सोमवार, 12 नवंबर 2012

महंगे हुए सपने अब नहीं है अपने

महंगे हुए सपने अब नहीं है अपने
बुजुर्गो ने कहा था कि हमेशा खुले आॅखों से सपने देखों तभी वो पूरे होते है वरना नींद के सपनों का कोई औचित्य नहीं है। परंतु आज के समय है। लोग कितने सपने देखते है। परंतु महंगाई एक डायन की तरह उनके पीछे, पडकर सपनों को तोडने लगती है। क्या जमाना आ गया है साहब आज के समय पर सपनों की उॅचाई इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सपनों को देखने के लिए सरकारी की मेहरबानी। जीॅ हाॅ ये कोई फेंटेसी की बात नहीं है। यह वास्तविकता है यदि आपको यकीन न हो तो उन लोगों से पूंछिये जिनकी रोज की रात उस सोच में बरबाद होती है कि अगली रात भूखे पेट सोना पडेगा या निवाला नसीब होगा कि नहीं। उसका सपना तो सिर्फ रोटी कपडा और मकान का इंतजाम कर पाना की नहीं होता है।
तथ्यों के अनुरूप यह भी सच है कि इन दो वर्षो में महंगाई इतनी अधिक बढी है कि पिछले वर्षो की महंगाई को भी इस पर यकीन नहीं था। अर्थशास्त्राी अपने हाथों में हाथ धरे बैठे रह गए परंतु महंगाई और मुद्रा स्फीति की दर को रोकने में अक्षम रहे। महंगाई का सबसे ज्यादा प्रभाव आम जन पर पडा है। खास की श्रेणी में आने वाले धन्ना सेठ तो आज भी उसी तरह जीवन जी रहे है किस तरह पहले जिया करते थे। महंगाई के चलते सरकार भी अपनी तटीया सीमा में पहुॅच गई। सरकार के दो प्रतिनिधि डाॅ. मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य रहा होगा जब वो प्रधानमंत्राी होने के बारे में विचार कर रहे थे वरना वो अर्थशास्त्राी के रूप में ज्यादा नामवर हुए। यह सच है कि महंगाई आज के समय की देश में सबसे ज्यादा चिंताजनक मुद्दा बनी हुई है।
एक तरफ हमारा देश विकास करने के लिए विकसित देशों की श्रेणी में खुद को लाने के लिए तत्पर है और वहीं दूसरी तरफ महंगाई त्रोता युग की सुराा की तरह अपना मुख फेलाती ही जा रही है। महंगाई का असर यंू हुआ है कि गल्ला खरीदने से लेकर उसे खाने योग्य बनाने में और पकाकर खाने की प्रविधि में इतनी ज्यादा चिंता होती है कि लोग खाना खाने की तृष्णा को भूल जाते है। आज के समय पर देखे गए सपने तो बहुत दूर की बात है यदि वो अपनी आयु पूरी कर लें तो शायद ऊपर वाले की मेहरबानी ही होगी। आज के समय पर आम से संसद में बैठा हुआ हर व्यक्ति महंगाई का ही राग अलाप रहा है। कोई महंगाई के नाम पर वोट का बैंक बना रहा है? कोई महंगाई के चलते चैथा मोर्चा खोल रहा कोई महंगाई पर बयानबाजी करके कैमरे के सामने आना चाहता है बस यह कहे कि महंगाई कभी एन0डी0ए0 और कभी यू0पी0ए0 के घर में बिन पेंदी के लोटे की तरह लुढक रही है। महंगाई की मार 2011-12 में कुछ ऐसी पडी कि सरसो के खाने के तेल और पेट्रोल में कोई अंतर नहीं रह गया। आज के समय में समय के साथ महंगाई भी हाईटेक नेताओं के हाथ की कठपुतली हो गई है जो चाहे जब चाहे आम इंसान की कमर तुडवाने के लिए इसका प्रयोग कर सकता है सिर्फ उसके पास पावर और लालबत्ती हो। आजकल रूपये का दाम खुद कम हो गया तो रूपय देकर समान का दाम बढ गया। अर्थशास्त्रा के सारे नियम कानून भारतीय मुद्रा को सम्मानजनक स्ािान दिलाने में असमर्थ साबित हो रहा है। नौकरी पेशेवालों की तो और मुसीबत है उनकी तनख्वाह सिर्फ महंगाई की भूख प्यास को पूरा करने में ही खप जाती है। बचत करना तो सिर्फ सपना हो गया है। लोगों के अमीर बनने के सपने में जंग लगने लगी है। आयात और निर्यात के बीच बनती खाई कही न कहीं महंगाई के लिए उत्तरदायी है। आयात शुल्क में बढोत्तरी और अनावश्यक लोगों को सब्सिडी कहीं न कही पर सरकार के लिए महंगी साबित हो रही है। अर्थजगत के सुप्रसिद्व अखबार द एकोनाॅमिकल टाइम्स को देखते हुए एक संपादकीय में साफ-साफ लिखा गया कि भोपाल की अधिकता और उत्पादित माल के निर्यात में कमी भारत को कंगाल बनाने में मदद कर रही है और यदि यही हाल रहा तो भारत इस सरकार की अगली दो पंचवर्षीय पूरे होने तक घोषित हो जाएगा और उस समय पर अर्थशास्त्रा कुछ भी नहीं कर पाएगा। न ही भारत को दिवालिया होने से बचा पाएगा। यह सच है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार भविष्यगत सपने देखता है और उसे पूरे करने के लिए दिन रात एक करता है परंतु भरत की स्थिति यह की भारत में रहने वाला ही व्यक्ति कर्ज में डूबा है। भारत में रहने वाला गरीब और अधिक गरीब हुआ है और भारत का अमीर और अधिक अमीर हुआ। कई अमीरों की अमीरी का कोई सिर पैर तथा बुनियाद नहीं है। उनके स्विस बैंको में स्थित खाते अपने सुख चैन के लिए दिन गिन रहे है। शिक्षा से लेकर दीक्षा तक सब महंगी हो गई है। आप कब तक यह कहते रहेंगे कि हमे अपने से मतलब है देश से कोई मतलब नहीं वो जनप्रतिनिधि जाने देश चलाना प्रधानमंत्राी को ठेका है और राज्य चलाना मुख्यमंत्राी का ठेका है। हमने तो उन्हें चुनकर विधानसभा और संसद में भेज दिया बाकी उनकी जिम्मेबारी वो जाने।
यह सच है कि जिस देश के भौतिक संसाधनों का उपयोग मानव संसाधनों के द्वारा नहीं किया जाता वह देश अपनी कंगाली का पहला कदम रख चुका होता है। एक तरफ यदि महंगाई यह चिल्लाती हुई हमें डकार जाने के लिए आतुर हो रही है कि मोहि कहा विश्राम। तो हम सब को इस बात पर आपसी सामंज्य बिठाकर उसका सामना करना चाहिए। महंगाई यदि सुरक्षा की तरह मुॅह फेला रही है तो हमें हनुमान की तरह हार न मानते हुए सामना करके विजयी होना पडेगा या तो हम बदल जाए या जमाने को बदल दें। हम बदलेंगे तो सपने अपने होगे और यदि जमाना बदलेगा तो सपने सुहाने होंगे तो अब से महंगाई की कहिये तोहिं यहाॅ विश्राम।
अनिल अयान
संपादक शब्द शिल्पी
सतना मो. 9406781040

बुजुर्गो ने कहा था कि हमेशा खुले आॅखों से सपने देखों तभी वो पूरे होते है वरना नींद के सपनों का कोई औचित्य नहीं है। परंतु आज के समय है। लोग कितने सपने देखते है। परंतु महंगाई एक डायन की तरह उनके पीछे, पडकर सपनों को तोडने लगती है। क्या जमाना आ गया है साहब आज के समय पर सपनों की उॅचाई इतनी ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि सपनों को देखने के लिए सरकारी की मेहरबानी। जीॅ हाॅ ये कोई फेंटेसी की बात नहीं है। यह वास्तविकता है यदि आपको यकीन न हो तो उन लोगों से पूंछिये जिनकी रोज की रात उस सोच में बरबाद होती है कि अगली रात भूखे पेट सोना पडेगा या निवाला नसीब होगा कि नहीं। उसका सपना तो सिर्फ रोटी कपडा और मकान का इंतजाम कर पाना की नहीं होता है।
तथ्यों के अनुरूप यह भी सच है कि इन दो वर्षो में महंगाई इतनी अधिक बढी है कि पिछले वर्षो की महंगाई को भी इस पर यकीन नहीं था। अर्थशास्त्राी अपने हाथों में हाथ धरे बैठे रह गए परंतु महंगाई और मुद्रा स्फीति की दर को रोकने में अक्षम रहे। महंगाई का सबसे ज्यादा प्रभाव आम जन पर पडा है। खास की श्रेणी में आने वाले धन्ना सेठ तो आज भी उसी तरह जीवन जी रहे है किस तरह पहले जिया करते थे। महंगाई के चलते सरकार भी अपनी तटीया सीमा में पहुॅच गई। सरकार के दो प्रतिनिधि डाॅ. मनमोहन सिंह का दुर्भाग्य रहा होगा जब वो प्रधानमंत्राी होने के बारे में विचार कर रहे थे वरना वो अर्थशास्त्राी के रूप में ज्यादा नामवर हुए। यह सच है कि महंगाई आज के समय की देश में सबसे ज्यादा चिंताजनक मुद्दा बनी हुई है।
एक तरफ हमारा देश विकास करने के लिए विकसित देशों की श्रेणी में खुद को लाने के लिए तत्पर है और वहीं दूसरी तरफ महंगाई त्रोता युग की सुराा की तरह अपना मुख फेलाती ही जा रही है। महंगाई का असर यंू हुआ है कि गल्ला खरीदने से लेकर उसे खाने योग्य बनाने में और पकाकर खाने की प्रविधि में इतनी ज्यादा चिंता होती है कि लोग खाना खाने की तृष्णा को भूल जाते है। आज के समय पर देखे गए सपने तो बहुत दूर की बात है यदि वो अपनी आयु पूरी कर लें तो शायद ऊपर वाले की मेहरबानी ही होगी। आज के समय पर आम से संसद में बैठा हुआ हर व्यक्ति महंगाई का ही राग अलाप रहा है। कोई महंगाई के नाम पर वोट का बैंक बना रहा है? कोई महंगाई के चलते चैथा मोर्चा खोल रहा कोई महंगाई पर बयानबाजी करके कैमरे के सामने आना चाहता है बस यह कहे कि महंगाई कभी एन0डी0ए0 और कभी यू0पी0ए0 के घर में बिन पेंदी के लोटे की तरह लुढक रही है। महंगाई की मार 2011-12 में कुछ ऐसी पडी कि सरसो के खाने के तेल और पेट्रोल में कोई अंतर नहीं रह गया। आज के समय में समय के साथ महंगाई भी हाईटेक नेताओं के हाथ की कठपुतली हो गई है जो चाहे जब चाहे आम इंसान की कमर तुडवाने के लिए इसका प्रयोग कर सकता है सिर्फ उसके पास पावर और लालबत्ती हो। आजकल रूपये का दाम खुद कम हो गया तो रूपय देकर समान का दाम बढ गया। अर्थशास्त्रा के सारे नियम कानून भारतीय मुद्रा को सम्मानजनक स्ािान दिलाने में असमर्थ साबित हो रहा है। नौकरी पेशेवालों की तो और मुसीबत है उनकी तनख्वाह सिर्फ महंगाई की भूख प्यास को पूरा करने में ही खप जाती है। बचत करना तो सिर्फ सपना हो गया है। लोगों के अमीर बनने के सपने में जंग लगने लगी है। आयात और निर्यात के बीच बनती खाई कही न कहीं महंगाई के लिए उत्तरदायी है। आयात शुल्क में बढोत्तरी और अनावश्यक लोगों को सब्सिडी कहीं न कही पर सरकार के लिए महंगी साबित हो रही है। अर्थजगत के सुप्रसिद्व अखबार द एकोनाॅमिकल टाइम्स को देखते हुए एक संपादकीय में साफ-साफ लिखा गया कि भोपाल की अधिकता और उत्पादित माल के निर्यात में कमी भारत को कंगाल बनाने में मदद कर रही है और यदि यही हाल रहा तो भारत इस सरकार की अगली दो पंचवर्षीय पूरे होने तक घोषित हो जाएगा और उस समय पर अर्थशास्त्रा कुछ भी नहीं कर पाएगा। न ही भारत को दिवालिया होने से बचा पाएगा। यह सच है कि मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार भविष्यगत सपने देखता है और उसे पूरे करने के लिए दिन रात एक करता है परंतु भरत की स्थिति यह की भारत में रहने वाला ही व्यक्ति कर्ज में डूबा है। भारत में रहने वाला गरीब और अधिक गरीब हुआ है और भारत का अमीर और अधिक अमीर हुआ। कई अमीरों की अमीरी का कोई सिर पैर तथा बुनियाद नहीं है। उनके स्विस बैंको में स्थित खाते अपने सुख चैन के लिए दिन गिन रहे है। शिक्षा से लेकर दीक्षा तक सब महंगी हो गई है। आप कब तक यह कहते रहेंगे कि हमे अपने से मतलब है देश से कोई मतलब नहीं वो जनप्रतिनिधि जाने देश चलाना प्रधानमंत्राी को ठेका है और राज्य चलाना मुख्यमंत्राी का ठेका है। हमने तो उन्हें चुनकर विधानसभा और संसद में भेज दिया बाकी उनकी जिम्मेबारी वो जाने।
यह सच है कि जिस देश के भौतिक संसाधनों का उपयोग मानव संसाधनों के द्वारा नहीं किया जाता वह देश अपनी कंगाली का पहला कदम रख चुका होता है। एक तरफ यदि महंगाई यह चिल्लाती हुई हमें डकार जाने के लिए आतुर हो रही है कि मोहि कहा विश्राम। तो हम सब को इस बात पर आपसी सामंज्य बिठाकर उसका सामना करना चाहिए। महंगाई यदि सुरक्षा की तरह मुॅह फेला रही है तो हमें हनुमान की तरह हार न मानते हुए सामना करके विजयी होना पडेगा या तो हम बदल जाए या जमाने को बदल दें। हम बदलेंगे तो सपने अपने होगे और यदि जमाना बदलेगा तो सपने सुहाने होंगे तो अब से महंगाई की कहिये तोहिं यहाॅ विश्राम।
अनिल अयान
संपादक शब्द शिल्पी
सतना मो. 9406781040

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