मंगलवार, 16 जुलाई 2013

किसकी बपौती नहीं है मुंशी प्रेमचंद्र


किसकी बपौती नहीं है मुंशी प्रेमचंद्र
३० जुलाई को मुंशी प्रेमचंद्र का जन्म दिवस है. सोचता हूँ कि प्रेम चंद्र में क्या था जो हर वर्ग अपना माई बाप मान कर उनके नाम से ऐश करना चाहता है. चाहे प्रगतिशील हों, चाहे वाम पंथी हों, चाहे भारतीय संस्कृति के पोषक संस्थायें हो. और चाहे कायस्थ समाज हो सब प्रेमचंद्र के नाम की सोने की मोहर को लिये भँजाने की कोशिश में लगे होते है. सभी का यह मानना है कि प्रेमचंद्र जैसा युग दृष्टा उपन्यास कार और कहानी कार शायद ही भविष्य में भारत की धरती में भविष्य में पैदा होगा. लेकिन भारत में लोगों की फितरत रही है कि जब भी कोई फर्श में होता है उसकी कोई पूँछ परख नहीं होती है और जब कोई अर्श में होता है तो सब उसे ही अपना माई बाप मान लेता है. यही सब करते चले आये है.
    प्रेमचंद्र जिन्हे कहानी और उपन्यास का चितेरा जादूगर कहा जाता है.उनकी हर कहानी आज भी कुछ न कुछ बयान करती नजर आती है. वो जैसे उस समय भविष्यवाणी करके चले गये थे कि उनके पात्र वर्तमान परिस्थितियों के फ्रेंम मे उसी तरह फिट होंगे जैसे की वो उस वक्त हुआ करते थे. हर पात्र आज भी काल जयी बना हुआ है और भविष्य में भी बना रहेगा. प्रेमचंद्र की कहानी और उपन्यास की फेहरिस्त की बात करें तो शायद आज वह उपयुक्त समय न होगा क्योंकी आज यह बात करना जरूरी है कि जिस व्यक्ति का काम उसके नाम को इतना आँगे बढाया है कि उसे राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया गया हो. उसके लिये इस तरह की गुटबाजी कहाँ तक उचित है. और कहाँ तक यह बात सही है कि प्रेमचंद्र को लेकर इस तरह के विवाद पैदा करे. प्रेमचंद्र ऐसे कहानी और उपन्यासकार है जिनकी सोजे वतन जैसी कृति स्वतंत्रतापूर्व जला दी गई थी.और उसके बाद से ही उन्होने यह प्रेमचंद्र लबादा ओढ कर अपना लेखनकार्य शुरू किया जो अनवरत चलता रहा. लोग कहते है कि प्रेम चंद्र  कब तक चलेंगें और इस सदी तक लोग प्रेमचंद्र के नाम को जानेगें. उन सब का जवाब यही है कि प्रेम चंद्र वो नाम है जो हिन्दी साहित्य के समापन के साथ ही खत्म होगा. उसके पहले ना वो खत्म हो सकता है और ना कोई खत्म कर सकता है. देश में ही नहीं वरन विदेश में भी जहाँ पर हिन्दीप्रेमी है वो प्रेमचंद्र के दीवाने है. प्रेमचंद्र को भारत देश ही नहीं वरन पूरा विश्व अध्यन कर रहा है. प्रेम चंद्र का कथासम्राज्य इतना विस्तृत है कि कोई पाठक जितना चाहे उतना पढे,उसे गढे और एहसास करे कि प्रेमचंद्र किस कलमकार का नाम है.
   आज प्रगतिशील लेखक संघ,दलित लेखक संघ,हिन्दी साहित्य परिषद,हिन्दी साहित्य सम्मेलन, और कायस्थ समाज जैसे संगठन प्रेमचंद्र के नाम की रोटियाँ सेकने की कोशिश में लगे हुये है. सब प्रेमचंद्र को अपना गाडफादर मान कर उसके नाम की असर्फियाँ भुनाने मे लगे हुये है.प्रगतिशील लेखक संघ ने तो यह सोच रखा  है कि प्रेमचंद्र उसी के नाम पेटेंट है और इसका नाम कोई भी उपयोग नहीं कर सकता है क्योंकि प्रगतिशील लेखकों का मानना है कि प्रेमचंद्र ही वह कथाकार है जिसने हर सर्वहारा वर्ग की पीडा का वर्णन किया है. जो प्रगतिशीलता का सबूत है. इसी तरह दलित लेखक संघ का मानना है कि प्रेमचंद्र उनके माई बाप है जिन्होने दलितो की पीडा अपनी कहानियों में लिखा है,. मै भी मानता हूँ कि उनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन का दर्शन, दलितों की पीडा, और सर्वहारा वर्ग की मार्मिक दास्तान लिखी है और उनकी किसानों के लिये लिखी गयी कथायें अद्वितीय है. पर क्या इसका मतलब यह है कि हम उनके नाम को अपने बाप की बपौती बनाकर नाम का दुरुपयोग करें.क्या यह काफी नहीं है आज भी सरकार ने प्रेमचंद्र सृजनपीठ का गठन करके प्रेमचंद्र का नाम अमर कर दिया है और उस पर कहानियों के लिये काम भी किया जा रहा है.शोध का काम हर जगह किया जा रहा है. मै इतना जानता हूँ कि प्रेमचंद्र को पढना हमारी मजबूरी है यदि हम एक अच्छे पाठक है क्योंकि आज जो लिखा जा रहा है वह अकालजयी है ज्यादा समय तक याद नहीं रहता है. और यदि आज भारत में हिन्दी साहित्य के अंतरगत कहानी और उपन्यास में किसी को पढना है जो आज से कई दशक पहले भी कालजयी था और आज भी कालजयी है ,आने वाले कई दशकों में भी कालजई रहेगा तो हमारी विवशता है प्रेमचंद्र को पढना ही पडेगा.क्योंकी हमारे पास कोई आप्शन ही नहीं है. प्रेमचंद्र की कहानियाँ एक दर्द को बयान करती है जो एक किसान का है, सर्वहारा वर्ग का है, दलित का है, और उस सभी व्यक्ति का है जो दबा और कुचला है अत्याचार से ग्रसित है. यदि इस बिन्दु को लेकर सब अपने अपने तरफ प्रेमचंद्र को खींचना शुरू कर देंगे तो यह दिन दूर नहीं होगा जब प्रेमचंद्र के विचारो को खून के आँशू बहाना पडेगा. और साहित्यकारों को इतना भी वख्त ना मिलेगा कि वह मुंशी प्रेमचंद्र की मैयत मे जाकर आँशू बहा सकें. शायद यही नियति का विधान है. आज के समय मे चाहिये कि बिना उन्हे अपने घर की बपौती माने उनके कार्यों पे चर्चा होनी चाहिये. उनके कार्यों पे शोध होना चाहिये और ऐसे कार्य होने चाहिये कि जिस पर सभी को गर्व हो जिसको आगामी पीढी अनुगमन कर सके और यह जान सके कि भारत का साहित्यिक इतिहास कैसा था. यदि हम इसी तरह गृह युद्ध मचाते रहे तो वह दिन दूर नहीं है जब प्रेमचंद्र की विचारधारा इन विभिन्न पंथियों के घर में टंगे मृग खाल की तरह हो जायेगी और पाठक बेचारा विवश होगा साहित्य मे मचे यह कुरुक्षेत्र का साक्षी बनने के लिये.
अनिल अयान,सतना

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