सोमवार, 17 जून 2013

व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र


व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र
२००४-०५,२००८-०९ और आज २०१३-१४ वो राजनैतिक महाक्रमण काल रहे है जब देश को आडवानीवाद का दंश झेलना पडा है और आज भी यह प्रभाव भारतीय जनता पार्टी को बैकफुट में लाने के लिये काफी है. चाहे वो अटल जी के अटल इरादों के साथ खडे आडवानी हो,चाहे वो जिन्ना की तारीफ करने वाले आडवानी हो,चाहे पिछले चुनाव की हार के जिम्मेवार प्रतिनिधि आडवानी हो, और आज के नरेन्द्र मोदी के शत्रु समान व्यवहार करने वाले आडवानी हो, उन्होने हर मुकाम मे भाजपा को अपने घर की मुर्गी समझा है जब चाहा तब इस्तीफा थमा दिया जैसे इस्तीफा कोई भीख हो, पिछले दो बार यही रवैया अपनाये हुये आड्वानी जी यही सोच रहे थे कि इस बार भी भाजपा के आला कमान के लोग आर एस एस के साथ उनके पीछे भागेगे और उनसे मिन्नते करेंगे कि चलिये आपके बिना हमारा और राजनीति का भला नहीं होने वाला है. मुझे यह समझ मे नहीं आता है कि गोवा के निर्णयों के बाद जब मोदी के नाम पर मोहर लगा दीगई तो फिर भी ये अपनी पदलोलुपता का गुणा भाग लगाकर क्या हासिल करना चाहते है. एक बार तो इन्होने अपनी औकात पार्टी को दिखा दी कि इनके कंधे मे यदि चुनाव की बंदूख से सत्ता का सपना देखना है तो वह पिछली बार की तरह खाली हाथ ही  मलना रह जायेगा. जहाँ तक मुझे पूरा घटना चक्र समझ मे आता है तो आडवानी कुछ गिने चुने मामलों को छोडकर संघीय विचार धारा का समर्थन कहीं किये हों. और इसी का पर्याय रहा जिसके अंतर्गत संघ के प्रस्तावित नरेन्द्र मोदी के विरोध मे खूँटा गाड दिया और पूरी भाजपा को एक तेज तूफान में डाल दिया.और चुपचाप शतरंज के खेल की अगली बाजी का इंतजार करने लगे.
  इस घटना चक्र ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि कोई नेता अपने आप को पार्टी का माईबाप समझने का भ्रम पालने लगे तो उसके साथ पार्टी को और उसके सिद्धांतो के परिपेक्ष में क्या कदम उठाना चाहिये.९० वर्ष पूरे कर रहे संधीय विचारधारा को धता बताने वाले आडवानी जी को यह आभास होगया कि १९९० के बाद भाजपा सिर्फ उन्हे एक बोझ की तरह ढो रही थी. वरना कब का बाहर का रासता दिखा दी होती.आडवानी जी यह याद रख सकते है कि उन्होने भाजपा को बनाया है और भाजपा को उन्हे प्रधानमंत्री बनाना ही चाहिये.परन्तु उनका कर्तव्य है कि वो यह भी तो जाने कि उनको भाजपाई किसने बनाया है.संघ ने यह पुष्टि कर दिया कि उसने आडवानी के राजनैतिक कैरियर को पैदा किया है  और संस्था से बढ कर कार्यकर्ता का कद नहीं है परन्तु आडवानी जी इस मन के फेर में है कि उन्होने भाजपा को अपने खून पसीने से पैदा किया है पाला पोसा है और यह  भाजपा के ऊपर उनका उधार है जिसे भाजपा को उन्हे पीएम बना कर शूद सहित चुकाना ही होगा जो किसी मायने में सच नही है.व्यक्तिगत वर्चस्व बनाम संस्थागत समान्जस्य का कुरुक्षेत्र जो इस समय लडा जा रहा है वह किस परिणाम तक भाजपा को ले जायेगा यह तो नही पता परन्तु यह तक है कि मोदी जी के इरादे जरूर फौलाद से ज्यादा मजबूत हो जायेंगें. क्योंकी उन्होने गुजरात चुनाव जीतने के बाद ही कहा था कि यदि लोग उन पर पत्थर उछालते है तो वह उन पत्थरों से मंजिलों को पाने की सीढी बना लेगे. यहाँ तो मामला और ज्यादा गंभीर है.
   यह मामला तो ठीक उसी तरह लगने लगा है जिस तरह कम्युनिस्ट १९६४ में बंट गये और आजाद भारत में कांग्रेस के बीच टकराव के कसीदे सुनायी पडे थी. यह भी सच है की आडवानी के तरफ की भावनात्मक सोच को लेकर भाजपा दूरगामी निर्णय नहीं ले पाती क्योंकी डूबने सूरज के साथ चलने वालों को शाम और रात का सामना तो करना ही पडेगा. संघीय विचारधारा जैसे अनुशासित विचारों के साथ के बावजूद यदि आडवानी जी सिर्फ तीन दायित्वधारी पदों से इस्तीफा दिया और अन्य उसी तरह बरकरार रखे थे. तो यह भी तय था कि उन्हे आज भी यह यकीन था कि शायद भाजपा अपना सिर झुका रह उनके वर्चस्व को कुबूल कर लेगी.वो भी क्या करे मानवोचित दुर्गुण से प्रेरित है. और अपना परिणाम भुगत रहें है. लेकिन यह भी तय है की खुशी में लिपटे इस दुख का इलाज जरूरी है इसके पहले की यह नासूर बनकर पूरे शरीर का सत्यानाश कर दे.किसी मुद्दे में जब आडवानी जी ने अपने आप को भीष्म कहा तो मुझे पूछने का मन हुआ कि वो भाजपा को किस सेना की संज्ञा देने के इच्छुक है कौरवों या पाण्डवों की सेना. भाजपा को चाहिये कि वो इस शतरंज के दाव की तरह अपनी चाल में चाणक्य नीति लाये और अवसरवादी आडवानी जी को भी रथ का हिस्सा बना कर इस चुनावी महासमर को विजयी करे परन्तु अर्जुन अर्थात पार्थ की भाँति संघ रूपी केशव को अपना विजय रथ जरूर सौंप दे और आस्वस्त हो जाये क्योंकी अभी वो भ्रम द्वंद के छल छद्म में भ्रमित सी महसूस होती है.
अनिल अयान,सतना.

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