मंगलवार, 14 मई 2013

चाइना को आईना दिखाना जरूरी


चाइना को आईना दिखाना जरूरी.
बचपन में एक कहानी पढी थी. जिसमे चूहों की फौज के बीच यह बहस जारी थी कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधेगा. और अंततः घंटी बाँध दी जाती है. ऐसे ही हालात इस वक्त देश के अंदर जारी है. पडोसी मुल्क चाइना अपने दंभ के चलते भारत के अंदर घुसबैठ कर रहा है और भारत यह सोच रहा है कि चाइना को आईना कैसे दिखाया जाये. ऐसा लग रहा है कि यक्ष प्रश्न भारत के सामने खडा हुआ है शांति स्थापित करने के लिये और भारत अभी भी समप्रभुता और एकता अखण्डता के लिये दिन रात मनन कर रहा है और चिंतन कर रहा है कि किया क्या जाये अपनी अस्मिता को बचाने के लिये और स्वाभिमान की रक्षा के लिये. इतिहास साक्षी है की भारत और चाइना बहुत अच्छे मुल्क है. जो हमेशा अपने रिस्तो का उपयोग और उपभोग बहुत अच्छे तरीके से करते रहे है. जब भी स्वार्थ की बात आयी है भारत मे चाइना ने अपना विस्तार करने की पहल की है. भारत में आज भी बहुत कुछ व्यवसाय भारत से मिलता है. भारत के घर घर में चाइना मेड सामान उपयोग हो रहा है जिसपे ना कोई विश्वास है और ना कोई भरोसा.
जब बाजारवाद मे चाइना का कोई भरोसा नहीं करता तो फिर हमारे प्रधानमंत्री जी और उनका मंत्रीमंडल कैसे विश्वास कर सकता है क्या वो इस देश में नही रहे क्या वो इस देश के साथ हुए चाइना के व्यवहार को भूल गये है. क्या वो दलाईलामा के भारत शरणागत होने की स्थिति में चाइना के व्यवहार और प्रतिकार को पूर्णतः बिसरा दिया है. खैर जो भी हो यह तो सरकार ही जानती है. पर यह तो तय है भारत अभी भी चाइना के समक्ष बौना है. चाइना का दल बल सेना सत्ता और समस्त अवयव संसाधन भारत की तुलना में कहीं ज्यादा प्रभावी , मारक और तेज है. उनके यहाँ की सत्ता से सेना सब देश के लिये , हित के लिये अपनी जान को कुर्बान कर देते है. और भारत में सिर्फ बात की जाती है. यही कारण है की आज भी भारत की सीमा में चाइना ने अपने बल पर २५ कि,मी तक कब्जा कर लिया तो भी रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री जी सेना को पीछे हटने की सिफारिश कर रहे है. धिक्कार है कि राजा खुद कह रहा है कि आओ और हमारे घर की इज्जत को सरे आम बिना विरोध किये लुट जाने का साक्षी बनो. दुश्मन चाहे जितना भी शक्ति शाली क्यों ना हो हमें पोरस की तरह लडना चाहियें , और अंतत एक राजा की तरह सिकंदर के सामने ताल ठोक कर कहना चाहिये कि ऐसा व्यवहार करो जैसे कि एक राजा दूसरे राज से करता है. एक विजेता दूसरे पराजित से नहीं. भारत में इस वक्त आंतरिक मामले इतना ज्यादा तूल पकडे हुये है कि उसे बाहरी और पडोसी दुश्मनो पर नजर रखने की फुरसत ही नहीं है. मै तो कहता हूँ कि काश भारत में लोकतंत्र की जगह यदि पूँजीवाद होता तो कहानी इस देश की कुछ और होती. तब भारत की रक्षा के लिये सेना को पीछे नहीं हटना पडता. ना ही प्रधान मंत्री जी को यह सोचना पडता की चाइना के साथ कैसा व्यवहार किया जाये. वहाँ पर तो एक ही नियम चलता की जो हमे सम्मान दे उसे सम्मान दो नही तो मौत का दान दो.
 चाइना ही नहीं बल्कि अन्य दुश्मन पडोसी मुल्क  को सीमा का संज्ञान होना चाहिये , अच्छी दीवारे अच्छे पडोसी तैयार करती है. यदि इस लोकोक्ति का असर पडोसी मुल्को पर नहीं है तो भारत को चाहिये कि बिना सोचे बिसूरे ईट का जवाब पत्थर से दे. ताकि दंभ से लोलुप हो चुके अन्य देश को भी पता चले की भारत कमजोर हो सकता है लोकतंत्रीय होसकता है पर वैस्याओं की भाँति कलाई में चूडियाँ और हाथ पैरों में मेंहदी नही सजा रखी है कि आप उसके साथ रास लीला रचाओ और वह विरोध भी ना कर सके क्योंकि आपके साथ उसके व्यावसायिक संबंध है. आज भारत को चाहिये कि रक्षा मामलों को सर्वोपरि मानकर काम करे. क्योंकि देश में सिर्फ व्यापार और व्यवसाय ही बस नहीं होता. लोगों की रक्षा और अपनी विरासत की हिफाजत भी महत्वपूर्ण होती है.
-

कोई टिप्पणी नहीं: