस देश का दुर्भागय की वह सब आज भूख, भूखे, गरीब गरीबी. भोजन और खिलाने वालों का हिसाब लगाने लगे है.राजनीति के धतूरे से बावरे हुये ये सब चुनाव २०१४ की जगदोजहद में अपने बयानों से वोट इकट्ठा करने की जिस तरकीब को जनता में आजमाने में लगे हुये है. पर वो भूल जाते है कि आज के समय की पब्लिक सब जानती है कि इस वक्त सरकार भी सिरफिरी हो गई है और जो जैसा चाहता है वैसा बयान देकर मीडिया में छाना चाहता है. ताकि जब चुनाव लडे तो उसको उस प्रोपेगेंडा का लाभ मिल सके और अपनी पार्टी का शुभचिंतक बन सके.यह पूरा देश इस वक्त इसी तरह की आग से जल रहा है. यहाँ दलाली, कलाली, मवाली, से लेकर धरम और कुकर्म की मंडी बनती जा रही है. राजनीति के अखाडे है. औरतों का क्रय विक्रय करने वाले अब बयानबाजी पे उतारू हो गये है. गिरोहबाजी का यह हाल है कि इस वक्त चुनाव की स्थिति का कुप्रभाव दिखने लगा है ..इसी वजह से राज बब्बर जैसे नेता अब होटल और ढाबे के सस्ते खाने की चिंता करने लगे है और भी अन्य नेता साथ साथ अपना हाथ इस बहती गंगा में धोते जा रहे है. खान १२,,,, या एक रुपये में मिले तो भी इन सभी को क्या फर्क पडता है ये तो १२ लाख से १२ करोड के मूत्रालय में मूत्र विसर्जन करते है. और बात करते है गरीबों के ससते खाने की शायद वो नहीं जानते है कि
"भूख जब जवान होती है, जिंदगी एक इंतिहान होती है, एक कदम भी कोई चल नहीं पाता, पैरो में जब थकान होती है," जिन्हे आज तक रुपयों के दम पर नीलाम की गई हर फरमाईसो को पूरा किया गया हो वह क्या जानेगा कि खाना २ रुपये में कहाँ मिलता है. यदि एक पता पूछा जाये तो इन नेताओं के मुँह में दही जम जायेगा. तब किसी के मुँह से कोई शब्द नहीं निकल सकता है.
    एक बात और मैने देखा है कि इस तरह की बयान बाजी के चलते हमारे प्रधानमंत्री जी, सोनिया जी और अन्य काँग्रेस की पैरवी करने वाले लोग किस बिल में घुस जाते है समझ में नहीं आते है. राहुल गाँधी की तो बोलती बंद हो जाती है और सरकार की अस्मिता में बट्टा लगाने वाले सरे राह लूट ले जाते है,आज भी आम आदमी के कुछ आम सवाल जो जबाव नहीं दे पाये उन्हे इस बात जिक्र करने का तो कोई हक नहीं है. ये सवाल आपसे सोचता हूँ कि साझा कर लेता हूँ. २५० रु का गैस सिलेन्डर ९५० रु का क्यो दिया जा रहा है. १४रु किलो की चीनी ५० रु किलो में क्यों दी जा रही है.३५ रु लीटर का पेट्रोल ७५ रु लीटर में क्यों मिल रहा है. २५ रु किलो की दाल ९० रु. किलो में क्यों मिल रही है. और तो और १५ रु किलो का टमाटर ८० रुम, किलो में क्यों मिल रहा है. राज बब्बर साहब शायद इन सवालो के जवाब देने में किनारा कर सकते है क्योकी उनकी सरकार ही इस सब प्रश्नों की जिम्मेवारी ले सकती है.यदि मुम्बई की बात करते है तो उन्हे यह भी पता होना चाहिये कि मुम्बई के कई बडे अस्पतालों के पास कुछ ऐसे धर्मशालाये है जहाँ मरीजों और उनके साथियों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है. और हम गुरुद्वारे के लंगरों को क्यों भूल जाते है जिसमें हर रोज अनगिनत आने वाले भक्त जनों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है. आज के समय में इतने रुपये में मरने के लिये जहर तक नसीब नहीं होता है परन्तु खाये अघाये लोगो की यह प्रवृति होती है कि वह अंगुली करने में लगे रहते है . ना किसी को चैन से रहने देते है. और ना खुद चैन से रहते है. आज के समय में यह सच है कि भारत दिनों दिन गरीब होता जारहा है. विकास दर की तीव्रता और जनसंख्या दर में तीव्रता दोनो एक साथ चल रही है. और कोई चाह कर भी इसे नहीं रोक सकता है. परन्तु जिस जनता ने इन नेताओं को संसद पहुँचाया है वह शायद भूल गये है कि सिविल लाइन और संसद के अंदर के रेट और बाहर के रेट में बहुत अंतर होता है. योजना आयोग जिस ३४ रुपये की इतनी पैरवी करता चला आ रहा है वह भी प्रायोगिक आँकडो से बहुत दूर है और आज के समय पर देश के बाह्य और आँतरिक खतरों के मुद्दे तैयार हो रहे है उनपर चर्चा और बयान आना चाहिये परन्तु उन पर कोई एक भी मुद्दा नहीं सामने आता है. सिर्फ गरीब गरीबी और भूख का मुद्दा ही उछालने की जो नंगी प्रवृति है वह् कहीं ना कहीं देश को तबाह और बर्बाद करने की पहल करने में सहायक होती शाबित हो रही है. रही बात भूख की तो सिर्फ इतना ही कहता चाह्ता हूँ कि फुटपाठ मे पडे बेबस गरीब से पूँछो तो जवाब यही आता है कि
बेरहम भूख मौत से बडी होती है.
सुबह मिटाओ शाम खडी होती है.

और कालिका त्रिपाठी जी की ये पक्तियाँ याद आती है. कि
"सियासत में इलाही और कितने सीन देखेंगे
हरे बस्तर में बिछती खून की कालीन देखेंगे
बडी संजीदगी से रहनुमाई बेरहम होगी
बडी शर्मिंदगी से मुल्क की तौहीन देखेंगे."


- अनिल अयानसतना.

कोई टिप्पणी नहीं: