सोमवार, 8 अप्रैल 2013

मरीज हलाल डाक्टर खुशहाल


मरीज हलाल डाक्टर खुशहाल
बीमारियाँ बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारी जिंदगी मे आती है. और कब तक इनका ठिकाना रहेगा यह तो बीमार होने वाला व्यक्ति भी नहीं जानता है.बीमारी ,बीमार और अस्पताल का संबंध बिल्कुल लंगोटिये यार की तरह रहा है. जब भी बीमारी हमारी जिंदगी में आती है तो मजबूरी मे हमें अस्पताल रूपी यमलोक जाना ही पडता है. और यह स्थिति से सभी रूबरू होते है.आम आदमी को उस वक्त अपने आम तबके के होने का आभास हो जाता है जब वो गल्ती से सरकारी अस्पताल पहुँच जाये. जहाँ बीमारी चार दिन मे सही होने वाली होगी वहाँ चार सप्ताह में भी सही नहीं होती है. सरकारी अस्पताल यानी आपकी स्थिति एक जानवर से भी बदतर होती है यहाँ के लोग है भगवान और आप इंसान. इसके बीच का गैप इतना ज्यादा होता है कि आप चाह कर भी यहाँ के स्टाफ से मानवीयता की उम्मीद नहीं कर सकते है.
          सरकारी अस्पताल का हाल यूँ होता है कि मरीज डाक्टर की दवा खाकर ही मरते है. और डाक्टर बहुत ही सफाई से यह कह देता है कि भगवान के आँगे भला किसी की कैसे चल सकती है. सब कहने की बाते है. सरकारी अस्पताल का रवैया देख कर तो यह लगता है कि इस तरह की इमारते हमारे समाज मे सिर्फ मरीज से रुपया चूसने के लिये ही बनायी जाती है जिसमे एक वार्ड ब्वाय से लेकर एक अधिकारी तक सिर्फ मरीज और उसके परिवार वालों की चरसी उकेलने से बाज नहीं आते है. सिलसिला तब शुरु होता है जब उसे ओपीडी में घंटो खडे होकर सिर्फ दिखाने के लिये पर्ची कटवाने का इंतजार करना पडता है. फिर डाँक्टर साहब का इंतजार , उनके पास इतना समय कहाँ कि वो आम जन की बान को सुन सकें वो तो नर्सिंग होम्स और प्राइवेट प्रैक्टिस मे काफी व्यस्त रहते है. अब मरीज चाहे तो डाक्टर के घर जाकर या क्लीनिक जाकर अपना इलाज कराये वरना इलाज करवाने के लिये सूरज के डूबने तक का इंतजार करे,,,, मरीज और उसके परिवार वाले इस तरह की स्थिति देख कर झोलाछाप डाक्टर्स का सहारा लेने के लिये मजबूर है क्योंकि ना उनके पास उतना पैसा है और ना वक्त की डाक्टर साहब के नखडों को बरदास्त कर पाये. सरकारी अस्पताल की एक और खासियत होती है यहाँ पर कोई काम मुफ्त में नहीं होता है. हाँ मुफ्त रूप का जामा पहना दिया जाता है. मानवीयता तो यहाँ पर शर्म से पानी पानी नजर आती है. यहा पर भर्ती होने वाले मरीज तब ही यहाँ से जाते है जब वो जान जाते है कि अब मरने की स्थिति आगई है या फिर मरीज अब इन डाक्टर्स के बस का नहीं है.
यहाँ पर किसी मरीज को तभी सूचना दी जाती है जब वो पूरी तरह से टूट चुका होता है और दवाएँ मर्ज को सही कर पाने  मे असमर्थ हो जाते है. पूरी तरह से चूतिया बनाने का खेल चलता है अधिक्तर सरकारी अस्पतालों मे. यहाँ पर आम दवाएँ जो मरीजो को मुफ्त मे दी जानी चाहिये... या बुजुर्गों के इलाज की दवायें.. या गर्भवती महिलाओं के लिये योजनाये.... सभी सिर्फ नाम मात्र की है... इसके लिये भी यहाँ के कर्मचारियों के द्वारा मरीजों को परेशान कर लिया जाता है.और इतना परेशान किया जाता है कि दोबारा वो सरकारी योजनाओं के लाभ की बात सपनें में भी नहीं सोचते है.यहाँ का कोई भी कर्मचारी सही समय पर नहीं होता है. सबसे मिलने के लिये इंतजार और लंबा इंतजार करना ही पडता है, यहाँ के डाँक्टर्स को ना कभी रोक लगाई जाती है कि वो प्राइवेट प्रैक्टिस को इतना बढावा क्यों देते है नर्सिंग होम की कमाई के लिये क्यों मरीजों को परेशान करते है. मानवरूप मे इस तरह के भगवान और उनके चेलों से प्रेम की भाषा तो कोसों दूर नजर आती है.एक बात और जो देखने को मिलती है की इस लोगों को स्वागत सत्कार का मौका सिर्फ मेडिकल कम्पनियों के प्रतिनिधि खूब देते है. और उन्ही की सेवा सत्कार का परिणाम होता है कि डाक्टर्स को हर वर्ष मेडिकल कम्पनियों की तरफ से उनका दिया टारगेट पूरा करने के लिये फारेन टूर और अन्य सुविधाये और सेवाये भी बेरोकटोक दी जाती है. इस तरह की अप्रत्यक्ष रूप से दीजाने वाली सुविधा शुल्क का कोई माई बाप नहीं है. ना कोई इन पर लगाम लगाने के लिये आगे आता है.सरकार तो इस तरह के रिवाजों पे कोई भी प्रतिक्रिया नही देती है.
          अजीब है स्वास्थ्य विभाग और उसकी योजनाएँ,,,, भोपाल से समय समय में घोषणाएँ होती है पर मरीजों तक पहुँचना सिर्फ एक स्वपन ही होती है.ऐसा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों के ऊपर आलाकमान नहीं है पर उनका निरीक्षण सिर्फ दिखावटी होता है, पहले से अस्पताल को पता होता है जिसके चलते वो अधिकारियों की भरपूर सेवाखुसामद करते है जिससे कमियाँ अपने आप छिप जाती है... निरीक्षण के दिन तो ऐसा लगता हैकि इससे अच्छा अस्पताल तो पूरे देश मे नहीं है.इस तरह के रवैये के चलते स्वास्थ विभाग चाहकर भी परदे के पीछे की तस्वीर नहीं देख पाता है.पूरी तस्वीर सिर्फ देखकर सोचने वाली होती है.देखने मे सब सामान्य सा दिखता है पर महसूस करने पर क्षोभ भी होता है और पीडा भी होती है. यही इस जहाँ की रीत है यदि अस्पतालों को जन सामान्य के लिये हित कर बनाना है तो पहले इन्हे नैतिक शिक्षा का पाठ पढने की आवश्यकता है. और फिर सी.एम.ओ. सी.एम.एच ओ. और हर व्यक्ति जो इस सेवा कार्य से जुडा हुआ है उनके स्वनुशासन की बहुत जरूरत वरना चाहे सरकार सिर के  बल भी खडी हो जाये चाहे स्वास्थ्य मंत्री दिन रात एक कर दे पर इनकी कालगुजारी से जनता और सर्वहारा वर्ग को नही बचाया जा सकता है इसी तरह आपरेशन्स मे औजार छूटते रहेंगे. गलत पतों पर शव प्रेषित किये जायेंगे. इसी तरह पब्लिक डाक्टर्स को सरे आम पीटेगी. क्योकी जनता इस तरह की मजाकबाजी कब तक इनके द्वारा बर्दास्त करती रहेगी.
अनिल अयान.सतना

बीमारियाँ बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारी जिंदगी मे आती है. और कब तक इनका ठिकाना रहेगा यह तो बीमार होने वाला व्यक्ति भी नहीं जानता है.बीमारी ,बीमार और अस्पताल का संबंध बिल्कुल लंगोटिये यार की तरह रहा है. जब भी बीमारी हमारी जिंदगी में आती है तो मजबूरी मे हमें अस्पताल रूपी यमलोक जाना ही पडता है. और यह स्थिति से सभी रूबरू होते है.आम आदमी को उस वक्त अपने आम तबके के होने का आभास हो जाता है जब वो गल्ती से सरकारी अस्पताल पहुँच जाये. जहाँ बीमारी चार दिन मे सही होने वाली होगी वहाँ चार सप्ताह में भी सही नहीं होती है. सरकारी अस्पताल यानी आपकी स्थिति एक जानवर से भी बदतर होती है यहाँ के लोग है भगवान और आप इंसान. इसके बीच का गैप इतना ज्यादा होता है कि आप चाह कर भी यहाँ के स्टाफ से मानवीयता की उम्मीद नहीं कर सकते है.
          सरकारी अस्पताल का हाल यूँ होता है कि मरीज डाक्टर की दवा खाकर ही मरते है. और डाक्टर बहुत ही सफाई से यह कह देता है कि भगवान के आँगे भला किसी की कैसे चल सकती है. सब कहने की बाते है. सरकारी अस्पताल का रवैया देख कर तो यह लगता है कि इस तरह की इमारते हमारे समाज मे सिर्फ मरीज से रुपया चूसने के लिये ही बनायी जाती है जिसमे एक वार्ड ब्वाय से लेकर एक अधिकारी तक सिर्फ मरीज और उसके परिवार वालों की चरसी उकेलने से बाज नहीं आते है. सिलसिला तब शुरु होता है जब उसे ओपीडी में घंटो खडे होकर सिर्फ दिखाने के लिये पर्ची कटवाने का इंतजार करना पडता है. फिर डाँक्टर साहब का इंतजार , उनके पास इतना समय कहाँ कि वो आम जन की बान को सुन सकें वो तो नर्सिंग होम्स और प्राइवेट प्रैक्टिस मे काफी व्यस्त रहते है. अब मरीज चाहे तो डाक्टर के घर जाकर या क्लीनिक जाकर अपना इलाज कराये वरना इलाज करवाने के लिये सूरज के डूबने तक का इंतजार करे,,,, मरीज और उसके परिवार वाले इस तरह की स्थिति देख कर झोलाछाप डाक्टर्स का सहारा लेने के लिये मजबूर है क्योंकि ना उनके पास उतना पैसा है और ना वक्त की डाक्टर साहब के नखडों को बरदास्त कर पाये. सरकारी अस्पताल की एक और खासियत होती है यहाँ पर कोई काम मुफ्त में नहीं होता है. हाँ मुफ्त रूप का जामा पहना दिया जाता है. मानवीयता तो यहाँ पर शर्म से पानी पानी नजर आती है. यहा पर भर्ती होने वाले मरीज तब ही यहाँ से जाते है जब वो जान जाते है कि अब मरने की स्थिति आगई है या फिर मरीज अब इन डाक्टर्स के बस का नहीं है.
यहाँ पर किसी मरीज को तभी सूचना दी जाती है जब वो पूरी तरह से टूट चुका होता है और दवाएँ मर्ज को सही कर पाने  मे असमर्थ हो जाते है. पूरी तरह से चूतिया बनाने का खेल चलता है अधिक्तर सरकारी अस्पतालों मे. यहाँ पर आम दवाएँ जो मरीजो को मुफ्त मे दी जानी चाहिये... या बुजुर्गों के इलाज की दवायें.. या गर्भवती महिलाओं के लिये योजनाये.... सभी सिर्फ नाम मात्र की है... इसके लिये भी यहाँ के कर्मचारियों के द्वारा मरीजों को परेशान कर लिया जाता है.और इतना परेशान किया जाता है कि दोबारा वो सरकारी योजनाओं के लाभ की बात सपनें में भी नहीं सोचते है.यहाँ का कोई भी कर्मचारी सही समय पर नहीं होता है. सबसे मिलने के लिये इंतजार और लंबा इंतजार करना ही पडता है, यहाँ के डाँक्टर्स को ना कभी रोक लगाई जाती है कि वो प्राइवेट प्रैक्टिस को इतना बढावा क्यों देते है नर्सिंग होम की कमाई के लिये क्यों मरीजों को परेशान करते है. मानवरूप मे इस तरह के भगवान और उनके चेलों से प्रेम की भाषा तो कोसों दूर नजर आती है.एक बात और जो देखने को मिलती है की इस लोगों को स्वागत सत्कार का मौका सिर्फ मेडिकल कम्पनियों के प्रतिनिधि खूब देते है. और उन्ही की सेवा सत्कार का परिणाम होता है कि डाक्टर्स को हर वर्ष मेडिकल कम्पनियों की तरफ से उनका दिया टारगेट पूरा करने के लिये फारेन टूर और अन्य सुविधाये और सेवाये भी बेरोकटोक दी जाती है. इस तरह की अप्रत्यक्ष रूप से दीजाने वाली सुविधा शुल्क का कोई माई बाप नहीं है. ना कोई इन पर लगाम लगाने के लिये आगे आता है.सरकार तो इस तरह के रिवाजों पे कोई भी प्रतिक्रिया नही देती है.
          अजीब है स्वास्थ्य विभाग और उसकी योजनाएँ,,,, भोपाल से समय समय में घोषणाएँ होती है पर मरीजों तक पहुँचना सिर्फ एक स्वपन ही होती है.ऐसा नहीं है कि सरकारी अस्पतालों के ऊपर आलाकमान नहीं है पर उनका निरीक्षण सिर्फ दिखावटी होता है, पहले से अस्पताल को पता होता है जिसके चलते वो अधिकारियों की भरपूर सेवाखुसामद करते है जिससे कमियाँ अपने आप छिप जाती है... निरीक्षण के दिन तो ऐसा लगता हैकि इससे अच्छा अस्पताल तो पूरे देश मे नहीं है.इस तरह के रवैये के चलते स्वास्थ विभाग चाहकर भी परदे के पीछे की तस्वीर नहीं देख पाता है.पूरी तस्वीर सिर्फ देखकर सोचने वाली होती है.देखने मे सब सामान्य सा दिखता है पर महसूस करने पर क्षोभ भी होता है और पीडा भी होती है. यही इस जहाँ की रीत है यदि अस्पतालों को जन सामान्य के लिये हित कर बनाना है तो पहले इन्हे नैतिक शिक्षा का पाठ पढने की आवश्यकता है. और फिर सी.एम.ओ. सी.एम.एच ओ. और हर व्यक्ति जो इस सेवा कार्य से जुडा हुआ है उनके स्वनुशासन की बहुत जरूरत वरना चाहे सरकार सिर के  बल भी खडी हो जाये चाहे स्वास्थ्य मंत्री दिन रात एक कर दे पर इनकी कालगुजारी से जनता और सर्वहारा वर्ग को नही बचाया जा सकता है इसी तरह आपरेशन्स मे औजार छूटते रहेंगे. गलत पतों पर शव प्रेषित किये जायेंगे. इसी तरह पब्लिक डाक्टर्स को सरे आम पीटेगी. क्योकी जनता इस तरह की मजाकबाजी कब तक इनके द्वारा बर्दास्त करती रहेगी.
अनिल अयान.सतना

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